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क्या बिहार में ‘मौत’ वाली बाढ़ सरकारों के लिए फायदे का सौदा है?

बिहार में बाढ़ की वजह से साल 2019 के जुलाई महीने तक 120 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है.

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वीडियो एडिटर- विशाल कुमार

कैमरा- शिव कुमार मौर्या

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बिहार में बाढ़ का कहर, लाखों हुए बेघर

मौत का आंकड़ा 100 के पार...

खाने को तरसते बाढ़ पीड़ित

जहां रह रहे हैं लोग, वहीं अपनों की लाश जलाने को मजबूर

ये खबरें हम और आप कई दशकों से अखबार और न्यूज चैनल पर देखते-पढ़ते आ रहे हैं. हर बार मौत की एक ही कहानी. त्रासदी का एक ही पैटर्न. सरकारी मुआवजे की खानापूर्ति का एक ही खेल.

बिहार में बाढ़ की वजह से साल 2019 के जुलाई महीने तक 120 से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है. 80 लाख लोग इसकी चपेट में हैं. असम का हाल ये है कि 33 जिले बाढ़ में डूब गए और 70 से ज्यादा जिंदगियां लाश में तब्‍दील हो चुकी हैं.

सब कुछ वैसा ही, जैसा दशकों से हो रहा है. अब सवाल ये है कि क्या सरकारें इतने सालों में इन मौतों पर फुल स्टॉप लगाने का कोई रास्ता ढूंढ सकीं? चांद पर झंडा बुलंद करने वाले इस देश की सरकारें जमीन पर आने वाली इस प्रलय के लिए आखिर कोई मिशन क्यों नहीं बना सकीं? हर साल आम लोग क्यों सरकार की नाकामी की बलि चढ़ते जा रहे हैं? इसलिए हम पूछ रहे हैं जनाब ऐसे कैसे?

बिहार में पिछले कई दशकों से हर साल बाढ़ अपना जख्म छोड़ जाती है. ये जख्म अभी भर भी नहीं पातेे कि एक बार फिर बाढ़ आफत बनकर नया घाव दे जाती है. इस बार भी हालत नाजुक है. लोग अपने घरों को छोड़ सड़कों पर टेंट में रहने को मजबूर हैं. इस त्रासदी के बीच बिहार के उप-मुख्यमंत्री और वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने फिल्म देखने से थोड़ी फुर्सत निकाली है और बाढ़ पीड़ितों के लिए मुआवजे का ऐलान किया है.

सुशील कुमार मोदी ने बताया कि चार लाख 91 हजार बाढ़ पीड़ित परिवारों के खाते में 6 हजार रुपये भेज दिए गए हैं. चलिए बहुत अच्छी बात है.. ऐसे बता दें कि ये 6 हजार रुपये का मुआवजा पहली बार नहीं है, साल 2017 में भी बिहार में बाढ़ से 649 लोगों की मौत हुई थी, तब भी सरकार ने ठीक इसी तरह हर बाढ़ पीड़ित परिवार को 6 हजार रुपये का मुआवजा देने की बात कही गई थी.

अब सवाल ये है कि सरकार ने 2007, 2008 और 2017 के भयावह बाढ़ से कुछ सीखा क्यों नहीं? 2007 में 1300 लोगों की मौत हुई थी. उन मौतों के 12 साल बाद भी बाढ़ से निपटने के लिए कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठाया गया?

क्यों मुआवजा देकर सरकार अपनी नाकामी आज भी छिपा रही है? जनाब डिप्टी सीएम साहब! मुआवजा तो आखिरी उपाय है, लेकिन बाढ़ से पहले की तैयारी का क्या?

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आंकड़े बता रहे हैं सरकार मौत की कहानी

चलिए अब आंकड़ों से समझते हैं कि क्यों सिर्फ मुआवजा देना हर मसले का हल नहीं है.. 19 मार्च 2018 को पूर्व केन्द्रीय जल संसाधन, गंगा विकास राज्यमंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने केंद्रीय जल आयोग की एक रिपोर्ट के हवाले से राज्यसभा में बताया था कि भारत में 1953 से लेकर अबतक 107,487 लोगों की बाढ़ की वजह से जान जा चुकी है.

उसी रिपोर्ट में बिहार का भी जिक्र है. उस रिपोर्ट के मुताबिक नीतीश कुमार की सरकार के दौरान, मतलब 2005 से लेकर 2017 के बीच 3275 लोगों की बाढ़ की वजह से मौत हुई है. वहीं 10,206 मवेशी भी बाढ़ की बलि चढ़ गए. बता दें कि इस रिपोर्ट में 2018 और 2019 के आंकडे़ नहीं हैं. मतलब अगर दो सालों के आंकड़ों को जोड़ दें, तो लाशों की गिनती और बढ़ जाएगी. नीतीश कुमार की सरकार के दौरान फसलों, घरों और सार्वजनिक संस्थानों को 3657 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ. यहां भी अगर 2018 और 2019 के आंकड़ों को जोड़ेंगे, तो ये नुकसान 4000 करोड़ से भी ज्यादा का होगा.

क्या बाढ़ से सरकार हो रहा है फायदा?

एक कहावत है कि बाढ़ आएगी, मौत लाएगी और अधिकारियों से लेकर मंत्री की जेब भर जाएगी. ऐसा इसलिए, क्योंकि बाढ़ के बाद रेस्क्यू, शेल्टर और अलग-अलग तरह के मुआवजों के नाम पर करोड़ों रुपयों का बंटवारा होता है, लेकिन मरने वालों की लिस्ट में एक के बाद एक, साल दर साल नाम जुड़ते जाते हैं. पिछले 15 सालों में नीतीश सरकार ने बाढ़ से जुड़े मामलों में कई हजार करोड़ रुपये खर्च किए हैं. लेकिन न बाढ़ से निपटने का सटीक उपाय ढूंढा जा सका है, न बर्बादी की दास्तां बदली, न ही मौत का सिलसिला थमा.

यही नहीं, भारत के आजाद होने के बाद पहली बार 1953 में बिहार में बाढ़ को रोकने के लिए 'कोसी परियोजना' की शुरुआत की गई थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जब इस परियोजना का शिलान्यास किया था, तब उस वक्त यह कहा गया था कि अगले 15 सालों में बिहार की बाढ़ की समस्या पर काबू पा लिया जाएगा. लेकिन कई दशक बीत जाने के बाद भी बाढ़ के आगे हम बेबस हैं.

वर्ल्ड बैंक से करोड़ों रुपए मिले, लेकिन उन पैसों से क्या हुआ?

बाढ़ राहत और पुनर्वास के लिए वर्ल्ड बैंक से 2004 में 220 मिलियन अमेरीकी डॉलर मतलब 15,16,22,90,000 रुपये का फंड मिला था, ताकि तटबंधों के किनारे रहने वाले बाढ़ प्रभावित दो लाख 76 हजार लोगों के लिए पक्का घर बने और जमीन दी जाए. लेकिन 2018 तक सिर्फ 66 हजार मकान तैयार हो सके.

ऐसा क्यों हुआ, इसका जवाब सरकार ही दे सकती है. यही नहीं, वर्ल्ड बैंक बिहार कोसी बेसिन डेवलेपमेंट प्रोजेक्ट नाम से एक योजना चला रही है. 2015 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट का लक्ष्य 2023 रखा गया है. यह कुल 376 मिलियन अमरीकी डॉलर मतलब 25,90,82,80,000 रुपये का प्रोजेक्ट.

अब सवाल ये है कि क्या हजारों करोड़ खर्च होने के बाद भी बाढ़ से होने वाली तबाही पर लगाम लगाना सरकार के बस की बात नहीं है? या फिर इस बाढ़ में मुआवजा देकर सरकार अपने ऊपर लगे दाग धो लेना चाहती है?

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