वीडियो प्रोड्यूसर: मौसमी सिंह/शोहिनी बोस
वीडियो एडिटर: आशुतोष भारद्वाज
8 मई 2020 को.. 16 प्रवासी मजदूर.. महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में रेलवे ट्रैक पर सोए हुए थे. उनके ऊपर से एक मालगाड़ी चली गई. क्या आप जानते हैं कि इन 16 मजदूरों के परिवारों को आज तक उनका डेथ सर्टिफिकेट नहीं मिला है. जिसकी वजह से देश के सबसे गरीब तबके से आने वाले इन लोगों के परिवार को इंश्योरेंस का पैसा, पेंशन का पैसा, जमीन कुछ नहीं मिल पाया है. जिसका उनको वादा किया गया था. ये जो इंडिया है ना.. ये इतना कठोर-दिल कब से हो गया? ये जो इंडिया है ना.. हम अपने गरीब नागरिकों को कम से कम मौत के बाद थोड़ी इज्जत क्यों नहीं दे सकते?
लेकिन पहले हम खुद को याद दिलाए कि वो 16 मज़दूर रेलवे ट्रैक पर क्यों सोए हुए थे. लॉकडाउन की वजह से 40 दिनों तक कोई ट्रेन नहीं था. और उसके बाद भी बहुत कम ट्रेनें चल रही थीं. जो इन मज़दूरों को घर ले जातीं. पूरे देश में आपने देखा होगा उन्हें, हज़ारों की संख्या में... घर लौटने के लिए पैदल चलते हुए.बस्तों को ये भी नहीं पता था कि ट्रेन अगर है भी तो कहां से पकड़नी है. इसलिए मध्यप्रदेश के शहडोल और उमरिया के ये मज़दूर, एमपी के बॉर्डर के पास, 150 किलोमीटर दूर.. भुसावल रेल जंक्शन जा रहे थे. वो 45 किलोमीटर चल चुके थे. और पूरी तरह थक चुके थे और रात में रेलवे ट्रैक पर सो गए. और फिर ट्रेन आ गई.
हमें परवाह नहीं थी कि हमारे करोड़ों प्रवासी मज़दूरों के साथ क्या हुआ. और हमें अब भी परवाह नहीं है कि उनके परिवारों के साथ क्या हो रहा है. ये सितंबर 2020 ऑफिसियल हो गया जब केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने संसद को बताया कि लॉकडाउन के दौरान घर लौटने की कोशिश कर रहे प्रवासी मज़दूरों की संख्या पर कोई डेटा उपलब्ध नहीं है. और जब सरकार को पता ही नहीं है कि सैकड़ों, हज़ारों.. पता नहीं कितने लोगों की मौत हुई तो फिर उनके परिवारों को मुआवज़ा, या आर्थिक सहायता देने का सवाल ही नहीं उठता है.
ये जो इंडिया है ना.. हम अक्सर ही मरने वालों की संख्या को आंकड़ों में बदल देते हैं. लेकिन हमारे प्रवासी मजदूरों के लिए हमने ये भी जहमत नहीं उठाई.. 16 मजदूरों के परिवारों को शुरुआती सहायता राशि मिली.. लेकिन उसके बाद कुछ नहीं... दीपक, जिनकी उम्र सिर्फ 25 साल थी... उनके डेथ सर्टिफेकट के बिना, उनकी पत्नी चंद्रावती को विधवा पेंशन नहीं मिल रहा है.. गजराज सिंह ने उस रात अपने 2 बेटे ब्रजेश 28, और शिवदयाल 25 को खो दिया..वो भी उनके बैंक अकाउंट का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं.. उन्हें बताया गया कि डेथ सर्टीफिकेट वहीं मिलते हैं जहां मौत हुई है.. तो इस मामले में औरंगाबाद, महाराष्ट्र से ही जारी होंगे.. एमपी के शहडोल के जिला कलेक्टर ने क्विंट को बताया कि उन्होंने औरंगाबाद कलेक्टर को लिखा है... लेकिन कोई जवाब नहीं मिला है.. लेकिन क्या शहडोल के कलेक्टर फोन उठाकर औरंगाबाद के कलेक्टर को फोन मिला नहीं सकते? उन्हें करना भी चाहिए.. लेकिन वो कर नहीं रहे... क्योंकि ये जो इंडिया है ना.. यहां पर लाल फीता पोशी या रेड टेप की कोई कमी नहीं है!
और फिर भी विडंबना ये हैं कि सरकार बार-बार इस महामारी को संवेदनशीलता से संभालने के लिए खुद की पीठ थपथपाती रहती है. लेकिन ये सिर्फ़ सरकार गी नहीं है जो परवाह नहीं करती. एक बार जरा पीछे मुड़कर देखते हैं कि हममें से भी कुछ लोगों ने इस त्रासदी पर कैसे प्रतिक्रिया दी थी. कुछ लोगों ने संवेदनशीलता दिखाई थी.
रेशमी ने लिखा–ज़िंदगी पटरी पर वापस आने से पहले, मौत पटरी पर आ गई
@vaibhavadurkar ने कहा – आज मजदूर नहीं.. मजबूर मारा गया है
देश की आवाज ने कहा – ट्रेन के ड्राइवर को क्या कहा जाए.. उसके पास तो चंद सेकेंड ही थे मजदूरों को देखने के लिए. सरकार के पास तो 50 दिन थे फिर भी ना बचा पाई.
लेकिन कई ऐसे थे.. जिन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा-
@Santosh20329095 – ने कहा – उन्हें मरने दीजिए. धरती के बोझ !
@vampire2298 ने कहा – दिमागी गरीबी ?
@shailkothari – बिमारू राज्यों के बहुत ज्यादा प्रवासी हैं. वो साफ सुथरे भी नहीं रहते और अनुशासन की भी कमी है
दिमाग़ से गरीब और धरती के बोझ.. हममें से बहुतों के लिए, भारत के करोड़ों प्रवासी मज़दूर.. कोई मायने नहीं रखते. और सिर्फ़ इतना ही नहीं.. कुछ लोगों ने तो इस त्रासदी को साज़िश बताया. कुछ ने इसे सांप्रदायिक रंग भी दिया.
Saffron Shines ने कहा –सभी 15 रेलवे ट्रैक पर सो गए.. विश्वास नहीं होता. साजिश?
Bikash Agarwal –ट्रेन के आवाज या कंपन से एक भी मजदूर नहीं उठा. कैसे संभव है? जांच की जरूरत है.
@Deepakpatriotic – औरंगाबाद एक अल्पसंख्यक बहुल जिला है…
Love all ने कहा– महाराष्ट्र में औरंगजेब का प्रभाव बढ़ रहा है…
जब प्राइम टाइम न्यूज़ एंकर फ़िल्मी जिहाद, मीडिया जिहाद, कोरोना जिहाद के बारे में बात करते हैं और जब राज्य सरकारें लव जिहाद जैसे काल्पनिक अवधाराणाओं के ख़िलाफ़ क़ानून पास करते हैं तो हम आम नागरिकों से क्या उम्मीद कर सकते हैं? लेकिन फिर भी उस वक़्त कुछ लोगों का नज़रिया सही भी था.
Pratik Agarwal ने लिखा – ये पूछने के बजाय की वो रेल की पटरियों पर क्यों चल रहे थे, पूछिए कि वो चल ही क्यों रहे थे
आज भी रेल की पटरियों पर उनमज़दूरों के बिखरे पड़े रोटियों कीतस्वीरें उस त्रासदी की दास्तान बया करती हैं
@srq_official ने तब कहा था– ये रोटियां उठा कर पीएम तक पहुंचा दो. जिन थालियों में मजदूर ये रोटियां खाते थे, उन थालियों को उन्होंने आपके लिए बजाया भी था.
एक और शख्स ने कहा था – हम सभी के हाथ खून से सने हैं.. ये तस्वीर और ये त्रासदी हमें हमेशा परेशान करेगी.
ये जो इंडिया है ना… इसने एक भयानक हादसे में अपने 16 नागरिकों तो खो दिया. उसके बाद उनके मृत्यु प्रमाणपत्र से उन्हें वंचित रखना बेहद ही शर्मनाक है.
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