वीडियो एडिटर: मोहम्मद इब्राहिम
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी GDP को भगवान मानती है. जब भी उन्हें कोई इसके लिए चैलेंज करता है तो वो आंकड़ों के जरिए जवाब देते हैं.
जैसा कि उनका स्वभाव है, पीएम मोदी ने उम्मीद जगाने वाली सभी बातें तो चुन-चुनकर पेश कीं, लेकिन अर्थव्यवस्था की कमजोरियो को उजागर करने वाले तमाम तथ्यों को अनकहा ही छोड़ दिया, जैसे...
- बैड लोन (चुकाए नहीं जा रहे कर्ज) 10.3 लाख करोड़ रुपये यानी 11.6 फीसदी तक जा पहुंचे हैं. मार्च 2019 तक इनका अनुपात और बढ़कर 12.2 फीसदी पर पहुंचने की आशंका है. बैंकरप्सी यानी दिवाला निकलने वाली कंपनियों के जो 701 मामले निपटारे के लिए लाए गए हैं, उनमें अब तक सिर्फ 176 का ही निपटारा हुआ है.
- बड़ी कंपनियों को दिए जाने वाले कर्जों में साल-दर-साल के आधार पर महज 1 फीसदी का इजाफा हुआ है. ये इस बात का संकेत है कि GDP में 7.4 फीसदी की विकास दर के बावजूद औद्योगिक विकास में मंदी का रुझान बना हुआ है.
- ब्याज दरें आसमान को छू रही हैं. 10 साल के ट्रेजरी बिल्स की ब्याज दर 8 फीसदी पर है और AAA-रेटिंग रखने वालों को 8.5 फीसदी या उससे भी ऊंची दरों पर लोन लेना पड़ रहा है. इन ऊंची ब्याज दरों में प्राइवेट इनवेस्टमेंट के रफ्तार पकड़ने का कोई शुभ संकेत नहीं छिपा है. जबकि आर्थिक विकास की निरंतरता को बनाए रखने के लिए ऐसा होना बेहद जरूरी है.
- करेंट अकाउंट डेफिसिट (CAD) जो सरप्लस की हालत में पहुंच गया था, एक बार फिर से 2.5 फीसदी के घाटे में है. डॉलर के मुकाबले रुपये में एतिहासिक गिरावट देखी जा रही है. एक डॉलर का मूल्य 69 रुपये के बांध को भी तोड़ चुका है. विदेशी निवेशक सिर्फ मौजूदा कैलेंडर वर्ष के दौरान ही डेट/इक्विटी मार्केट से रिकॉर्ड 7 अरब डॉलर की निकासी कर चुके हैं.
- सरकार "फैंटम डिसइनवेस्टमेंट" यानी विनिवेश के नाम पर छलावा कर रही है. उसने ONGC को मजबूर किया कि वो HPCL को 35 हजार करोड़ रुपये में खरीद ले, जबकि दोनों ही कंपनियां सरकारी हैं. यानी HPCL के विनिवेश से सरकार को कोई वास्तविक आमदनी हुई ही नहीं.
- बिलकुल ऐसी ही दिखावटी योजना, IDBI बैंक को री-कैपिटलाइज करके उसकी खस्ताहाल बैलेंस शीट में नई जान फूंकने के लिए भी रची जा रही है, इस योजना में सारा बोझ LIC पर डाला जाना है. एक भी खरीदार नहीं मिलने की वजह से एयर इंडिया को बेचने की कोशिशें तो शर्मनाक रूप से फेल हो ही चुकी हैं.
फोकस ‘बेहतर’ के बजाय ‘ज्यादा’ पर
अब तक आप ये समझ गए होंगे कि GDP किसी देश की आर्थिक सेहत का सही और सटीक पैमाना नहीं है. ये एक ऐसा पैमाना है, जिसमें हमेशा "बेहतर" की बजाय "ज्यादा" पर जोर रहता है.
अगर अस्पतालों में ज्यादा मरीजों जाने लगें तो GDP में इजाफा हो जाता है, लेकिन अगर सभी स्वस्थ रहें और कभी डॉक्टर के पास जाने की नौबत ही न आए, तो GDP में गिरावट आने लगती है. अगर एक कार जरूरत से ज्यादा पेट्रोल/डीजल खर्च करके प्रदूषण बढ़ाती है तो GDP में वृद्धि होती है, लेकिन अगर उसका इंजन कम तेल में बेहतर माइलेज देता है, तो GDP में कमी आने लगती है. ये पैमाना ऐसा ही उल्टा-पुल्टा है!
अब आपको इस बारे में सबसे चौंकाने वाले आंकड़े बताता हूं. क्या आप अंदाजा लगा सकते हैं कि वो कौन से पांच साल रहे होंगे, जब अमेरिका के GDP ने 75 फीसदी, ब्रिटेन के GDP ने 27 फीसदी और जर्मनी के GDP ने 21 फीसदी से ज्यादा की छलांग लगाई थी?
ये वक्त था 1938 से 1943 का, जब दूसरे विश्व युद्ध के दौरान तबाही के क्रूरतम दौर ने धरती को अपनी चपेट में लिया हुआ था. दसियों लाख लोग मारे गए थे, बमबारी ने शहरों को मलबों के ढेर में बदल दिया था. लेकिन अगर GDP ही सब कुछ है, तब तो इन हालात में जश्न मनाना चाहिए, क्योंकि युद्ध में शामिल देशों के GDP तेजी से बढ़ रहे थे.
चलते-चलते: मुझे गलत न समझें. मैं GDP ग्रोथ का विरोधी बिलकुल भी नहीं हूं. मैं तो मानता हूं कि GDP ग्रोथ का ज्यादातर हिस्सा आमतौर पर लोगों के जीवन स्तर में वास्तविक सुधार आने का ही संकेत होता है. दरअसल मैं GDP में तेजी से सुधार लाए जाने का बड़ा समर्थक हूं. लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है कि प्रधानमंत्री मोदी 2019 में सत्ता में वापसी करने के लिए समृद्धि का जो हसीन सपना दिखा रहे हैं, वो असल में "ग्रॉस इकनॉमिक जुमला" साबित हो सकता है.
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