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‘डिजिटल डंके’ वाली सरकार के पास मॉब लिंचिंग के आंकड़े कब आएंगे?

बिना इंफाॅर्मेशन, बिना आंकड़ों के किसकी जांच की जाएगी? किसके लिए कानून बनाया जाएगा?

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वीडियो एडिटर: अभिषेक शर्मा
कैमरा: अभय शर्मा
कैमरा असिस्टेंट: अमनदीप सिंह

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अखलाक, जाहिद, इनायतुल्लाह, रिजवान, पहलू खान, नीलोत्पल दास, अभिजीत नाथ, रकबर खान.......

बीते कुछ वक्त में लगता है, जैसे देश के हर हिस्से से लिंचिंग की घटनाएं सामने आ रही हैं.

17 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कानून बनाने को लेकर कड़ा निर्देश दिया था. आनन-फानन में एक हाई लेवल कमेटी बना दी गई. कमेटी पर जिम्मेदारी बड़ी है. कानून बनाना है, तो डेटा भी चाहिए होगा. आंकड़े चाहिए होंगे. लेकिन बिना इंफाॅर्मेशन, बिना डेटा किसकी जांच की जाएगी. किसके लिए कानून बनाया जाएगा?

सरकार के हाथ खाली हैं. घटनाएं रोक पाने में भी नाकाम और आंकड़े पेश करने में भी नाकाम.

वैसे, सरकार को डेटा से इतनी दिक्कत क्या है?

कुछ दिक्कत राजनाथ सिंह के इस बयान में छिपी है:

वर्षों से इस प्रकार की लिंचिंग की घटनाएं इस देश में चल रही हैं. सबसे बड़ी लिंचिंग की घटना इस देश में जो घटित हुई है, वो 1984 में हुई है.  
राजनाथ सिंह, 24 जुलाई 2018 को संसद में दिया बयान

सरकार मानने को तैयार ही नहीं दिखती कि अचानक लिंचिंग की घटनाएं बेतहाशा बढ़ रही हैं. दूसरा, 'तब कहां थे' जैसे कुतर्क का सहारा लिया जा रहा है.
मेहनत से आंकड़े जुटाने और उनके जरिए पॉलिसी बनाने की नीयत और इच्छाशक्ति, दोनों नदारद दिखते हैं.

इससे पहले गृह राज्यमंत्री हंसराज अहीर सरकार की 'गंभीरता' दिखा चुके हैं. 18 जुलाई, 2018 को राज्यसभा में सरकार से माॅब लिंचिंग पर सवाल पूछा गया, तो जवाब हैरान करने वाला आया. उन्होंने कहा, “राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के पास माॅब लिंचिंग से जुड़ा कोई आंकड़ा नहीं हैं."

असम से अलवर तक लिंचिंग का खतरनाक खेल खेला जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट सख्त है. कह चुकी है, “लोकतंत्र की जगह भीड़तंत्र नहीं ले सकता, माॅब लिंचिंग की घटनाओं को रोकने के लिए सरकार अलग से कानून बनाए. "
याद है, सरकार ने कुछ वक्त पहले एक डिजिटल लॉकर लॉन्च किया था, जहां आप अपना सारा जरूरी डेटा सुरक्षित रख सकें. सरकार, दुनिया के सबसे बड़े डेटा प्रोजेक्ट में से एक आधार के पीछे जी-जान से खड़ी है. लेकिन लिंचिंग के डेटा की बात आते ही पता नहीं ये सारी डिजिटल तैयारी न जाने कहां गायब हो जाती है. लिंचिंग के डेटा से ऐसा सख्त परहेज समझ से परे है.

खैर, सरकार के पास डेटा तो है नहीं, लेकिन हमारे पास 'अनआॅथराइज्ड डेटा' है. आपको बता देते हैं.

  • इंडियास्पेंड: जनवरी 2017 से जुलाई 2018 तक बच्चा चोरी की अफवाह को लेकर 69 मॅाब अटैक ने 33 लोगों की जान ली. इससे पहले 2012 में एक व्यक्ति की जान भीड़ ने ली थी.
  • इंडियन एक्सप्रेस: 1 साल के अंदर 9 राज्यों में भीड़ ने ली 27 लोगों की जान.
  • द क्विंट: साल 2015 से अब तक भीड़ की हिंसा ने ली 68 जानें.
बिना इंफाॅर्मेशन, बिना आंकड़ों के किसकी जांच की जाएगी? किसके लिए कानून बनाया जाएगा?
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अब तो सरकार के हाथ में खुद के बचाव में एक और हथियार नजर आने लगा है.

वॉट्सऐप से अफवाहें रोकने के लिए सख्त गाइडलाइन बनाने की बात की जा रही है. ये सब अच्छी पहल है. लेकिन अफसोस, लिचिंग सिर्फ वॉट्सऐप अफवाहों की वजह से ही तो नहीं हो रही. क्या सरकार के पास एक भी डेटा है, जो बताता हो कि देश में बीते चार साल में गोरक्षा के नाम पर कितनी हत्याएं की गईं?

इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक, सिर्फ साल 2017 में गोरक्षा के नाम पर 11 हत्याएं हो चुकी हैं.

ये आंकड़े चाहे हमें और आपको समझ में भी आ जाएं, लेकिन केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल के लिए तो ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के सबूत हैं. वे कह चुके हैं कि पीएम मोदी जितने ज्यादा लोकप्रिय होंगे, मॉब लिंचिंग की घटनाएं और ज्यादा सामने आएंगी.

सरकार खेती-किसानी से जुड़े आंकड़े जुटाकर किसानों के लिए योजनाएं बनाती है, वाहनों और जनसंख्या के आधार पर ट्रांसपोर्ट पॉलिसी बनती हैं. डेटा तो किसी भी पॉलिसी के केंद्र में है, तो फिर मॉब लिंचिंग के डेटा से आंखें मूंदना कहां की समझदारी है?

या आप कहीं ये तो नहीं चाहते कि आप आंखें बंद किए रहें और देश ये मान ले कि ऐसी घटनाएं तो होती ही नहीं, हुई ही नहीं?

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