वीडियो एडिटर : विवेक गुप्ता
कैमरा: शिव कुमार मौर्या
अगर मैं पूछूं कि क्या आप हर तजुर्बा हाथ जलाकर ही करते हैं? तो आपका जवाब होगा- ना. अगर मैं पूछूं कि क्या आप आग लगने के बाद कुआं खोदना शुरु करते हैं? तो आपका जवाब होगा- ना.
लेकिन आपकी जगह अगर कांग्रेस पार्टी हो तो उसका जवाब होगा- हां.
पहले क्यों ना जागी कांग्रेस?
अब कर्नाटक इलेक्शन को ही लीजिए. खंडित जनादेश के बाद कांग्रेस ने आनन-फानन में जेडीएस को समर्थन दिया. ना सिर्फ समर्थन दिया बल्कि कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री का पद भी ऑफर कर दिया. अब जरा बताइये कि:
ये किसे नजर नहीं आ रहा था कि चुनाव से पहले हुआ कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन बीजेपी को हराने की चाबी है. वैसा ही जैसा 2015 में नीतीश और लालू जैसे विरोधियों ने बिहार में किया था. यूपी के फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों में अखिलेश यादव और मायावती के साथ ने तो साबित किया कि विपक्षी स्वार्थ छोड़कर एक हो जाएं तो बीजेपी को उसके गढ़ में भी शिकस्त दी जा सकती है.
लेकिन चुनाव से पहले कांग्रेस का वही पुराना अहम आड़े आ रहा था जिसने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में कांग्रेस पार्टी का सफाया कर दिया. इन दोनों राज्यों में लोकसभा की 120 सीटें हैं.
चुनाव पूर्व गठबंधन में जेडीएस के साथ सीटों का बंटवारा करना पड़ता. मंत्री पदों को लेकर भी कोई फॉर्मूला बनाना पड़ता पर मुख्यमंत्री का पद जाहिर तौर पर ना छोड़ना पड़ता. लेकिन कांग्रेस है, जात भी गंवाएगी और भात भी ना खाएगी.
कर्नाटक से सबक
अगर कांग्रेस पार्टी ने ये रवैया ना छोड़ा तो उसे हर उस राज्य के विधानसभा चुनाव में मात खानी पड़ेगी जहां क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा है.
महाराष्ट्र में अगर मान भी लिया जाए कि शरद पवार की एनसीपी के साथ कांग्रेस का गठबंधन हो ही जाएगा. लेकिन क्या आंध्र प्रदेश में कांग्रेस चंद्रबाबू नायडू को चुनाव से पहले ही ये भरोसा दिला पाएगी कि टीडीपी सूबे की बड़ी पार्टी हैं, लीड कीजिए हम पीछे चलेंगे.
इसी तरह राज्यवार चुनावों में बीजेपी के खिलाफ सीधी लड़ाई के लिए कांग्रेस तेलंगाना में के चंद्रशेखर राव की टीआरएस, तमिलनाडु में करुणानिधि की डीएमके और उड़ीसा में नवीन पटनायक की बीजेडी की अगुवाई में चुनाव लड़ना स्वीकार कर पाएगी.
हो सकता है कि कि उसके बाद ये तमाम दल केंद्र में राहुल गांधी की लीडरशिप स्वीकार कर लें.
हालांकि कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री पद की पेशकश करके कांग्रेस ने शान जाए पर अकड़ ना जाए की अपनी पुरानी छवि को तोड़ने की कोशिश की है लेकिन उसे ये बार-बार करना होगा ताकि संभावित सहयोगियों में यकीन बन सके और बढ़े सके.
मसलन ममता बनर्जी चाहती हैं कि 2019 आमचुनाव के लिए बीजेपी के खिलाफ संभावित महागठबंधन में सभी की हैसियत बराबर हो. लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव में कांग्रेस ममता की टीएमसी के साथ लड़े या लेफ्ट के साथ मिलकर ममता विरोधी वोट को बांटे- ये तमाम रणनीतियां आपसी तालमेल से बनानी होंगी और वो भी वक्त से.
बेहतर होगा कि कांग्रेस कर्नाटक की उठा-पटक से सबक ले. हमेशा आग लगने के बाद ही कुआं खोदना कोई समझदारी नहीं है खासकर उस पार्टी के लिए जो हर मंच पर अपने एक सौ तीस साल पुराने इतिहास का दंभ भरती है और देश की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करती है.
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