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गीतांजलि श्री EXCLUSIVE: 'रेत समाधि' में दरवाजे भी क्यों बोलते हैं?

गीतांजलि श्री से भाषा, साहित्य, जीवन और बहुत सी चीजों को लेकर खास बातचीत

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अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार विजेता(International Booker Prize Winner) लेखिका गीतांजलि श्री(Geetanjali Shree) अपने उपन्यास पर बोलते हुए कहती हैं "इंसान इस कायनात में अकेला नहीं रहता बल्कि पूरी कायनात जुड़ी हुई है. सजीव-निर्जीव चीजें और सभी जीव-जंतुओं की हमारी जीवन में भूमिका है और इसी से जीवन बनता है."

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दिल्ली की लेखिका गीतांजलि श्री को 2022 में अपने उपन्यास 'रेत समाधि' के अनुवाद Tomb of Sand के लिए अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला. उनका उपन्यास एक जटिल परिस्थिति को बेहद शानदार तरीके से समेटता हुआ नजर आता है. पाठक को उपन्यास पढ़ते हुए उल्लास महसूस होता है.

सीमा चिश्ती ने क्विंट के लिए गीतांजलि श्री से भाषा, साहित्य, जीवन और बहुत सी चीजों को लेकर खास बातचीत की

आपके उपन्यास के पात्र जीव-जन्तु और निर्जीव चीजें भी हैं. ये सब चीजें कैसे उपन्यास का हिस्सा बनीं?

इंसान इस कायनात में अकेला नहीं रहता बल्कि पूरी कायनात जुड़ी हुई है. सजीव-निर्जीव चीजें और सभी जीव-जंतुओं की हमारी जीवन में भूमिका है, और इसी से जीवन बनता है. ऐसा नहीं है इस कायनात में सबसे अहम सिर्फ इंसान है. बल्कि सबकी अपनी जगह है. जब मैं लिख रही थी तो पात्र खुद-ब-खुद आते चले गए और उपन्यास का हिस्सा बन गए.

हिंदी भाषी लोगों की सीमित सोच के बावजूद आपका उपन्यास एक वृहत संस्कृति की बात करता है. अपने उपन्यास में ये जगत आपने कैसे बनाया?

मैं नहीं मानती हिंदी जगत संकीर्ण है. बस एक बहस जारी है, कुछ का नजरिया खुला है कुछ का कमज़ोर है. कईं सरहदें टूट भी गईं हैं. हम उन्ही की बात क्यों करना चाहते हैं जो सरहदें बनाना चाहते हैं. इस दुनिया में दुसरे लोग भी है. भाषा जगह-जगह से आई है. हिंदी बहुत संपन्न भाषा है क्योंकि ये कई बोलियों से मिलकर बनी है. इससे ये अभिव्यक्ति के लिए और बेहतर हो गई.

कैसे आप इतिहास की एक टीचर से उपन्यासकार बन गईं?

ये सब अचानक नहीं हुआ, अचानक कुछ नहीं होता है. मेरे अन्दर का लेखक धीरे-धीरे करवट बदल रहा था. फिर एक दिन आया जब मेरे अन्दर का लेखक बाहर निकला. मुझे लेखक होने के अहसास ने परेशान और प्रेरित किया लिखने के लिए. मेरे लिए लिखना एक कोशिश है. मैं प्रेरणा देने वाले पलों को लेकर अपनी और औरों की बात कहने की कोशिश करती हूं.

क्या साहित्यकार की अपनी विचारधारा होनी चाहिए? इस मामले में अपने आपको कहां पाती हैं

मैं किसी भी तरह के कट्टर बंधन में न अपने आपको देखना चाहती हूं ना ही किसी और को. मेरे अनुसार सरहद एक बहुत सार्थक चीज होनी चाहिए. जो आपको आगे बढ़ने में मदद करे.

अगर आदमी-औरत के झगड़े की बात होगी. तो मुझे पता है कि आज भी हमारा समाज पितृसत्तात्मक है इसलिए मैं उस समय औरतों की तरफ ही रहूंगी. हम हमेशा एक से नहीं रहते, अलग-अलग तरह की संवेदना अलग-अलग पल में मुखर होती है.

अगर मुझसे पूछा जाए कि मैं किस तरफ हूं तो मैं कहूंगी- मैं इंसानियत की तरफ हूं. मैं समता की तरफ हूं. मैं आपसी सम्मान की तरफ हूं. मैं लोगों के सम्मान के साथ जीने के हक की तरफ हूं.

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