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Premchand ने राष्ट्रीयता को कहा 'कोढ़', हिंदू-मुस्लिम विवाद पर क्या थे विचार?

Munshi Premchand ने सांप्रदायिकता और राष्ट्रीयता पर जो लिखा है, उसे सबको जानना चाहिए

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प्रेमचंद…अपने वक्त के एक ऐसे मशहूर और मकबूल साहित्यकार, जिनको हिंदुस्तान की आत्मा का लेखक कहा गया. इसकी वजह रही है उनकी कहानियों में हिंदुस्तान के हर वर्ग के लोगों का दर्ज होना. प्रेमचंद (Premchand) ने किसानों से लेकर भारत की रंग-बिरंगी संस्कृतियों तक को अपनी कहानियों का अहम हिस्सा बनाया. इसके अलावा प्रेमचंद ने अपने लेखों में उस नस्लवादी नफरत पर भी चोट की है, जो फासीवाद की जड़ है. प्रेमचंद की कलम से निकले अल्फाज को आज के दौर के लोगों को पढ़ने और सुनने की जरूरत है.

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साल 1933 के नवंबर महीने में पब्लिश हुए अपने आर्टिकल में प्रेमचंद लिखते हैं...राष्ट्रीयता वर्तमान युग का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी. नतीजा दोनों का एक है. सांप्रदायिकता अपने घेरे के अंदर पूर्ण शांति और सुख का राज्य स्थापित कर देना चाहती थी, मगर उस घेरे के बाहर जो संसार था, उसको नोचने-खसोटने में उसे जरा भी मानसिक क्लेश न होता था.
राष्ट्रीयता भी अपने परिमित क्षेत्र के अंदर रामराज्य का आयोजन करती है. उस क्षेत्र के बाहर का संसार उसका शत्रु है. सारा संसार ऐसे ही राष्ट्रों या गिरोहों में बंटा हुआ है, और सभी एक-दूसरे को हिंसात्मक संदेह की नजर से देखते हैं और जब तक इसका अंत न होगा, संसार में शांति का होना नामुमकिन है. जागरूक आत्माएं संसार में अंतर्राष्ट्रीयता का प्रचार करना चाहती हैं और कर रही हैं, लेकिन राष्ट्रीयता के बंधन में जकड़ा हुआ संसार उन्हें ड्रीमर या शेखचिल्ली समझकर उनकी उपेक्षा करता है.
प्रेमचंद, साहित्याकार
साल 1933 के दौरान जर्मनी में हिटलर की राजनीतिक फतह के बाद प्रेमचंद ने ‘जर्मनी का भविष्य’ टाइटल से एक आर्टिकल लिखा. जिसमें उन्होंने जनता के लोकतांत्रिक अधिकारों पर डाका डालने वाले फासीवाद से आगाह किया है.
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इसमें प्रेमचंद लिखते हैं कि “जर्मनी में नाजी दल की अद्भुत विजय के बाद यह प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में जर्मनी फासिस्ट हो जाएगा और वहां नाजी-शासन कम से कम पांच वर्ष तक बना रहेगा? यदि एक बार नाजी शासन को जमकर काम करने का मौका मिला, तो वह जर्मनी के प्रजातंत्रीय जीवन को, उसकी प्रजातंत्रीय कामना को, अपनी सेना और शक्ति के बल पर इस तरह चूस लेगा कि 25 वर्ष तक जर्मनी में नाजी दल का कोई विरोधी नहीं रह जाएगा. हिटलर की जीत कोई आम चुनावी जीत नहीं है. ये जीत विपक्ष और मीडिया, दोनों को कुचलकर हासिल की गई है."

प्रेमचंद ने आगे लिखा कि...

जर्मनी में नाजी दल की नाजायज सेना का तीव्र दमन और सभी विरोधी ताकतों को चुनाव से पहले कुचल डालना ही नाजी के जीत की वजह है. यह कहां का न्याय था कि वर्गवादियों को जेल भेजकर, विरोधियों को पिटवाकर, मुसोलिनी की तरह विरोधी पत्रों को बंद कराकर चुनाव कराया जाए और उसकी विजय को राष्ट्र मत की विजय बताया जाय.
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प्रेमचंद ने मुसलसल अपने लेखों और रचनाओं के जरिए सामाजिक सद्भाव बढ़ाने की कोशिश की, जिससे सामाजिक एकता को बढ़ावा मिलता है. उन्हें नफरत से सख्त नफरत थी.

उन्होंने तत्कालीन जर्मनी के हालातों पर बात करते हुए लिखा...

जर्मनी में नाजी दल ने आते ही यहूदियों पर हमला बोल दिया है. मारपीट, खून-खच्चर भी होना शुरू हो गया है. वह अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकते. यहूदी कई पीढ़ियों से वहां रहते आए हैं. जर्मनी की जो कुछ उन्नति है, उसमें उन्होंने कुछ कम भाग नहीं लिया है, लेकिन अब जर्मनी में उनके लिए स्थान नहीं है.

प्रेमचंद ने अपने इसी आर्टिकल में जर्मनी के हालातों की तुलना तत्कालीन भारत से की. उन्होंने लिखा कि इधर कुछ दिनों से हिंदू-मुसलमान के एक दल में वैमनस्य हो गया है, उसके लिए वही लोग जिम्मेदार हैं, जिन्होंने पश्चिम से प्रकाश पाया है और अपरोक्ष रूप से यहां भी वही पश्चिमी सभ्यता अपना करिश्मा दिखा रही है.

साल 1934 के जनवरी महीने में पब्लिश हुए अपने आर्टिकल 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' में प्रेमचंद लिखते हैं...

साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है. उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भांति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खाल ओढ़कर आती है.
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हिंदू-मुस्लिमों की संस्कृति पर प्रेमचंद के विचार

प्रेमचंद ने इन दोनों समुदायों पर बात करते हुए लिखा है कि हिन्दू अपनी संस्कृति को कयामत तक सुरक्षित रखना चाहता है, मुसलमान अपनी संस्कृति को. दोनों ही अभी तक अपनी-अपनी संस्कृति को अछूती समझ रहे हैं. यह भूल गये हैं कि अब न कहीं हिन्दू संस्कृति है, न मुस्लिम संस्कृति, और न कोई अन्य संस्कृति. अब संसार में केवल एक संस्कृति है, और वह है आर्थिक संस्कृति, मगर आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोये चले जाते हैं. हालांकि संस्कृति का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं."

प्रेमचंद ने आगे लिखा है कि “संसार में हिन्दू ही एक जाति है, जो गो-मांस को अखाद्य या अपवित्र समझती है. तो क्या इसलिए हिन्दुओं को समस्त विश्व से धर्म-संग्राम छेड़ देना चाहिए?”

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