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लोकसभा चुनाव 2024 से पहले नेतृत्व संकट से क्यों जूझ रही कर्नाटक BJP?

Karnataka BJP को 2024 में अपनी छाप छोड़ने के लिए पूरी तरह से पीएम नरेंद्र मोदी की अपील पर निर्भर रहना पड़ सकता है

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कर्नाटक में, भारतीय जनता पार्टी (Karnataka BJP) एक अनोखी दुविधा में फंसी दिख रही है - राज्य में पार्टी को कोई नेता नजर नहीं आ रहा है. 2023 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से हारने वाली भगवा पार्टी ने अभी तक राज्य में विपक्ष के नेता का चयन नहीं किया है. सवाल है आखिर क्यों?

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बीजेपी के करीबी सूत्रों की माने तो, मई 2023 में बीजेपी की 66 सीटों के मुकाबले कांग्रेस को मिली 135 सीटों के प्रचंड बहुमत के कारण कर्नाटक में पार्टी अव्यवस्थित है. एक बीजेपी नेता ने द क्विंट से कहा, ''कोई भी इस हार का चेहरा नहीं बनना चाहता.'' हालांकि उन्होंने कहा कि पार्टी की राज्य इकाई को राष्ट्रीय आलकमान से जल्द ही गतिरोध का समाधान निकालने के सख्त निर्देश मिले हैं.

क्यों बीजेपी के कुछ नेता हार की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहते?

राज्य में चुनाव होने से पहले, बीजेपी ने राज्य के दो नेताओं - बसवराज बोम्मई और बीएस येदियुरप्पा को आगे बढ़ाया.

एक तरफ तो 2021 में येदियुरप्पा से बागडोर संभालने वाले बोम्मई को सीएम उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया था, वहीं दूसरी तरफ भगवा पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के प्रभाव पर भरोसा किया था. इसके अलावा, बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व - विशेष रूप से राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बीएल संतोष - सीधे चुनाव प्रचार की निगरानी कर रहे थे. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद चुनाव के ठीक पहले राज्य में जोर-शोर से प्रचार किया था.

लेकिन मई 2023 में, कर्नाटक में पार्टी को हार का सामना करने के बाद, चुनावी कैंपेन में सक्रिय किसी भी नेता ने नैतिक जिम्मेदारी नहीं ली. हां बसवराज बोम्मई ने "लोगों की पसंद का सम्मान करते हुए" हार स्वीकार कर ली, लेकिन अब तक किसी भी नेता ने सार्वजनिक रूप से यह नहीं बताया है कि हार का कारण क्या है.

हालांकि लगभग सब यह अनुमान लगाते हैं कि पार्टी को व्यापक सत्ता विरोधी लहर के कारण हार का सामना करना पड़ा, जिसका फायदा कांग्रेस ने उठाया. लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि कांग्रेस के सत्ता में आने और सिद्धारमैया के मुख्यमंत्री बनने के बाद बीजेपी नेताओं के तीन वर्ग/सेक्शन चुप हो गए हैं.

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  • सबसे पहले, बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व वाले पुराने नेताओं का गुट है, जिन्हें कर्नाटक में बीजेपी को नए सिरे से खड़ा करने का श्रेय दिया गया है. उन्होंने हार के बाद बैक सीट ले ली है.

  • दूसरा, पूर्व सीएम बोम्मई और उनके पूर्व कैबिनेट सहयोगियों का गुट है, जिनमें से कई को हार का सामना करना पड़ा और वे कमोबेश चुप रहे हैं.

  • इसके अलावा केएस ईश्वरप्पा से (जिन्हें टिकट नहीं मिला था) लेकर यशपाल सुरवर्णा तक जैसे कट्टरपंथियों का गुट है, जिन्होंने अपनी बयानबाजी कम कर दी है.

बीजेपी के एक सूत्र ने कहा, "येदियुरप्पा को इस बात के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता कि वे हार की जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा था. ईश्वरप्पा और सुवर्णा जैसे लोग अभी भी इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले पार्टी की लाइन क्या होगी."

बीजेपी के राजनीतिक गलियारों में यह व्यापक रूप से माना जाता है कि बोम्मई को हार की नैतिक जिम्मेदारी लेनी चाहिए. लेकिन, ऐसा माना जाता है कि बोम्मई खेमा सोचता है कि वे केवल केंद्रीय आलाकमान की इच्छा के अनुसार काम कर रहे थे.

संक्षेप में कहें तो बीजेपी में कोई भी विपक्ष का नेता (एलओपी) नहीं बनना चाहता क्योंकि इस पद पर बैठने के बाद अपनी कीमत चुकानी पड़ती है. एक सवाल और, कर्नाटक में बीजेपी में नेतृत्व संकट लोकसभा चुनाव की तैयारी के बारे में क्या कहता है?
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क्या बीजेपी लोकसभा 2024 से पहले पूरी तरह से पुनर्विचार कर रही है?

कर्नाटक के राजनीतिक हलकों में यह चर्चा है कि बीजेपी लोकसभा चुनाव से पहले मजबूत होकर वापसी करेगी. लेकिन पार्टी अपने कमबैक की कल्पना कैसे करती है?

एक सूत्र ने कहा, वर्तमान में चुनाव के संबंध में बीजेपी को दिशा देने वाली विचार की दो धाराएं हैं. पहला, भगवा पार्टी सोचती है कि राज्य में उसके हिंदुत्ववादी कट्टरवाद का उल्टा असर हुआ है क्योंकि कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष एजेंडे के साथ आगे बढ़ी और चुनाव जीत गई. दूसरा, पार्टी सोचती है कि राज्य इकाई विधानसभा चुनाव से पहले एक मजबूत नेतृत्व पेश करने में सक्षम नहीं थी और उसे लोकसभा चुनाव से पहले इस अंतर को पाटना चाहिए.

फिलहाल पार्टी के लिए दोनों में से कोई भी काम आसान नहीं दिख रहा है. वजह है कि, बोम्मई के नेतृत्व में, बीजेपी ने चुनाव से काफी पहले स्कूलों-कॉलेजों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने और धर्मांतरण विरोधी विधेयक को लागू करने जैसे सख्त कदम उठाए थे. ऐसा माना जाता है कि इस नीतिगत निर्णय को केंद्रीय नेतृत्व ने मंजूरी दी थी.

अब उस इमेज से पीछे हटना और सोशल इंजीनियरिंग की ओर देखना, जिसमें बीएस येदियुरप्पा ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था, बीजेपी के लिए बड़ा काम होगा.

खासकर तब, जब येदियुरप्पा ने खुद ही अपने बेटे बीवाई विजयेंद्र को कमान सौंप दी है, जो उनकी सीट से जीते थे. येदियुरप्पा के बिना, पार्टी लिंगायतों सहित प्रमुख जातियों और दलितों सहित उत्पीड़ित जातियों को अपने पीछे लाने में सक्षम नहीं होगी.

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इसके अलावा, पार्टी को चुनाव से पहले जिम्मेदारी लेने के लिए राज्य का कोई नेता मिलना मुश्किल होगा क्योंकि पार्टी के दूसरे स्तर के नेता अभी तक खुद को स्थापित नहीं कर पाए हैं. उदाहरण के लिए, बीजेपी के अरविंद बेलाड, जिन्हें पार्टी के आगामी नेता के रूप में पेश किया गया था, अभी भी लिंगायत मतदाताओं को बढ़ावा देने के लिए जाति निष्ठा और पार्टी के प्रति वफादारी के बीच फंसे हुए हैं. इसमें जगदीश शेट्टार को दरकिनार करना भी शामिल है.

इसका मतलब यह होगा कि बीजेपी को चुनाव से पहले राज्य में फिर से येदियुरप्पा और बोम्मई पर बहुत अधिक निर्भर रहना होगा, भले ही इनमें से किसी भी नेता ने विधानसभा चुनावों में कोई खास छाप नहीं छोड़ी.

मतलब, कर्नाटक में बीजेपी को वोटरों को लुभाने के लिए पूरी तरह से पीएम नरेंद्र मोदी की अपील पर निर्भर रहना पड़ सकता है.

हालांकि, एक तरीका है जिससे कर्नाटक बीजेपी में संकट को कम से कम अस्थायी रूप से टाला जा सकता है- अगर पार्टी खुद को एक साथ आगे बढ़ाती है और सूबे में अपने सबसे मजबूत नेता को नेता प्रतिपक्ष की भूमिका सौंपी जाए, जो यह काम लेने को तैयार है.

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