जालौन, उत्तर प्रदेश में दाहिने हाथ और कमर के बीच फंसा एक झौवा, उसमें रखी घिसी हुई झाड़ू और लोहे का पंजर पिछले कई दशकों से यही शोभारानी की रोजी-रोटी का जरिया है. हालांकि इनके नाम में रानी जुड़ा है जबकि इनका काम हाथ से मैला उठाने का है.
छींटदार साड़ी पहने शोभारानी को अपनी उम्र ठीक से याद नहीं है पर वो दिखने में 50-55 वर्ष की लगती हैं. मैला उठाते हुए शोभारानी कहती हैं-
"आठ दस घरों में जाते हैं जिनके घरों में जाते हैं. उनके यहाँ शौचालय नहीं बने हैं. जबतक हाथ पैर चल रहे हैं तबतक यह काम करेंगे, जब हाथ पैर नहीं चलेंगे तब यह काम नहीं करेंगे. पर तब क्या खायेंगे नहीं पता. हमारी कई पीढ़ीयां ये काम करते-करते चली गईं. मुझे मैला उठाते हुए बुढ़ापा आ गया है."शोभारानी
शोभारानी के पति ज्यादा काम नहीं कर पाते, एक बेटा दिव्यांग है. बच्चों का पेट भरने के लिए इतने वर्षों से मैला उठाना इनकी मजबूरी है.
जिनके घर शोभारानी हाथ से मैला उठा रही थीं उस महिला ने बताया, "ये हमारे यहां बहुत साल से काम कर रही हैं. पहले इनकी सास करती थीं, बाद में ये करने लगीं. इनके बाद अगर इनकी बहु का मन करेगा तो वो करेंगी. हम इस काम के बदले इन्हें साल का आधा क्विंटल अनाज देते हैं. सालभर पहले तक ये रोज रोटी-सब्जी ले जाती थीं लेकिन इन्होंने कहा कि सूखा (अनाज) दो, तो अनाज दे देते हैं."
हाथ से मैला उठाने वाली शोभारानी जालौन जिले की अकेली महिला नहीं है. कई महिलाओं ने हमें दबी जुबान से बताया कि हम भी यह काम करते हैं लेकिन वीडियो शूट नहीं करा सकते क्योंकि गाँव के लोग हमारे ऊपर दवाब बनाते हैं. इन महिलाओं में से कमला एक थीं.
सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन काम करने वाली संस्था नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनेंस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एनएसकेएफडीसी) के आंकड़ों के अनुसार मार्च 2020 तक यूपी के 48 जिलों में 23070 लोग मैनुअल स्कैवेंजर्स ( हाथ से मैला ढोने वाले लोग) हैं.
इस संस्था के अनुसार देश के 18 राज्यों के 194 जिलों में 48,687 मैनुअल स्कैवेंजर्स हैं. इन आंकड़ों के अनुसार सबसे ज्यादा मैनुअल स्कैवेंजर्स उत्तर प्रदेश में हैं.
खुले में शौच से मुक्त हो चुके यूपी में क्या आज भी महिलाएं हाथ से मैला उठाने को मजबूर हैं? इसकी पड़ताल के लिए हम जालौन जिले के कदौरा ब्लॉक के संदी, भदरेखी, अकबरपुर इटौरा, चमारी, लोहरगाँव समेत पांच गांवों में गये. जहां हमने कुछ महिलाओं को हाथ से मैला उठाते, माहवारी के कपड़े उठाते और कूड़ा फेंकते देखा.
शोभारानी यूपी की राजधानी लखनऊ से करीब 250 किलोमीटर दूर जालौन जिले के कदौरा ब्लॉक के संदी गांव में रहती हैं. शोभारानी के अनुसार हाथ से मैला उठाने का काम पहले से कम जरुर हुआ है लेकिन पूरी तरह से अभी समाप्त नहीं हुआ. कई जगह मैला उठाने के मायने बदल गए हैं. कहीं ये महिलाएं गली में झाड़ू लगाने तो कहीं घर-घर कूड़ा उठाने जाती हैं. कई जगह ये सेनेटरी पैड या मासिक धर्म के कपड़े फेंकने जाती हैं.
मैला उठाने जाते हैं तो बदबू आती है. क्या करें मजबूरी में गुटखा खाना पड़ता है. पूरी जिंदगी यही करते हुए गुजर गयी. अभी हाथ से मैला उठाने के लिए तो दो चार घर में ही जाते हैं. लेकिन शौचालय साफ करने और माहवारी के कपड़े फेंकने कई घरों में जाते हैं. इस काम के बदले हमें साल में एक बार बस अनाज मिलता है.कमला रानी, 62 वर्ष (संदी गांव)
कमला पहनी हुई साड़ी की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, "जीवन में कभी हमने नये कपड़े नहीं खरीदे. जिनके घरों में काम करने जाते हैं वही कपड़े दे देते हैं. कभी बच्चा होने पर तो कभी शादी होने पर. शॉल और स्वेटर, जिनके घरों में काम करने जाते हैं वही लोग दे देते हैं."
शोभारानी और कमला रानी जिस गांव की है वहां के ग्राम प्रधान के पति और प्रतिनिधि मानते हैं कि गांव खुले से शौच मुक्त नहीं हुआ. जो शौचालय बने हैं उनका उपयोग नहीं होता है.
हालाकिं वो ये नहीं कहते हैं उनकी जानकारी में कई महिलाएं हाथ से मैला उठाती हैं लेकिन इतना जरूर मानते हैं कि बाल्मिकी समुदाय के परिवारों की स्थिति बड़ी दयनीय है. उन्हें जरुरी सुविधाएं नहीं मिली हैं.
स्थिति"गांव में करीब 500 परिवार हैं जिन्हें अभी तक शौचालय नहीं मिला है. गांव में सामुदायिक शौचालय बना दिए गये हैं जिनका उपयोग नहीं होता. वाल्मीकि समुदाय के 50 परिवार है. इनकी स्थिति दयनीय है इनके पास खेती नहीं है. इनको जरूरी सुविधाएं नहीं मिली हैं."संजय पटेल, ग्राम प्रधान पति
ये समुदाय भूमिहीन होता है, इनके पास जीवकोपार्जन का कोई साधन नहीं है. पीढ़ियों से मैला उठाने का काम ये लोग करते आ रहे हैं. इन महिलाओं की खुरदरी हथेलियां और कमर पर ढलिया-तलसे का निशान इसकी गवाही देता है. शादियों और त्योहारों में गांव की गलियों में इनका झाड़ू लगाना और कूड़ा फेकना फिक्स रहता है. इन सबके बदले इन्हें साल में कुछ किलो राशन, दिन में कुछ रोटियां, साल में कुछ पुराने कपड़े और त्योहारों पर कुछ पकवान मिल जाता है.
संदी गांव से करीब 10 किलोमीटर दूर अकबरपुर इटौरा की रहने वाली 46 वर्षीय माया देवी अपने कमर में पड़े निशान को दिखाते हुए कहती हैं, "पहले यह निशान नहीं था. डलिया दाबे-दाबे कमर में यह गड्ढा हो गया है. अभी मैला उठाने तो नहीं जाते लेकिन रोजाना दुकानों के सामने झाड़ू लगाते हैं, दूसरों के घरों का कूड़ा फेकते हैं. दो घरों में गोबर फेकने भी जाते हैं. माहवारी के कपड़े फेकने और कूड़ा डालने के महीने में 100-50 रुपए मिल जाते हैं."
शोभारानी, माया, कमला देवी समेत इन गांवों की दर्जनों महिलाओं की जिंदगी ऊंची जाति वालों के घर का मैला, कूड़ा, माहवारी के कपड़े, सैनेटरी पैड, गोबर उठाने में जा रही है. शायद इन्होंने इसे ही अपना नसीब मान लिया है.
सदियों से समाज के निचले पायदान पर खड़े मैला उठाने वाले वाल्मीकि समुदाय के लोग मुख्यधारा में शामिल होने के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं. इन्हें न सिर्फ आजीविका के लिए रोज लड़ाई लड़नी होती है बल्कि अपने ही रिश्तेदारों और परिचितों से मुंह छिपाना पड़ता है कि कहीं कोई उन्हें मैला उठाते देख न ले. उन्हें अपने बच्चों को भी जवाब देना है, जो उनके इस काम के चलते समाज में पीछे धकेल दिए जाते हैं. इन्हें ज्यादा भरोसा तो नहीं लेकिन उम्मीद जरुर है कि कोई सरकार कोई नेता, कोई अधिकारी आकर उन्हें इस दलदल से निकालकर बाहर खड़ा कर देगा.
अकबरपुर इटौरा के ग्राम प्रधान रामशंकर दोहरे बताते हैं, "वाल्मीकि समुदाय की स्थिति बहुत दयनीय है. मैं भी छोटी जाति से आता हूँ इसलिए उनकी स्तिथि बखूबी समझता हूँ. अब मेरे गांव में मैला उठाने का काम तो नहीं होता लेकिन त्योहारों में बड़ी जाति के लोग साफ़-सफाई करने के लिए इन्हें ले जाते हैं."
सरकार की तरफ से हाथ से मैला उठान वाले लोगों के पुनर्वास के लिए 40 हजार रुपए दिए गए थे. जिनमें से जालौन जिले में करीब 629 महिलाओं को यह राशि मिल चुकी है, कई लोग इस राशि से अभी भी वंचित हैं. जिन्हें पुनर्वास राशि मिली है वे भी मूलभूत सुविधाएं के लिए जूझ रहे हैं. वाल्मीकि समुदाय के लोगों के लिए ये रकम नाकाफी साबित हुई क्योंकि उन्हें किसी दूसरी योजना का लाभ नहीं मिल सका ताकि वो दूसरा काम शुरू कर सकते.
संजय वाल्मीकि इसी समुदाय से हैं इनकी माँ और पत्नी ने सालों हाथ से मैला उठाने का काम किया है. संजय कहते हैं, "जिन महिलाओं को पुनर्वास के 40,000 रूपये मिले हैं उनकी स्थिति भी बहुत खराब है. मेरी माँ और पत्नी ने भी ये काम किया है उन्हें भी 40 हजार रूपये मिले हैं लेकिन इसके अलावा सरकार की किसी दूसरी योजना का लाभ नहीं मिला जबकि उन्हें रोजगार से जोड़ना था, पेंशन देनी थीं कुछ नहीं हुआ. अभी मेरी पत्नी गाँव के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में काम करने लगी हैं."
संजय की मां जिनका नाम बड़ी बहु है अब ये पुनर्वास के बाद हाथ से मैला उठाने का काम छोड़ चुकी हैं. बड़ी बहु छप्पर के नीचे बंधी बकरियों की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं, "पुनर्वास का जो 40 हजार रूपये मिला है उसी से ये बकरियां खरीदी हैं. हमने 30-40 साल मैला उठाने का काम किया है लेकिन जबसे यह पैसा मिल गया है तबसे यह काम बंद कर दिया है."
जालौन जिले के मुख्य विकास अधिकारी डॉ ए.के. श्रीवास्तव फोन पर बताते हैं, "जालौन जिले में हाथ से मैला उठाने की प्रथा कई साल पहले बंद हो चुकी है जो उठाते भी थे उन्हें पुनर्वासित कर दिया गया है."
हाथ से मैला उठाने वाले परिवारों के लिए जालौन जिले में एक गैर सरकारी संगठन बुन्देलखंड दलित अधिकार मंच बीते इनके अधिकारों के लिए काम कर रहा है. इस संस्था के संयोजक कुलदीप बौद्ध कहते हैं, "मैं इस मुद्दे पर तीन साल से काम कर रहा हूं. तीन साल पहले हमने यहां के महेबा और कदौरा ब्लॉक में एक स्टडी की थी, जिसमें 276 परिवार मिले थे, लेकिन प्रसाशन ने मानने से इंकार कर दिया था. कुछ समय बाद भारत सरकार की टीम ने यहां आकर सर्वे किया. लॉकडाउन से पहले सरकार ने 629 लोगों को 40 हजार के पुनर्वास की राशि दी और यह स्वीकारा भी कि इस जिले में लोग ये काम करते हैं."
कुलदीप के अनुसार अभी भी करीब 1338 आवेदन जिले के कार्यलय में पड़े होंगे. आज भी बड़े पैमाने में यहाँ हाथ से मैला ढोने वाले लोग हैं लेकिन अब मायने बदल गये हैं. तीन साल तक इन महिलाओं को खुद को यह साबित करने में लगे कि ये हाथ से मैला उठाने का काम कर रही हैं. इसके जिले इन्होंने जालौन से लेकर लखनऊ तक धरने दिए. जिन महिलाओं को 40 हजार रूपये दिए गये ये राशि उन्होंने पहली बार देखी थी. ये साहूकारों से कर्जदार थे. जैसे ही इनके हाथों में पैसा गया लोग मांगने के लिए खड़े हो गये. कुछ सफल उदाहरण भी हैं किसी ने बकरी और सूअर पालन भी किया है.
वाल्मीकि समुदाय के बच्चों को अपनी दशा पर तकलीफ होती है. उन्हें दर्द है, ऐसे समाज में जन्म लेने का, जहां छुआछूत स्कूलों तक पीछा नहीं छोड़ती. समाज का सबसे जरुरी काम करके भी उनके परिवार एक तरह से बहिष्कृत जीवन जीते हैं. लड़कियां स्कूल जाकर भी शिक्षा के अधिकार से वंचित रह गईं है.
संदी की गाँव 13 वर्षीय रिया गिनती के कुछ दिन ही स्कूल गयी थी लेकिन वो दिन उसके दर्द भरे थे जिन्हें वो आजतक नहीं भूल पायी है.
"मास्टर साहब को मुझसे छूत लगता था. बच्चों को भी साथ नहीं खेलने देते थे. दो तीन दिन ही स्कूल गई फिर हमेशा के लिए पढ़ाई छोड़ दी. अब जब कोई पढ़ी-लिखी लड़की मुझसे बात करती है तो बहुत बुरा लगता है. पढ़ाई नहीं की अब पछता रही हूं."रिया
भदरेखी गांव की दिव्या ने 12वीं तक पढ़ाई की है. दिव्या वाल्मीकि समुदाय में जन्म लेने की अपनी पीड़ा बताती हैं, "इस जाति में जन्म लेने से हमसे लोग बहुत छूत विचार मनाते हैं. स्कूल पढ़ने जाते थे तो लड़कियाँ हमारा बस्ता फेक देती थीं, बुरा लगता था रोते भी थे पर मां-बाप का सपना था कि पढ़ाई करें. स्कूल में कोई फंक्शन होता तो हमें पार्टिसिपेट नहीं कराया जाता था. गांव में अभी भी बहुत छुआछूत होती है. दुकानदार फेंककर समान देते हैं."
कुछ लड़कियाँ गरीबी में आगे की पढ़ाई नहीं कर सकीं तो कुछ छुआछूत की वजह से. दिव्या स्कूल गईं भी तो उनके साथ भेदभाव इतना हुआ कि उस जख्म को वो आज भी याद करके रोने लगती हैं.
"पढ़ना चाहती थी पर इंटर तक ही पढ़ सकी. मां ने 30 साल मैला उठाने का काम किया अभी कुछ साल पहले ही उन्होंने यह काम बंद किया है. सबसे बुरा लगता था जब हमारी मां घर-घर जाकर खाना मांगकर लाती थी."दिव्या
बुन्देलखंड में 40 साल से पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार केपी सिंह का कहना है.
"जालौन जिले में जो नगरीय क्षेत्र हैं वहां तो हाथ से मैला उठाना बंद है लेकिन जो ग्रामीण क्षेत्र हैं वहां अभी भी डलिया से मैला फेका जाता है. कागजों में प्रशासन द्वारा यह दिखाया जा रहा है कि जालौन जिले में एक भी लोग मैला नहीं उठाते लेकिन ये स्थिति हकीकत से बिलकुल इतर है.केपी सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
वो आगे कहते हैं, "इनके पुनर्वास में कई व्यवहारिक समस्याएँ हैं अगर उन्हें भैस दे दी गयी तो कोई दूध नहीं खरीदेगा. होटल खोला जाएगा तो कोई खायेगा नहीं. कपड़े की दुकान से कोई कपड़े नहीं खरीदेगा. गांव एक छोटी इकाई होते हैं जिनके बारे में हर कोई जानता है इसलिए इनकी जाति नहीं छिपती."
क्या कहता है कानून?
देश में पहली बार 1993 में मैला ढोने की प्रथा पर प्रतिबंध लगाया गया था. इसके बाद 2013 में कानून बनाया गया, "हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वासन अधिनियम 2013". इस कानून के तहत मैला ढोने के काम में संलिप्त लोगों को पुनर्वास किया जाए. जिला स्तर पर 'जिलास्तरीय सर्वेक्षण समिति' और राज्य स्तर पर 'राज्यस्तरीय सर्वेक्षण समिति' का गठन किया जाए. जो लोग भी इस काम में चिंहित पाए जाएं उन्हें रोजगार से जोड़ा जाए.
कानून में यह भी प्रावधान है कि अगर कोई मैला ढोने का काम कराता है तो उसे सजा दी जाएगी, लेकिन केंद्र सरकार खुद ये स्वीकार करती है कि उन्हें इस संबंध में किसी को भी सजा दिए जाने की जानकारी नहीं है.
मैला ढोने वालों का पुनर्वास सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की मैला ढोने वालों के पुनर्वास के लिए स्व-रोजगार योजना के तहत किया जाता है. इस योजना के तहत मुख्य रूप से तीन तरीके से मैला ढोने वालों का पुनर्वास किया जाता है.
पहला 'एक बार नकदी सहायता' के तहत मैला ढोने वाले परिवार के किसी एक व्यक्ति को एक मुश्त 40,000 रुपए दिए जाते हैं. मुआवजा राशि केवल जीवकोपार्जन के लिए दी जाती है इससे पुनर्वास नहीं होता है. मैला ढोने वालों को प्रशिक्षण देकर उन्हें रोजगार से जोड़कर पुनर्वास माना जाता है. इसके तहत प्रति माह 3,000 रुपये के साथ दो साल तक कौशल विकास प्रशिक्षण दिया जाता है. निश्चित राशि तक के लोन पर मैला ढोने वालों के लिए सब्सिडी देने का प्रावधान है.
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