विवेक अग्निहोत्री की फिल्म द कश्मीर फाइल्स(The Kashmir Files) के रिलीज होने के बाद से ही कश्मीरी पंडितों के पलायन(Kashmiri Pandit Exodus) का मुद्दा लगातार चर्चा में है. फिल्म 1990 में हुए कश्मीरी पंडितों के पलायन का एक दस्तावेज होने का दावा करती है. जनवरी 1990 में 75,000 कश्मीरी हिन्दुओं ने जम्मू-कश्मीर से पलायन किया. इस पलायन के दौरान सैकड़ों लोग मारे गए. कश्मीरी पंडितों के घरों को लूटा गया. आखिर कश्मीर में 1990 में ऐसा क्या हुआ था और पंडितों को क्यों घाटी छोड़नी पड़ी? आइए समझते हैं पूरा घटनाक्रम
1980 का जम्मू-कश्मीर: उग्रवाद का उदय
1980 में पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF), हिजबुल मुजाहिदीन, लश्कर-ए-तैयबा जैसे उग्रवादी समूहों के लिए अपना समर्थन तेज कर दिया था. 1984 में JKLF नेता मकबूल भट्ट को फांसी की सजा हुई. मकबूल भट्ट की फांसी से अलगाववादियों में गुस्सा था. कई कश्मीरी मुस्लिम युवाओं को पाकिस्तान में प्रशिक्षित किया गया, उन्हें हथियार दिए गए. 1986 में अनंतनाग में सांप्रदायिक हिंसा हुई. हिंसा में हिन्दुओं के घरों और मंदिरों को तोड़ा गया.
1987: चुनावों में ‘धांधली’ और हिंसा में बढ़ोतरी
1987 के जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार पर 'धांधली' के आरोप लगे. कांग्रेस सरकार पर आरोप लगा कि फारूक अब्दुल्ला को फिर से मुख्यमंत्री बनाने के लिए सरकार ने उग्रवाद को हवा दी.
दिसंबर 1989 में JKLF ने वीपी सिंह की जनता दल सरकार के गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद का अपहरण कर लिया. रुबैया के बदले JKLF के 5 सदस्य जेल से रिहा किए गए. JKLF के सदस्यों की रिहाई अलगाववादियों की बड़ी जीत थी.
1988-89: एक बीजेपी नेता और जज नीलकंठ गंजू की हत्या
1988 में उग्रवादियों ने बीजेपी नेता टीका लाल टपलू को कई लोगों की मौजूदगी के बीच मार डाला.
1989 में, जज नीलकंठ गंजू की भी हत्या कर दी गई. जज नीलकंठ गंजू ने ही JKLF के मकबूल भट्ट को मौत की सजा सुनाई थी. उग्रवादियों ने कश्मीर के एक बाजार में नीलकंठ गंजू की हत्या कर दी. उग्रवादियों के जरिए कई नागरिकों और मुख्य नामों की हत्याओं का सिलसिला जारी रहा.
पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी समूह हिजबुल मुजाहिदीन ने कश्मीर में विद्रोह को सांप्रदायिक रंग दिया. उस समय कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथ को ‘आजादी’ के आह्वान के साथ बढ़ावा मिलता गया. हिंदू समुदाय में भय पैदा करने के लिए कश्मीरी पंडितों की हिट लिस्ट तैयार हुई.
19 जनवरी 1990 की काली रात
19 जनवरी, 1990 को प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने जम्मू-कश्मीर में केंद्रीय शासन लागू कर दिया और जगमोहन को राज्यपाल नियुक्त किया. इसके विरोध में सीएम फारूक अब्दुल्ला ने इस्तीफा दे दिया. उस रात, राजनीतिक रूप से अशांत घाटी हिंसा से कांप उठी थी. कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाया गया, कई मारे गए, उनके घरों पर हमले हुए और कथित तौर पर महिलाओं के साथ बलात्कार हुए.
पलायन
20 जनवरी, 1990 के बाद कुछ ही हफ्तों के भीतर हजारों कश्मीरी पंडितों ने घाटी छोड़ दी. कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार जनवरी 1990 में 75,343 कश्मीरी पंडितों ने और फिर मार्च 1990 तक 70,000 से अधिक पंडितों ने घाटी छोड़ी. जबकि 650 मारे गए.
फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स', जो इस समय का एक दस्तावेज होने का दावा करती है. उसमें कुछ प्रमुख तथ्यों को गलत दिखाया गया है.
'द कश्मीर फाइल्स' का दावा है कि कुल 4,000 कश्मीरी पंडित मारे गए. लेकिन कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अनुसार ये आंकड़ा 650 है.
‘द कश्मीर फाइल्स’ ने दावा किया कि 5 लाख कश्मीरी पंडित घाटी से चले गए जबकि कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति ने ये आंकड़ा 1.5 लाख बताया है.
फिल्म में नदीमर्ग में हुई कश्मीरी पंडितों की हत्याओं को 1990 की घटना के रूप में दिखाया गया है. लेकिन ये हत्याएं 2003 में हुईं थी जब दिल्ली में बीजेपी की सरकार थी .
कश्मीरी पंडितों के खिलाफ एक स्थानीय अखबार में ‘रालिव, तसालिव या गालिव’ की धमकी जनवरी 1990 में नहीं बल्कि उसके 3 महीने बाद प्रकाशित की गई थी. इस धमकी का अर्थ है 'धर्म बदल लो, कश्मीर छोड़ दो, या तबाह हो जाओ'.
'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म यह दिखाने में भी विफल रही कि कई कश्मीरी मुसलमानों ने हिंसा के दौरान कश्मीरी पंडितों को बचाया था.
21 जनवरी 1990 को कश्मीरी मुसलमानों को भी निशाना बनाया गया था. जगमोहन की नियुक्ति के दो दिन बाद श्रीनगर के गौकदल पुल पर CRPF के जवानों ने नागरिकों पर गोलियां चलाई. जिसमें 50 मुस्लिम प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई थी.
परिणाम
राज्यपाल जगमोहन जो 1994 में बीजेपी में शामिल हो गए थे, उनकी आलोचना की जाती है कि वे 1990 में घाटी में कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा सुनिश्चित कर पाने में असफल रहे. बाद के वर्षों में घाटी से भागे अधिकांश कश्मीरी पंडितों को जम्मू और दिल्ली में बदहाल कैम्पों में रखा गया. कई कश्मीरी पंडितों के छोड़े हुए घरों और जमीन को स्थानीय लोगों ने हड़प लिया. बाद में आने वाली सरकारों ने कश्मीरी पंडितों की वापसी के लिए उनकी मदद भी नहीं की.
उग्रवाद, आतंक और सेना की भारी मौजूदगी कश्मीर में आज भी एक वास्तविकता बनी हुई है. कश्मीर के अंधकार काल में हुई हत्याओं की जांच के लिए कोई पुलिस कमीशन या कोई न्यायिक समिति नहीं बनाई गई. इसी कारण कश्मीरी पंडितों के पलायन को गति मिली. पंडितों के साथ हुई इस त्रासदी के 30 साल बाद भी उन्हें वापसी और न्याय का इंतजार है.
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