मशहूर कलाकार पिकासो ने कहा था कि ''कला क्रांति है''. उन्होंने एक बार कहा था ‘ अगर कभी कला को शहर की सबसे महत्वपूर्ण चीज बना दिया जाए तो इसके लिए लड़ना फिजूल होगा क्योंकि तब ये बहुत गिरा हुआ और नंपुसक जैसा बन चुका होता है’. पिकासो तो यह अंदाजा नहीं लगा पाए थे कि दशकों बाद भारत में क्या होगा, लेकिन साफ तौर पर वो जानते थे कि अगर आर्टिस्ट सरकार के पक्षधर बन जाएं तो क्या हो सकता है.
अवश्य ये संभव है कि सरकार किसी कवि को अपने नजरिए से अपने से जोड़े रखना चाहे- मगर एक सच्चा आर्टिस्ट स्वाभाविक तौर पर ऐसा होने देना नहीं चाहेगा कि वो सरकार के साथ दिखे, क्योंकि अगर वो ऐसा करता है तो इसका मतलब होगा- वो कुछ ऐसा कर रहा है जिसे सब पहले से जानते और बूझते हैं, वो अप्रूव्ड और पुरानी बातें हैं- इसलिए वो बेमतलब की हैं.
भारत में ‘सरकारी कला’ की नई लहर
भारत अभी हाइपर नेशनलिज्म यानि उग्र राष्ट्रवाद के दौर से गुजर रहा है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार इसे हासिल करने में कामयाब रही है. ‘आज BJP भी एक ‘सरकारी मुहर’ वाले आर्ट के जमाने में है. साल 2018 में बीजेपी ने ट्विटर पर मंगेश हदावले की फिल्म ‘ चलो जीते हैं’ के बारे में लिखा-''ये एक शॉर्ट फिल्म है जो आपको ये सोचने के लिए मजबूर करती है कि आप किसके लिए जीते हैं? ये एक युवा नारू (NARU) की कहानी है जो कि देश सेवा के लिए जीता है. अंदाजा लगाइए वो कौन हो सकता है ?'' सिनेमा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शुरुआती जिंदगी पर आधारित बताई जाती है.
आदित्य धर की फिल्म 'उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक' ने सीमा पार पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में भारतीय आर्मी के मिलिट्री ऑपरेशन की जर्नी को दिखाया. तब के वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में फिल्म की जमकर तारीफ करते हुए संसद में बैठे सांसदों को गर्व से बताया – जब उन्होंने उरी देखी तो उन्हें बहुत मजा आया. फिल्म के हाई जोश का उन्होंने खास तौर पर जिक्र किया था. गोयल के बयान से गदगद सभी सांसद डेस्क थपथपाते दिखे थे.
अभी विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन की हिंसक दास्तान ने पूरे देश में तूफान ला दिया है. फिल्म का समर्थन सिर्फ मंत्रियों ने ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री ने भी किया.
हालांकि ये अलग बात है कि लेफ्टिनेंट जनरल रिटायर्ड डी एस हूडा जो कि सितंबर में 'उरी-सर्जिकल स्ट्राइक' के वक्त नॉर्दन कमांड के प्रमुख थे, ने कहा था कि स्ट्राइक को देश में बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया और राजनीतिकरण भी हुआ. जहां तक 'द कश्मीर फाइल्स' फिल्म की बात है ये साल 2020 के दिल्ली दंगों के दौरान मुस्लिमों के खिलाफ ‘ गोली मारो...’ के नारे जो लगाए गए उसके पक्ष में एक एक्सक्यूज बन गया है. वहीं मोहल्ला अस्सी, जिसने वाराणसी में धार्मिक पर्यटन को खराब रोशनी में दिखाया उसे पर्दे पर आने से पहले तीन साल तक लटकाए रखा गया. आखिर वाराणसी वही जगह है जहां से प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं. कुछ बीजेपी सांसदों ने तो केदारनाथ फिल्म को भी बैन करने की मांग की, ये कहकर कि फिल्म ‘लव जिहाद’ बढ़ाता है.
भारतीय कमर्शियल सिनेमा की नाजी जर्मन सिनेमा के साथ खतरनाक समानताएं हैं. किसी भी सरकार में पहले कला को ध्वंस और उसे फिर प्रोपेगैंडा का टूल बनाने का कौशल बहुत पुराना है, लेकिन जर्मन इसमें निर्विवाद तौर पर चैंपियन बनकर उभरे. विएत हार्लैन की ‘जूड सुइस’ बहुत मशहूर नाजी प्रोपेगैंडा फिल्म है जो आज प्रतिबंधित है. ये फिल्म जोसेफ सुस ऑपेनहाइमर की कहानी है. इन्हें फिल्म में एक ऐसा यहूदी दिखाया गया है जो साजिश और षडयंत्र करता रहता है. जूड सुइस फिल्म जब रिलीज हुई तो लाखों जर्मनों ने इसको देखा. यह अब तक की सबसे बड़ी यहूदी विरोधी फिल्मों में से एक है. इसे एसएस सैनिकों और यातना शिविरों के गार्ड को फाइनल सॉल्यूशन के विचार को प्रभावित करने के लिए दिखाया जाता था. नाजी पोस्टरों के इस्तेमाल में माहिर थे. उन वर्षों के एक पोस्टर में ‘आर्य’ जैसा दिखने वाला एक शख्स हिटलर की एक आकर्षक पोस्टर जो उसके ऊपर है, उसे उसकी तरफ देखता हुआ दिखाया गया है.
टाइटल में लिखा गया - “ युवा ही भविष्य हैं और सभी 10 साल से ज्यादा के लड़कों को हिटलर के साथ जाना चाहिए’ . इस तरह उस पोस्टर के जरिए सभी युवाओं से हिटलर और उसके यूथ विंग में शामिल होने की अपील की जाती है.
एक दूसरा पोस्टर जो बच्चों की किताब ‘डेर गिफ्टपिल्ज़ (द पॉइज़नस मशरूम) में है. इसमें एक लड़के को चाकबोर्ड पर खींची गई नाक की ओर इशारा करते हुए दिखाया गया है. इसके कैप्शन में लिखा है, 'यहूदी नाक में टेढ़ा सिरा होता है. यह 6 जैसा दिखता है ”
आज के भारत में एक हालिया कार्टून में मुसलमानों को एक ही रस्सी से लटका हुआ दिखाया गया है. ये कैरिकेचर साल 2008 में अहमदाबाद ब्लास्ट में आए फैसले के बाद आया.
पूंजीवादी दुनिया में ये आखिर किसकी कहानी है? जब किसी देश में रहने वाली जनता के कलाकार और कला राज्य के साथ गिरहबंदी करती है तो क्या होगा? खासकर भारत जैसे देश में?
'द कश्मीर फाइल्स' जैसी कमर्शियल फिल्म का सबसे बड़ा खतरा ये है कि कश्मीर पंडितों के घाटी से पलायन के लिए फिल्म ही सबसे बड़ा सत्य बन जाती है. खासकर उन लाखों लोगों के लिए जिनको कश्मीरी पंडित के कत्लेआम और पलायन के बारे में ज्यादा कुछ मालूम नहीं. सभी तरह के तोड़मोड़ के साथ 'द कश्मीर फाइल्स' एक ऐसा सत्य उनके लिए बन जाएगा जिसका काउंटर सालों तक करना मुश्किल होगा. फिर तो भारत की सबसे बड़ी ताकत – विविधता ही इसकी सबसे बड़ी कमजोरी बन सकती है. एक ऐसा देश जिसके कई इतिहास हैं.
किनको-किनको कहानियां कहने का मौका मिलेगा? सभी समुदाय किसी ना किसी ऐतिहासिक पीड़ा से गुजर कर ही बने हैं. जहां कश्मीरी पंडित इस बात से थोड़ा मन को बहला सकते हैं कि आखिर 'द कश्मीर फाइल्स' के जरिए उनकी कहानी को उनकी पसंद की सरकार में बताया गया..क्या कलाकार आज 2002 के गुजरात दंगों, साल 2020 के दिल्ली दंगों की कहानी कह सकते हैं ?
क्या उन लाखों कश्मीरियों की कहानी बताई जाएगी जिन्होंने अपनों को हिंसा में खोया. क्या दशकों तक पूर्वोत्तर में जो जिंदगियां उग्रवाद की आग में जल गईं उनकी कहानी कभी कही जाएंगी ?
हमारे जैसे पहले से ही बंटे देश में, एक कलाकार और उसके आलोचकों का काम पीड़ितों के दर्द को सामने लाना है. लेकिन आज जो पीड़ितों की यातना की कहानी कह रहे हैं और जो इनकी इजाजत दे रहे हैं उनकी मंशा इसे विक्टिमाइज करने भर की है.
मुंबई मिल संस्कृति जिसने कामगारों को एकजुट किया
मुंबई का इतिहास इस मामले में एक अच्छा उदाहरण है. 1960s तक मुंबई की टेक्सटाइल मिल एक महत्वपूर्ण आर्थिक और सामाजिक ताकत थी जिसमें एक सांस्कृतिक और धार्मिक बंटवारे के बाद भी एक मजबूत मजदूर संघ की संस्कृति थी. इसने ‘बंबई’ के कामगारों को एक किया. जब मिल खत्म होने लगे तो हजारों कामगार बेकार हो गए.
ये जो कामगारों की एकता थी, वो टूटने लगी और सांप्रदायिक दरारें भी दिखने लगीं. ऐसे ही माहौल में बाहरियों और गैर मराठियों के खिलाफ मुंबई में सियासी कार्टून और पोस्टरों की बाढ़ आ गई. इन कार्टूनों में मराठी मानुष और उनके संघर्ष की बात दिखती थी. मुंबई के भिवंडी में 1984 में जो सांप्रदायिक दंगे भड़के वो 1992-93 में हुए दंगों की पृष्ठभूमि ही थे. लेकिन जहां ‘मराठी मानुष’ के संघर्ष की बात जन जन में लोकप्रिय हुई.
उनकी दिक्कतों को लेकर सहानुभूति भी बरसी लेकिन शहर के मुस्लिम समुदाय जो धीरे धीरे दरकिनार कर दिए गए और घेटो (एक सीमीत दायरे) में रहने के लिए मजबूर किए गए, उनको अपनी कहानी कहने का कभी मौका नहीं मिला.
पूंजीवाद में आर्ट या कला की किस्मत
ऐसे में पूंजीवादी सिस्टम में कला की सोच यहां काफी महत्वपूर्ण हो जाती है. क्या एक नया और मिड लेवल का आर्टिस्ट जो मुश्किल से खानेपीने लायक पैसे का इंतजाम कर पाता है , क्या वो अपने आदर्श को जिंदा रख सकता है? वो भी एक ऐसी व्यवस्था में जहां विरोध की आवाज और विरोध करने वालों को कुचलकर रख दिया जाता है .
अगर आइडिया सिर्फ किसी चीज को बेचना और पैसे बनाना है , तब इसे ‘खरीदेगा कौन’ सवाल को किनारे नहीं रख सकते. सिल्वर स्क्रीन पर देश की जनता की मिजाज से मिलते जुलते भारतीय सेना के हीरो और राष्ट्रीय शख्सियतों पर जो फिल्में बनी , बायोपिक बनी उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर बंपर पैसे बनाए. कमाई के सभी पुराने रिकॉर्ड भी तोड़े.
अगर कश्मीरी पंडितों की यातनाओं, हाई जोश वाली सर्जिकल स्ट्राइक, और NARU के बचपन पर बनी फिल्में 100 करोड़ रुपए की कमोडिटी हो सकती है तो फिर प्रॉडयूसरों को आखिर कौन ऐसी कहानियां बेचने से वो भी जिन्हें सरकारें पसंद करें, रोक सकता है? आखिर युवा और उभरते पटकथा लेखक अगर इस तरह की प्लॉटलाइन पर स्टोरी लिखकर एक झटके में फेमस हो सकते हैं तो वो क्यों नहीं ऐसा करेंगे? और फिर आर्ट को प्रोपेगैंडा की तरह सरकारी इस्तेमाल से भला कोई क्यूं रोकेगा ? आखिर इसमें सभी का फायदा ही तो है. इसी वजह से इन्हें ‘कमर्शियल सिनेमा’ कहा जाता है.
'द कश्मीर फाइल्स' रिलीज होने के बाद सोशल मीडिया पर विवेक अग्निहोत्री के कई पुराने ट्वीट्स शेयर किए गए. इनमें दिखाया गया कि कभी विवेक अग्निहोत्री मुस्लिमों के लिए सहानुभूति रखते थे.
कश्मीरी पंडितों के पलायन पर फिल्म के मुख्य किरदार अनुपम खेर का नजरिया, 'द कश्मीर फाइल्स' रिलीज होने के बाद बहुत आक्रामक है लेकिन आज की तुलना में साल 2010 में वो संतुलित नजरिया रखते थे. उन्होंने ट्वीट किया था “कश्मीर के लिए मेरा दिल बहुत कलपता है.. राजनीति और आतंकवाद ने स्वर्ग को नर्क बना दिया है. हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए .
जाहिर है.. विचारधारा से दूर ये मौकापरस्ती और उपभोक्तावाद है जो आज आर्टिस्ट के विचार को सबसे ज्यादा प्रभावित करता है.
‘क्या बिकता है’ सवाल नहीं होना चाहिए पर ये है?
जहां संवैधानिक तौर पर राज्य की जिम्मेदारी है कि वो विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इजाजत दे, शायद स्थापित कलाकारों जो आर्थिक तौर से ठीकठाक हैं उनसे उम्मीद रहती है कि एक आदर्शवादी दुनिया बनाने में मदद करें. किसी भी तरह के तोड़मोड़, प्रोपेगैंडा के खिलाफ अपनी कला और शिल्प का इस्तेमाल करें और मिड लेवल के आर्टिस्ट को भी सपोर्ट करें. लेकिन हमारी दुनिया आर्दशवादी नहीं है. ये भी किसी दूसरी इंडस्ट्री की तरह सप्लाई- डिमांड के फॉर्मूले से चलती है.
अमेरिकी लेखक उर्सुला ले गुइन ने एक बार कहा था- प्रतिरोध और बदलाव अक्सर कला से शुरू होते हैं.. अक्सर हमारे आर्ट में – इस खूबसूरत शब्द का इनाम मुनाफा नहीं होता है बल्कि आजादी होती है. लेकिन जब ‘ क्या बिकता है’ कलाकार या आर्टिस्ट के लिए एकमात्र सवाल बन जाए तो फिर आर्ट मर जाता है. बहुत सी चीजों को इसके अंत के लिए कसूरवार ठहराया जा सकता है लेकिन इसका सबसे ज्यादा भार समाज को ही ढोना पड़ता है.
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