जब देश के सबसे पुराने खेलों में से एक कुश्ती (Wrestling) अखाड़ा छोड़ सड़कों पर अपनी आवाज बुलंद करने लगे तो तमाम मीडिया और पत्रकार एक्सपर्ट्स ओपिनियन की तरफ भागते हैं, और इसी भागदौड़ में उन लोगों की राय पीछे छूट जाती है, जिन्होंने वास्तव में इस खेल को अपनी मिट्टी से जोड़े रखा और सदियों से पाल-पोस रहे हैं.
क्विंट हिंदी दक्षिणी पश्चिमी दिल्ली के ईसापुर गांव पहुंचा. नजफगढ़ से करीब 14 किलोमीटर दूर इस गांव का कुश्ती के साथ काफी पुराना इतिहास है.
यहां 357 सालों से हर साल 'दादा बूढ़ा मेला' नाम से एक मेला लगता है और इसमें सबसे खास चीज कुश्ती है जिसमें आस-पास के राज्यों से भी पहलवान भाग लेने आते हैं. लाखों का इनाम रखा जाता है. नेता-मंत्री भी पहुंचते हैं.
इस गांव में पहुंचकर हमने तैयारी कर रहे बच्चों, पूर्व पहलवानों और गांव वालों से बात की. लोगों ने अपनी विरासत 'कुश्ती' पर लग रहे 'कलंक' के बारे में खुलकर बात की और अपना नजरिया सामने रखा.
कुश्ती पर लग रहे 'कलंक' से दुखी गांव वाले
सबसे पहले हम गांव के प्रधान, 79 साल के ईश्वर सिंह के घर पहुंचे. उन्होंने बातचीत में गांव का इतिहास तो बताया ही साथ ही ये भी बताया कि भारतीय कुश्ती को दुनिया भर में मशहूर करने वालों को सड़कों पर देखकर उन्हें किस कदर दुख पहुंचा है. उन्होंने कहा कि
"जो आरोप लगे हैं उससे कुश्ती पर काफी असर पड़ेगा, क्योंकि जो लड़कियां कुश्ती का शौक रखती थीं वे भी अब पीछे हट जाएंगी, उनके मां बाप उन्हें खेलने से मना कर देंगे. जो आने वाले बच्चे हैं या अभी अखाड़े में जाते हैं उनके ऊपर काफी प्रभाव पड़ेगा. हमारे अध्यक्ष ही जब गलत लाइन चलाते हैं तो इससे काफी असर पड़ता है."ईश्वर सिंह, प्रधान ईसापुर और पूर्व पहलवान
गांव में बिखरी पड़ी हैं कुश्ती से जुड़ी कहानियां
इस गांव में जहां जाएंगे कुश्ती से जुड़ी कहानियां बिखरी मिलेंगी. गांव में एक कुश्ती स्टेडियम भी बन रहा है. गांव में एक बड़ा दरवाजा है जिसे श्रीचन्द पहलवान के नाम पर बनवाया गया है. पूर्व पहलवान जसवीर ने बताया कि
"ये द्वार जिनके सम्मान में बना है वे मेरे दादा जी थे, श्रीचन्द पहलवान जी. सुल्तान फिल्म में उन्हें अजय दिखाया गया है, लेकिन जहां से सुल्तान जी आते थे, वहां जाकर आप पूछ सकते हैं कि श्रीचन्द पहलवान ने उन्हें तिहाड़ा के दंगल में हराया था."जसवीर, पूर्व पहलवान
जसवीर आगे बताते हैं कि बृजभूषण आए तो लगा कि कुश्ती का भला होगा, उन्होंने चैंपियनशिप करवाई, प्रो लीग चलवाई, बच्चों को कोचिंग दिलवाई, देखने में लगा कि लोग कुश्ती को जिंदा कर रहे हैं, लेकिन ये वही बात हो गई कि एक तरफ पेड़ को कुल्हाड़ी से काट रहे हैं और दूसरी तरफ उसमें पानी डाल रहे हैं. NIS में उन बच्चों को भेजा जा रहा है जिन्होंने जिंदगी में कभी पहलवानी ही नहीं की, कभी लंगोट नहीं बांधा.
'मैं पहलवानों के लिए जंतर-मंतर जाने को तैयार'
पूर्व पहलवान ऋषिपाल बताते हैं कि वे भी फेडरेशन के खिलाफ हैं. उन्होंने दावा किया कि उन्होंने भी देखा है कि कैसे कोच बच्चों को प्रताड़ित करते हैं और फेडरेशन अपनी मनमानी करता है. उन्होनें कहा कि वे जंतर मंतर पर जाकर पहलवानों का समर्थन करने के लिए भी तैयार हैं.
आप अभी देख रहे हैं कि पहलवानी धीरे-धीरे नीचे जा रही है. जो नए बच्चें हैं वो इस फील्ड में नहीं उतरना चाह रहे, वे बाकी खेलों की तरफ जा रहे हैं. पहलवानी का ऐसा ही रहा तो आने वाले सालों में ये बिल्कुल बंद हो जाएगी.ऋषिपाल, पूर्व पहलवान
इस गांव में एक व्यायाम शाला, जिम, मिट्टी का अखाड़ा और मैट भी है जिनपर नए पहलवान अभ्यास करते हैं.
नौजवान ध्रुव डागर कुश्ती का अभ्यास करते हैं. उन्होंने कहा कि "ऐसा हो रहा है तो भविष्य में आने वाले पहलवानों को क्या प्रेरणा मिलेगी, ये बहुत गलत हो रहा है, भविष्य के बारे में नहीं सोचा जा रहा है."
इसमें गांव में ऐसे भी लोग हैं जिनके घर के कमरे कुश्ती में जीते गए मेडल और ट्रॉफी से भरे हैं. देखिए 79 साल के ईश्वर सिंह का कमरा.
ऐसा नहीं है कि गांव वाले सिर्फ गुस्सा जाहिर कर रहे हैं, बल्कि समस्या का समाधान भी बता रहे हैं. पहलवान जसवीर कहते हैं कि आप खेती वाले से खेती कराओ, पत्रकारिता वाले से पत्रकारिता कराओ, भाले वाले से कुश्ती करवाएंगे और कुश्ती वाले से भाला चलवाएंगे तो कैसे होगा, जिसका जो काम है उसी से करवाना चाहिए.
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