जब मैंने कहा था कि उदारीकरण के बाद यानी पिछले 25 साल में यह सबसे ज्यादा यथास्थितिवादी और दखलंदाजी करने वाली सरकार है, तब मोदी के प्रशंसक मुझ पर टूट पड़े थे. हालांकि पिछले 24 घंटों में पेट्रोल-डीजल पर सरकार ने जो गलती की है, उससे मेरी बात सही साबित हुई है. पर मैं उदास हूं. बगैर सोचे-समझे एक झटके में सरकार ने ऐसे आर्थिक सुधार को खत्म कर दिया, जिसमें सालों लगे थे.
आप जरा इन तथ्यों पर गौर कीजिएः
- पेट्रोल-डीजल की बेहद ऊंची कीमतों पर जनता की नाराजगी के डर से मोदी ने सेंट्रल एक्साइज में 1.50 रुपये प्रति लीटर की कटौती की. इससे सरकार को अगले 6 महीने यानी अभी से लेकर वित्त वर्ष के अंत, 31 मार्च 2019 तक 10,000 करोड़ की आमदनी से हाथ धोना पड़ेगा.
- यह मामूली राहत है, क्योंकि उनकी सरकार ने 2014 में सत्ता में आने के बाद पेट्रोल पर 7.63 रुपये और डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में 9.36 रुपये प्रति लीटर की बढ़ोतरी की थी.
- इसके बाद उसने चौंकाने वाला फैसला किया और सरकारी क्षेत्र की तेल कंपनियों को दाम में 1 रुपये प्रति लीटर की कटौती करने का आदेश दिया. मूर्खतापूर्ण और क्षणिक आवेग में सरकार ने पेट्रोल-डीजल के दाम बाजार के हिसाब से तय होने के बड़े आर्थिक सुधार को वापस ले लिया, जिसे यूपीए ने साल 2010 में (पेट्रोल) और मोदी ने 2014 (डीजल) में बड़े जतन से अंजाम दिया था.
- सरकार के इस धोखे पर मार्केट भड़क गया. एक घंटे के अंदर यानी गुरुवार को शेयर बाजार के बंद होने तक के 13 मिनट और शुक्रवार की सुबह 45 मिनट की ट्रेडिंग में सरकारी तेल कंपनियों में निवेशकों की एक लाख करोड़ की संपत्ति स्वाहा हो गई. इससे आम निवेशकों को 48,000 करोड़ और मोदी सरकार को 55,000 करोड़ का झटका लगा.
- हैरानी की बात यह है कि मोदी ने पेट्रोल-डीजल के दाम बाजार के मुताबिक तय करने का एक फंडामेंटल रिफॉर्म सिर्फ 7,000 करोड़ बचाने के लिए खत्म कर दिया. अगर सरकार ने एक्साइज ड्यूटी में और 1 रुपये की कटौती की होती और 2.50 रुपये प्रति लीटर का पूरा बोझ खुद बर्दाश्त किया होता, तो 6 महीने में उसे 10,000 करोड़ के बजाय 17,000 करोड़ रुपये का घाटा होता. उसने तेल कंपनियों को कटौती का फरमान सुनाकर अपना वादा तोड़ा. मार्केट इसी की सजा दे रहा है और इसलिए निवेशकों की 1 लाख करोड़ की संपत्ति एक घंटे में खत्म हो गई.
आप सरकार के इस फैसले को क्या कहेंगे? क्या ये ईमानदार भूल थी. क्या उसे अंदाजा नहीं था कि इसका अंजाम क्या होगा? जी नहीं, मुझे नहीं लगता कि मोदी सरकार संदेह के लाभ की हकदार है. मेरे जहन में ये बात बिल्कुल साफ है और मैं पहले कह चुका हूं कि ये 1991 के उदारीकरण के बाद देश की सबसे यथास्थितिवादी और दखलंदाजी करने वाली सरकार है.
मोदी का ‘ओरिजिनल पेट्रोल वाला पाप’
नरेंद्र मोदी नेपोलियन के ‘लकी जनरल’ की तरह हैं. 1991 में देश की अर्थव्यवस्था को खोले जाने के बाद वो पहले शख्स हैं, जो एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार चला रहे हैं. ब्रेंट क्रूड की कीमत जब 2014 के 108 डॉलर से 2016 में गिरकर 30 डॉलर प्रति बैरल हो गई थी, तब उनके सितारे चमक रहे थे. इससे तीन साल में उनकी सरकार के हाथ 7 लाख करोड़ यानी करीब 100 अरब डॉलर की ‘लॉटरी’ लगी.
जरा सोचिए, अगर सरकार ने इसका फायदा पेट्रोल पंपों पर फ्यूल के दाम घटाकर आम ग्राहकों को दिया होता तो क्या होता? प्राइवेट डिमांड और कॉरपोरेट इनवेस्टमेंट के लिए यह कमाल का टैक्स स्टीमुलस (टैक्स छूट से अर्थव्यस्था में तेजी लाने की कोशिश) होता. अगर मोदी ने वित्तीय मुश्किलों में फंसे बैंकों और इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनियों के लिए इन 7 लाख करोड़ रुपयों से TARP (*) जैसा फंड बनाया होता, तब क्या होता? इससे एक झटके में वह बैंकों और कंपनियों की बैलेंस शीट की समस्या खत्म कर चुके होते और अर्थव्यवस्था जंजीरों से आजाद होकर तेजी से भाग रही होती.
(*) TARP यानी ट्रबल्ड एसेट रिलीफ प्रोग्राम को पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और फेडरल रिजर्व के फॉर्मर चीफ बेन बर्नान्की ने अमेरिका में 2008 सब-प्राइम क्राइसिस से निपटने के लिए शुरू किया था.
इसके बजाय मोदी ने पेट्रोल-डीजल पर टैक्स दोगुना ही नहीं, तीन गुना कर दिया, जिससे यह मौका हाथ से निकल गया. इस पैसे को उन विशाल कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च करके उन्होंने समस्या और बढ़ा दी, जो अक्षमता के लिए बदनाम हैं और जिनका पूरा पैसा कभी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता.
माइनॉरिटी शेयरहोल्डर्स का दमन और खुद रेगुलेटर बनना
मोदी देश की ऑयल इकनॉमी को लेकर भ्रम में हैं. इसी साल पहले जब उनकी सरकार विनिवेश का लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई थी और उसे तत्काल कैश की जरूरत थी, तब उसने अपनी नाकामी छिपाने के लिए एक खराब रास्ता निकाला. इसमें तेल क्षेत्र की दिग्गज एक्सप्लोरेशन कंपनी ओएनजीसी पर 35,000 करोड़ में एचपीसीएएल में सरकार के शेयर खरीदे के लिए दबाव डाला गया. इसके बाद केंद्र ने छोटे निवेशकों के अधिकारों का दमन किया.
नियम यह कहता है कि ओएनजीसी को एचपीसीएल के शेयरधारकों के लिए 26 पर्सेंट अतिरिक्त स्टॉक्स खरीदने का ओपन ऑफर लाना चाहिए था. इससे जो निवेशक एचपीसीएल से निकलना चाहते थे, वे निकल पाते.
हालांकि, ओपन ऑफर से बचने के लिए मोदी सरकार ने 40 साल पुराना राष्ट्रीयकरण कानून लहराते हुए कहा कि एचपीसीएल इस सौदे के बाद भी सरकारी कंपनी ही रहेगी. बस इसका नियंत्रण पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर ओएनजीसी के हाथों में दिया जा रहा है. इसके बाद सेबी (सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया) ने सरकार को सलाम ठोका और सौदे को ओपन ऑफर से छूट दे दी. पेट्रोल-डीजल पर गुरुवार के बदकिस्मत फैसले से पहले खुद रेगुलेटर बनने का ये खेल हुआ था.
ये ‘बिग गवर्नमेंट’ का अहंकार है. इसलिए बाजार की ताकतों के हिसाब से दाम तय होने के एक बड़े सुधार को खत्म कर दिया, जिसे वर्षों की राजनीतिक उथल-पुथल के बाद हासिल किया गया था.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)