IL&FS की आग बुझाने की कोशिश कर रहे प्रधानमंत्री मोदी और वित्त मंत्री जेटली को ‘दो फैक्सों का किस्सा’ जरूर पढ़ना चाहिए. इसमें से पहला फैक्स 30 जून 2001 को लुटियंस दिल्ली की दो मशीनों से उछलकर बाहर आया था. एक फैक्स वाजपेयी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार तो दूसरा उनके वित्त सचिव को उनके घर पर भेजा गया था.
फैक्स भेजने वाले यूनिट ट्रस्ट ऑफ इंडिया (यूटीआई) के संदिग्ध चेयरमैन पी एस सुब्रमण्यम थे. उस वक्त यूटीआई का 8 पर्सेंट मार्केट कैपिटलाइजेशन पर कंट्रोल था. यूटीआई एक सरकारी म्यूचुअल फंड था, जिसकी स्थापना 1963 में संसद में पास एक कानून के तहत की गई थी.
फैक्स संकट का संदेश लेकर आया था. इसमें यूटीआई की फ्लैगशिप स्कीम, यूएस-64 के दिवालिया होने की सूचना दी गई थी. निगेटिव रिजर्व के चलते इसकी नेट एसेट वैल्यू (एनएवी) करीब-करीब खत्म हो गई थी. सुब्रमण्यम ने फैक्स में ‘यूएस-64 की खरीद-बिक्री को कुछ समय तक रोकने की सिफारिश की थी.’
ये सुझाव ‘ईश निंदा’ से कम नहीं था. आम निवेशक यूएस-64 को खत्म ना होने वाला करेंसी नोट या बैंक फिक्स्ड डिपॉजिट मानते थे. इसकी ‘अमिट छवि’ खुद सरकार ने बनाई थी. उसने दशकों से यूएस-64 की वैल्यू और डिविडेंड फिक्स कर रखा था, भले ही स्कीम के पैसे से खरीदे गए शेयरों और बॉन्ड की वैल्यू में उतार-चढ़ाव होता रहे.
हालांकि, कुछ समय से यूटीआई के फंड मैनेजरों की दुष्ट बुल ऑपरेटर केतन पारेख के साथ मिलीभगत चल रही थी, जिसे बाद में बड़े शेयर घोटाले में सजा हुई. मिसाल के लिए, यूएस-64 के पास एचएफसीएल के 101 लाख शेयर थे, जिसकी कीमत 2,553 रुपये से घटकर 79 रुपये रह गई थी. श्रीवेन मल्टीटेक में यूएस-64 की बड़ी होल्डिंग थी, जिसके शेयर 450 से 8.15 रुपये पर पहुंच गए थे. इस तरह के दर्जनों सौदों से यूएस-64 की एनएवी खत्म हो गई थी.
एक घातक और सुस्त देरी
यूएस-64 के यूनिटहोल्डर्स इस जालसाजी से बेखबर थे. उन्हें लगता था कि सरकार के पास उनका पैसा सुरक्षित है. हालांकि, साल 2001 में शनिवार की शाम को सरकार को भेजे गए फैक्स में बताया गया था कि यूएस-64 टॉयलेट पेपर भर रह गया है. हैरानी की बात है कि इसके बावजूद सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी रही. वीकेंड के दौरान उसने कुछ नहीं किया और यह सुस्ती खतरनाक साबित हुई.
सोमवार की सुबह जब यूएस-64 के निवेशकों को पता चला कि उनकी जिंदगी भर की कमाई हवा हो गई है तो जैसे तूफान आ गया. जनता, प्रेस, नेता और हर कोई सवाल कर रहा था और इसमें वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा निशाने पर आ गए.
सिन्हा को यह नहीं सूझ रहा था कि यूएस-64 को बचाया जाए या इसे दिवालिया होने दिया जाए. इस बीच, सरकार ने रिसते जख्म पर कई बैंड ऐड लगाए. यह सिलसिला करीब एक साल तक चला, जब तक कि सिन्हा का वित्त मंत्रालय से विदेश मंत्रालय में तबादला नहीं हो गया.
उनकी जगह जसवंत सिंह ने ली. उन्हें स्पष्ट आदेश मिला था- यूटीआई अनाथ नहीं है बल्कि ये सरकार समर्थित एंटिटी है और केंद्र को इसका पूरा समर्थन करना चाहिए. क्राइसिस से निपटने के लिए यूटीआई के नए चेयरमैन एम दामोदरन ने 6,400 करोड़ रुपये की मांग की. आखिरकार, यूटीआई को 14,561 करोड़ रुपये का बेलआउट पैकेज दिया गया. इसे दो हिस्सों में बांटा गया.
- पहला, यूटीआई-I, जिसमें यूएस-64 और दूसरे एश्योर्ड रिटर्न प्लान को रखा गया
- दूसरा, यूटीआई-II, जिसमें एनएवी बेस्ड स्कीम्स को डाला गया.
इससे तूफान थम गया. फिर यूटीआई का निजीकरण किया गया. इसमें से कुछ स्टॉक्स बच गए थे, जिन्हें सरकार ने स्पेशल ट्रस्ट में डाल दिया और आगे चलकर इनसे टैक्सपेयर्स को उम्दा रिटर्न मिला.
इस मामले से सरकार ने एक अहम सबस सीखा कि फाइनेंशियल मार्केट की जिस आग से पूरे सिस्टम को खतरा हो, उसे तुरंत बुझा देना चाहिए. इसमें कोई शक-शुबहा नहीं होना चाहिए और ना ही किसी तरह की देरी करनी चाहिए. आग बुझने के बाद इस सवाल का जवाब तलाशना चाहिए कि संकट क्यों पैदा हुआ और दोषियों को क्या सजा मिलनी चाहिए.
दूसरे फैक्स का किस्सा
सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज लिमिटेड अरबों डॉलर की कंपनी थी, जिसका बिजनेस कई देशों में फैला हुआ था. यह 650 ग्लोबल कंपनियों को सर्विस देती थी, जिसमें से 185 फॉर्च्यून 500 कंपनियों में शामिल थीं. 7 जनवरी 2009 को इसके संस्थापक रामलिंगा राजू ने स्टॉक एक्सचेंजों को फैक्स भेजकर हैरतंगेज गुनाह कबूल किया-
‘30 सितंबर 2008 तक की बैलेंस शीट में कंपनी ने 1 अरब डॉलर के फर्जी कैश और बैंक बैलेंस की जानकारी दी थी. कई सालों से मुनाफे को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के चलते ऐसा हुआ था. मैं अपनी इस गलती के लिए खुद को कानून के हवाले करता हूं और मैं अपनी सजा भुगतने के लिए तैयार हूं.’
इस ‘दूसरे फैक्स’ से भी जलजला आया.
सत्यम का शेयर 78 पर्सेंट नीचे आ गया और सेंसेक्स और निफ्टी में 7 पर्सेंट से ज्यादा की गिरावट आई. सत्यम को इसके बाद तुरंत 30 शेयरों वाले सूचकांक सेंसेक्स से बाहर कर दिया गया. उस रोज भारतीय समय के मुताबिक शाम को न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज ने सत्यम में ट्रेडिंग रोक दी. ब्रोकिंग फर्म सीएलएसए ने इस घटना को ‘भारत का ‘एनरॉन’ बताया. उसने कहा कि ऐसे एकाउंटिंग फ्रॉड की कल्पना करना भी मुश्किल है और ये भारत में कॉरपोरेट गवर्नेंस के लिए शर्मनाक और चौंकाने वाला घटनाक्रम है.’
घटना के तीसरे दिन कंपनी लॉ बोर्ड ने अपने आपात अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज के पूरे बोर्ड को निकाल बाहर किया, लेकिन इस बार सरकार ने अतीत की तरह कंपनी का राष्ट्रीयकरण नहीं किया और ना ही उसका कंट्रोल अपने हाथों में लिया.
तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने कहा, ‘कंपनी के मौजूदा बोर्ड ने वह काम नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था. देश के आईटी सेक्टर की विश्वसनीयता के साथ समझौता नहीं किया जाएगा.’
इसके साथ सरकार ने ईमानदार और दुनिया भर में साख रखने वाले प्राइवेट सेक्टर के प्रोफेशनल्स की बोर्ड में नियुक्ति की. बदकिस्मती से कंपनी का नया बोर्ड अप्रत्याशित रेगुलेटरी पचड़े में फंस गया. उस वक्त देश में अधिग्रहण के नियम काफी सख्त थे- नए खरीदार के लिए शेयर की कीमत क्या होगी, इसके नियम तय थे. इस हिसाब से स्टॉक एक्सचेंज पर पिछले छह महीने में शेयर की औसत कीमत पर ही कंपनी को बेचा जा सकता था.
हालांकि, सत्यम के शेयर 544 रुपये से गिरकर 12 रुपये पर आ गए थे. ऐसे में 6 महीने की औसत कीमत कंपनी के मौजूदा शेयर प्राइस से करीब पांच गुना अधिक थी. इसलिए सत्यम को बेचना मुश्किल था. इस मुश्किल का हल सेबी ने निकाला. उसने पांच हफ्ते से भी कम समय में अधिग्रहण के नए रूल्स लागू कर दिए, जिसमें असामान्य स्थितियों से निपटने के उपाय शामिल थे. 7 जनवरी को राजू के स्टॉक एक्सचेंजों को भेजे गए फैक्स के सिर्फ तीन महीने बाद 13 अप्रैल 2009 को सत्यम कंप्यूटर सर्विसेज को ब्रिटिश टेलीकॉम और भारत के महिंद्रा ग्रुप के ज्वाइंट वेंचर को 58 रुपये प्रति शेयर के भाव पर बेच दिया गया. कंपनी का नाम बदलकर महिंद्रा सत्यम किए जाने तक शेयर प्राइस उसका दोगुना हो चुका था. इस मामले में सरकार ने यूटीआई संकट से मिले सबक का इस्तेमाल किया- यह सीख थी कि जब रोम जल रहा हो, तब हीलाहवाली करना ठीक नहीं होता.
जो इतिहास भूल जाते हैं, वे उसे दोहराने की गलती करते हैं...
मैं फिर से रायसिना हिल्स के बाबुओं से वही बातें सुन रहा हूं: ‘ILFS एक प्राइवेट कंपनी है. सरकार को इसके डिफॉल्ट को रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. बैंकरप्सी सिस्टम को इस मसले से निपटने दिया जाए.’
ये भारी भूल है. सही या गलत, ILFS को भी अर्ध सरकारी संस्था माना जाता है, जिस तरह कि 2001 में यूटीआई को माना जाता था. कंपनी पर एसबीआई और एलआईसी सहित कुछ सरकारी कंपनियों का कंट्रोल और मालिकाना हक है. पिछले कुछ हफ्तों में कंपनी कई बार डिफॉल्ट कर चुकी है. उसे 31 मार्च 2019 तक 34,000 करोड़ रुपये का कर्ज चुकाना है.
कंपनी तुरंत संपत्ति बेचकर अधिक से अधिक 10,000 करोड़ रुपये जुटा सकती है और उसका ऑपरेटिंग कैश फ्लो निगेटिव है. इसलिए अगर आपातकालीन उपाय नहीं किए गए तो कंपनी आगे भी डिफॉल्ट करती रहेगी. ऐसा हुआ तो उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.
पहले ही शेयर बाजार की मार्केट वैल्यू में 10 लाख करोड़ रुपये की कमी आ चुकी है. लोन बाजार ठप पड़ सकता है. यह भी याद रखना चाहिए कि सरकारी बैंकों ने ILFS को 40,000 करोड़ रुपये का कर्ज दिया हुआ है. इसके अलावा, प्रॉविडेंट और पेंशन फंड, इंश्योरेंस कंपनियों का 30,000 करोड़ रुपये इसमें फंसा है. इतना ही नहीं, कंपनी के डूबने पर एनबीएफसी, म्यूचुअल फंडों और अन्य कर्जदाताओं को 20,000 करोड़ रुपये से हाथ धोना पड़ेगा.
इसलिए यह नैतिकता पर बहस करने का समय नहीं है. अभी आग बुझाने पर ध्यान देना चाहिए. सरकार के पास इसके लिए कई रास्ते हैं. वह नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड इनवेस्टमेंट फंड (एनआईआईएफ) के लिए सुपीरियर डेट/इक्विटी इंस्ट्रूमेंट तैयार कर सकती है, जो कंपनी में नया मैनेजमेंट ला सकता है. यह मैनेजमेंट कंपनी को अगले कुछ महीनों में उसकी संपत्तियों को बेचने के साथ व्यवस्थित ढंग से बचाने की भूमिका निभा सकता है.
सरकार जो भी रास्ता चुने, डिफॉल्ट रुकना चाहिए. कुछ अरब डॉलर के कर्ज की वजह से 3 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था को बंधक नहीं बनने दिया जा सकता. क्राइसिस खत्म होने पर रेगुलेटर्स ऐसे उपाय कर सकते हैं, जिनसे ऐसी घटनाएं फिर ना हों. दोषियों की पहचान की जा सकती है. संस्थापकों, बोर्ड मेंबर्स, रेटिंग एजेंसियों की भूमिका और कम अवधि के फंड से लंबे अवधि में फायदा कमाने वाले प्रोजेक्ट्स की फंडिंग के लचर सिस्टम की पड़ताल की जा सकती है. विडंबना यह है कि प्रधानमंत्री मोदी को इस मामले में ऐसे दो नेताओं से सबक लेना होगा, जिन्हें वह नापसंद करते हैं. इनमें से एक पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं तो दूसरे पूर्व वित्त मंत्री जसवंत सिंह. शायद इतिहास की विडंबना ऐसी ही होती है.
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