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प्रोपगेंडा का बेढंगा इस्तेमाल पीएम मोदी को कहीं उल्टा न पड़ जाए

राजनीतिक इतिहास की घटनाओं से सबक लेना चाहिए; उत्पीड़न और दुष्प्रचार की ज्यादती से सावधान !

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नेता कोई भी हो, वो बिना किसी अपवाद के, अपने विरोधियों के खिलाफ प्रचार और सजा (प्रोपगेंडा और पनिशमेंट) की दोधारी तलवार का इस्तेमाल करता है. इसलिए मसला ये नहीं है कि इनका इस्तेमाल कब होता है, या होता है या नहीं. बल्कि देखने वाली बात ये है कि इनका इस्तेमाल कैसे किया जाता है.

मेरा मानना है कि इन दोनों हथियारों का बड़ी बेरहमी से इस्तेमाल करने वाला एडॉल्फ हिटलर, ऐसे नेताओं की लिस्ट में सबसे अंतिम पायदान पर है. वो बदले के लिए हत्याएं करवाने से लेकर अपने प्रचार मंत्री गोएबल्स की अगुवाई में दिन रात झूठा प्रचार करवाने तक, हर किस्म के धतकरम करता था. कोई अचरज की बात नहीं कि उसका अंत भी बुरा ही हुआ.

नेल्सन मंडेला जैसे नेता इस लिस्ट में सबसे ऊंचे पायदान पर हैं, जिन्होंने प्रोपगेंडा/पनिशमेंट के इस्तेमाल में हमेशा तसल्ली, उदारता और गहरी सूझबूझ से काम लिया. यही वजह है कि मंडेला लोगों की यादों में हमेशा अमर रहेंगे.

अगर कोई नेता जरूरत से ज्यादा हमलावर हो जाता है, तो वो अपने विरोधी को “पीड़ित होने के आभामंडल” से लैस करने का खतरा मोल लेता है. ऐसे हालात पॉलिटिक्स के पांचवें “पी” यानी विरोधी के पर्सेक्यूशन (उत्पीड़न) वाले भाव को जन्म दे सकते हैं, जिससे “उत्पीड़ित” राजनेता के पराभव का दौर अचानक उसकी शानदार वापसी में तब्दील हो जाता है.

अगर आप अब भी इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हैं, तो राजनीति के चार ताजा उदाहरण पेश हैं (पुराने इतिहास से निकाले हुए नहीं) :

  • पाकिस्तान में नवाज शरीफ की बार-बार सत्ता में वापसी का क्या मतलब है?
  • पिछले साल हुए ब्रिटेन के चुनाव के दौरान जेरेमी कॉर्बिन की हैसियत में आया चमत्कारिक उछाल क्या बताता है?
  • मलेशिया में महातिर मोहम्मद या अनवर इब्राहिम की हैरान करने वाली जीत से क्या पता चलता है?
  • और ब्राजील में लुला की किस्मत जिस हैरतअंगेज तरीके से पलटी है, उसके क्या मायने हैं?

कैसे आसान हुई इंदिरा की वापसी?

उत्पीड़ित राजनेता की वापसी का शायद सबसे शानदार उदाहरण जब अपने देश में ही मौजूद है तो देश के बाहर झांकने की भी कोई जरूरत नहीं है. आपको वो दौर याद है, जब 1977 में इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी की हार हुई थी और सब सोच रहे थे कि उनका राजनीतिक करियर अब खत्म हो चुका है?

लेकिन तभी जनता सरकार एक भयानक राजनीतिक गलती कर बैठी. सत्ता में आने के दो महीने के भीतर ही उसने देश के रिटायर हो चुके पूर्व चीफ जस्टिस जेसी शाह को बुलाकर “इमरजेंसी में हुए अत्याचारों” की जांच का काम सौंप दिया.

जनता सरकार अनजाने ही इंदिरा गांधी को वो पॉलिटिकल ऑक्सीजन देने की मूर्खता कर बैठी थी, जिसने उनके राजनीतिक करियर में नई जान फूंक दी. और इंदिरा गांधी ऐसी नेता नहीं थीं कि वो भेंट में मिले इस शानदार मौके को हाथ से फिसल जाने देतीं! 

इंदिरा, उनके बेटे संजय गांधी और उनके राजनीतिक सहयोगी प्रणब मुखर्जी ने शाह कमीशन की कानूनी वैधता को चुनौती देते हुए उसके सामने शपथ लेने से इनकार कर दिया. इस पर जस्टिस शाह अपना आपा खो बैठे और इंदिरा गांधी को फटकार लगा डाली.

सरकार ने एक अनाड़ी की तरह इंदिरा गांधी को गिरफ्तार कर लिया और ये खबर अखबारों की सबसे बड़ी हेडलाइन बन गई. उन्हें जेल भेजा गया, लेकिन आरोप इतने कमजोर थे कि उन्हें कोर्ट ने खारिज कर दिया. अदालत में "निर्दोष" करार दिए जाने के साथ ही इंदिरा गांधी को अपनी "जीत के क्षण" का ऐलान करने का सुनहरा मौका मिल गया.

इंदिरा गांधी के एक माहिर राजनेता वाले मिजाज पर हार के कारण छाई धुंध न सिर्फ छंट गई, बल्कि वो एक नए तेवर के साथ मैदान में कूद पड़ीं. बिहार के दूरदराज के गांव बेलछी में जब 11 दलितों को गोली मारने और जिंदा जलाए जाने की वारदात हुई तो इंदिरा गांधी वहां हाथी पर सवार होकर जा पहुंचीं. फिर उन्होंने सबसे दुस्साहसिक कदम उठाते हुए कर्नाटक के चिकमंगलूर से उप-चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया.

इस चुनाव में “एक शेरनी, सौ लंगूर, चिकमंगलूर भाई चिकमंगलूर” के नारे ने लोगों को सम्मोहित कर लिया. इंदिरा ने चुनाव जीता और नेता प्रतिपक्ष (लीडर ऑफ ऑपोजिशन) के तौर पर कैबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल किया. उनका राजनीतिक सिक्का एक बार फिर से चल निकला था.

लेकिन जनता सरकार ने आत्मघाती गलतियों का सिलसिला जारी रखा और अपने पूर्ण बहुमत का इस्तेमाल करते हुए इंदिरा गांधी को संसद से निष्कासित कर दिया. उनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ती गई और आखिरकार 1980 के आम चुनाव में उन्हें जबरदस्त जीत हासिल हुई.

राहुल गांधी को बात-बेबात बनाया जा रहा है बलि का बकरा!

प्रधानमंत्री मोदी ने सावधानी बरती और इतिहास की गलतियों को दोहराने का काम नहीं किया. उन्होंने जांच आयोग बनाने या एक साथ कई लोगों पर मुकदमा चलाकर संस्थागत रूप से उनका उत्पीड़न करने वाला कोई कदम नहीं उठाया.

प्रधानमंत्री मोदी ने सावधानी बरती और इतिहास की गलतियों को दोहराने का काम नहीं किया. उन्होंने जांच आयोग बनाने या एक साथ कई लोगों पर मुकदमा चलाकर संस्थागत रूप से उनका उत्पीड़न करने वाला कोई कदम नहीं उठाया.
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पांच सबसे घटिया उदाहरण

बड़ी खबर: जम्मू-कश्मीर जैसे बेहद संवेदशील और विस्फोटक हालात से गुजर रहे राज्य में पीडीपी-बीजेपी सरकार के गिरने की खबर ने देश को हिला कर रख दिया था. भारत के राजनीतिक जीवन को नष्ट कर रहे कैंसर का एक और दर्दनाक घाव खुलकर सामने आ गया था. उधर 500 मील दूर, देश की राजधानी में एक मुख्यमंत्री लेफ्टिनेंट गवर्नर का घेराव किए बैठा था.

प्राइम टाइम प्रोपगेंडा शो : “क्या राहुल गांधी और उनके सहयोगियों ने अपने फायदे के लिए रोहित वेमुला का इस्तेमाल किया?”

आरोपों से भरे इस हमले की “प्रेरणा” उन्हें इसलिए मिली क्योंकि वेमुला की मां ने 15 लाख रुपये की मदद देने के इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (IUML) के वादे के बारे में बात की थी. उन्होंने राहुल गांधी का तो कहीं नाम तक नहीं लिया था. फिर भी प्राइम टाइम के कई घंटे सिर्फ राहुल गांधी को बलि का बकरा बनाने की कोशिश में खर्च कर दिए गए !

बड़ी खबर: नीरव मोदी को ब्रिटेन में खोज निकाला गया था और सीबीआई आखिरकार इंटरपोल तक पहुंच गई थी. ये वक्त शासन में बैठे लोगों को उनकी अयोग्यता या मिलीभगत के लिए सख्त लहजे में जवाबदेह ठहराने का था.

प्राइम टाइम प्रोपगेंडा शो: “राहुल का वाजपेयी को अस्पताल में देखने जाना क्या एक राजनीतिक स्टंट था ?

एंकर की शुरुआती लाइनें ही उसके पक्षपात भरे रुख की पोल खोलने के लिए काफी थीं : “राहुल गांधी ने एक सम्मानजनक शिष्टाचार को राजनीतिक रेस में तब्दील कर दिया.”

बड़ी खबर: कर्नाटक का राजनीतिक ड्रामा, जिसमें एक तरफ राज्यपाल ने चुपके-चुपके बीजेपी की अल्पमत सरकार बनवाने का प्रयास किया, तो दूसरी तरफ कांग्रेस इसे रुकवाने के मकसद से सुनवाई के लिए आधी रात को सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची. उधर, वाराणसी में कई लोगों की जान लेने वाले दर्दनाक फ्लाइओवर हादसे के पीछे भयानक लापरवाही भी सामने आई.

प्राइम टाइम प्रोपगेंडा शो: “राहुल गांधी ने न्यायपालिका की तुलना पाकिस्तान से की.”

राहुल ने सिर्फ इतना कहा था: “सुप्रीम कोर्ट के चार जजों को जनता के सामने आकर समर्थन मांगना पड़ा. उन पर दबाव है, उन्हें मजबूर किया जा रहा है...ऐसा तो तानाशाही में होता है, ये तो पाकिस्तान में होता है.” एक बार फिर से वही रवैया देखने को मिल रहा था कि असली खबर भाड़ में जाए, हमें तो राहुल गांधी को बलि का बकरा बनाने से मतलब है!

बड़ी खबर: अब बात उस दिन की जब गुजरात में राजनीति मायने से महत्वपूर्ण नतीजे आए कांग्रेस जीती तो नहीं, लेकिन बीजेपी को कड़ी टक्कर दी उस दिन कुछ न्यूज चैनल, वेबसाइट्स और पेपरों ने चुनाव के आंकड़ों का आकलन किया लेकिन उस दिन भी प्राइम टाइम प्रोपगेंडा शो में राहुल गांधी पर डिबेट होती है.

दिल्ली के एक सिनेमा हॉल में स्टारवॉर्स देखने गए यानी राहुल गांधी फिल्म देखने गए. ये उस दिन प्राइम टाइम का शो था जिस दिन गुजरात में राजनीतिक तौर पर बड़ा इवेंट था

मैं ऐसे उदाहरण लगातार गिनाता रह सकता हूं. जैसा कि मैंने पहले बताया था, ऐसी अनगिनत मिसालें हैं. हर दिन ऐसी दर्जनों खबरें जबरन गढ़ी जाती हैं, ताकि राहुल गांधी को किसी तरह राजनीतिक मजाक का निशाना बनाया जा सके. बहरहाल, ये प्रोपगेंडा साफ तौर पर इतना बचकाना, फूहड़ और घटिया है कि इसका उलटा असर पड़ना तय है.

राजनीतिक इतिहास की घटनाओं से सबक लेना चाहिए; उत्पीड़न और दुष्प्रचार की ज्यादती से सावधान !

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