जिंदगी भी बड़ी अजीब है. 10 दिन पहले मेरे पास ये पूछते हुए मेसैज आया कि क्या मैं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से मिलना चाहता हूं? ये उस कार्यक्रम का हिस्सा था जिसते तहत राहुल राजनीति में दिलचस्पी और सोशल मीडिया पर असर रखने वाले लोगों से मिलते हैं. अब जनाब, देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के अध्यक्ष से मिलने का न्योता रोज-रोज तो मिलता नहीं. सो मैंने पलक झपकते ही ‘हां’ कर दी.
मुलाकात इसी हफ्ते की शुरुआत में हुई. हालांकि मुझे मुलाकात के दौरान हुई चर्चा साझा करने की आजादी नहीं है फिर भी मैं राहुल गांधी के विचारों और कामकाज के तरीके पर कुछ बातें कहूंगा.
मुलाकात का वक्त शाम साढ़े चार बजे था और राहुल ने हमें इंतजार नहीं करवाया. परिचय वगैरह की औपचारिकताओं में पड़ने के बजाय हमें सीधे मुद्दे पर आने को कहा गया और उसके बाद डेढ़ घंटे की दिलचस्प बातचीत हुई. देश के हालात पर बात करने के लिए हम में से सब के पास कुछ ना कुछ था. राहुल ने शांति से सबकी बातें सुनीं. कुछ ने संघ के बारे में अपने (आलोचनात्मक) विचार रखे.
उन्हें सुनने के बाद मैं उठा. मैंने कहा, ‘संघ के बारे में मेरा कुछ और कहना है’. और अपनी बात कहने से पहले मैंने राहुल को बताया कि ‘मैंने आज तक किसी चुनाव में कांग्रेस को वोट नहीं दिया’.
मैने साफ तौर पर ये भी बताया कि मैं अटल बिहारी वाजपेयी का प्रशंसक और संघ का समर्थक हूं. साथ ही संघ के सामाजिक कामों के लिए थोड़े-बहुत पैसे भी डोनेट कर देता हूं. मैं ये देखकर हैरान रह गया कि मुंह बिचकाने के बजाए राहुल ने मेरी तरफ मुस्कुरा कर देखा. इससे मुझे आत्मविश्वास मिला कि मैं राहुल और कमरे में मौजूद बाकी लोगों के सामने संघ के बारे में अपने खुले विचार रख सकूं.
कई मौजूदा मामलों पर उनसे बातचीत हुई. हम 20-30 लोग थे. हम सबने अपनी मन की बात रखी और राहुल ने भी हमारे सवालों का जवाब दिया. यह बोर्ड रूम में होने वाला कोई सवाल-जवाब सेशन नहीं था. खुली बातचीत हो रही थी. बीच-बीच में राहुल हस्तक्षेप कर रहे थे और हमारी बातचीत की रफ्तार को बढ़ा भी रहे थे. कई बार उन्होंने हमसे पलट कर सवाल भी पूछे. हमने महसूस किया वे पूरा ध्यान लगा कर हमारी बातें सुन रहे हैं. हमारे सवालों और बातों को समझने की कोशिश कर रहे हैं.
देश का नेता बनने की ख्वाहिश रखने वाले किसी भी शख्स के पास दुनिया की राजनीति की समझ और एक इंटरनेशनल विजन होना चाहिए. हमने पाया कि राहुल में यह समझ है. डेढ़ घंटे की बातचीत में हमें यह पूरी तरह समझ आ गया.
एक घंटे के बाद वो मुद्दा एक बार फिर आया जिस पर मैं पहले भी अपनी राय जता चुका था. राहुल मेरी और मुड़े और कहा, आप बोलिये. इससे मुझे उनके फैसले करने के अंदाज के बारे में पता चल गया. इस बातचीत से मुझे पता चल गया कि अहम मुददों पर फैसले लेने का उनका तरीका क्या होगा. इस बातचीत में हममें से कइयों ने उन्हें राहुल कह कर बुलाया और ऐसा नहीं लगा कि उन्हें इस पर कोई एतराज था.
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आखिर में एक छोटी सी बात जिस पर शायद बाकी लोगों का ध्यान ना गया हो. टीवी पत्रकार के तौर पर अपने शुरुआती दिनों में मैने बहुत सारे सीईओ/सीएफओ को इंटरव्यू किया था. उनमें से कुछ तो पत्रकार या मेहमान को चाय तक नहीं पूछते थे. इसलिए मुझे अच्छा लगा जब कमरे में घुसते ही राहुल ने पूछा- ‘क्या मैं आप लोगों के लिए चाय मंगवा लूं?’
राहुल के साथ हंसते-खेलते फोटो खिंचवाने के साथ मीटिंग खत्म हुई.
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उस डेढ़ घंटे के आधार पर मैं राहुल को यूं बयां करूंगा- खरा-खरा, दिलचस्प, सहज और मिलनसार. महान नेता बनने से पहले किसी को अच्छा इंसान होना चाहिए. राहुल वही लगते हैं.
एक आम लड़का जिसके साथ ड्रिंक पर आप कुछ वक्त बिताना चाहेंगे (हालांकि मैं टी-टोटलर हूं). मीडिया राजनेताओं का मजाक उड़ाता है. वो राहुल के बारे में भी ऐसा करता है. लेकिन मुझे राहुल उन तमाम मजाक से अलग इंसान लगे.
(अरुण गिरी चार्टेड अकाउटेंट हैं. करीब सात साल उन्होंने एक मुख्य बिजनेस चैनल में पत्रकार के तौर पर काम किया. ये उनका निजी ब्लॉग है और इसमें लिखे विचार उनके अपने हैं. क्विंट हिंदी ना तो उनकी पुष्टि करता है और ना ही जिम्मेदारी लेता है.)
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