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प्राणप्रिये, तुम मुझे किडनी दे दो... अंगदान का बोझ उठातीं महिलाएं

आंकड़ों में यह भी पाया गया कि अंगदान करने वाले परिजनों में अधिकांश महिलाएं हैं.

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अच्छे और नेक मकसद से बनाए गए कानून कैसे समाज के किसी खास तबके लिए आफत बन जाते हैं, यह उसका सटीक उदाहरण है. 1980 के दशक में भारत में ऑर्गन ट्रांसप्लांट यानी अंग प्रत्यारोपण की लोकप्रियता बढ़ती है. लेकिन साथ ही अंगों की खरीद-बिक्री की भी बाढ़ आ जाती है.

चंद रुपए देकर गरीबों के अंग निकाल लेने या जबरन या ठगकर अंग ले लेने की घटनाएं आम होने लगती हैं. अस्पताल और डॉक्टरों की मिलीभगत से यह सब धंधा चलता है. कुल मिलाकर अंगदान के नाम पर इतनी गंदगी फैल जाती है कि आखिरकार सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है. इस तरह 1994 में भारत में पहली बार मानव अंग प्रत्यारोपण और अंगदान को नियमित करने के लिए कानून बनता है.

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इस कानून के तहत, निकट परिजनों द्वारा अंगदान को आसान बना दिया गया. परिजनों के बीच अंगदान बढ़ाने के लिए सही मकसद से यह व्यवस्था की गई है. इसके अंगों की खरीद बिक्री पर एक हद तक अंकुश लगा.

लेकिन इस कानून का एक बुरा असर भी पड़ा. इस कानून के लागू होने के बाद अंग प्रत्यारोपण में परिजनों के अंग दान की संख्या तो बढ़ी. लेकिन आंकड़ों में यह भी पाया गया कि अंगदान करने वाले परिजनों में अधिकांश महिलाएं हैं. अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, पीजीआई चंडीगढ़ और नारायणा अस्पताल, हैदराबाद से विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थाओं के शोधार्थियों ने आंकड़े जुटाए. उन्होंने पाया कि:

अंगदान करने वाले परिजनों में 85% तक महिलाएं हैं, जबकि अंग पाने वालो में सिर्फ 10% महिलाएं हैं. पति और पत्नी के बीच होने वाले अंगदान में तो 90 से 95% तक पत्नियां हैं. पति कम मामलों में ही पत्नी के लिए अंग दान करते पाए गए.

मेडिकल साइंस के जानकार बताते हैं कि किडनी की बीमारी में कोई लिंग भेद नहीं होता. किडनी खराब होने की जितनी आशंका पुरुषों में होती है, उतना ही खतरा महिलाओं को भी होता है. बीमारी की स्थिति में किडनी की जरूरत पुरुषों को होती है, तो स्त्रियों को भी होती है. लेकिन पुरुषों को परिवार के अंदर से किडनी मिलने की संभावना ज्यादा होती है और यह किडनी अक्सर किसी महिला रिश्तेदार से ली जाती है. लेकिन महिलाओं को यह प्रिविलेज हासिल नहीं हो पाता या कम होता है. परिवार के मर्द बिरले ही महिला रिश्तेदार को किडनी देने के लिए आगे आते हैं.

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अंग प्रत्यारोपण कानून लागू होने के बाद यह महिलाओं पर एक नया बोझ है, जो पहले से ही समाज में दबी-कुचली हैं और सामान्य नागरिक के अधिकार पाने के लिए संघर्षरत हैं. अंग प्रत्यारोपण कानून महिलाओं के लिए आफत बन आया है.

अंगदान करने वालों में महिलाओं की बहुलता भारतीय समाज की विशिष्ट स्थितियों के कारण है और इसमें आर्थिक पहलुओं की भी भूमिका है. महिलाएं कई बार खुद परिवार के पुरुष को बचाने के लिए अंग देने को आगे आ जाती हैं, क्योंकि परिवार में कमाने वाला अक्सर पुरुष ही होता है. इससे पता चलता है कि जेंडर के मामले में आर्थिक बराबरी अभी भी एक सपना ही है. यूरोपीय देशों में, जहां स्त्री-पुरुषों के बीच भेद कम है, वहां अंग दान के मामलों में स्त्री और पुरुष का भेद नहीं है.

ऐसे भी कई मामले सामने आए हैं और मुमकिन है कि बड़ी संख्या में ऐसे केस घर से बाहर न निकल पाते हों, जब महिलाओं ने सामाजिक-पारिवारिक दबाव के कारण अनिच्छा से किडनी या कोई अंग दिया.

अंगदान के लिए परिवार की महिलाओं की सहमति उनकी एक खास मानसिकता की वजह से भी आती है, जिसमें उन्हें बचपन से यह सिखाया जाता है कि महिलाओं को पति-भाई-बेटे के लिए त्याग करना चाहिए.

यह महिलाओं की सांस्कृतिक ट्रेनिंग का हिस्सा है. इसलिए अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि “करवा चौथ पर किडनी देकर पत्नी ने दिया पति को जीवन का उपहार.” कोई यह नहीं पूछता कि जीवन का उपहार पति अपनी पत्नी को क्यों नहीं देता. डॉक्टर हालांकि नाम नहीं बताते, लेकिन ऐसी शादियों की भी खबरें आई हैं, जिनमें ब्लड ग्रुप आदि शादी से पहले मैच कर लिया गया और पति ने शादी के बाद किडनी या कोई अंग लेकर पत्नी को तलाक दे दिया.

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आइए जानते हैं कि अंग प्रत्यारोपण कानून में वह कौन सा पेच है, जिसकी वजह से महिलाओं से अंगदान करा लेने की घटनाएं इतनी तेजी से बढ़ी हैं.

मानव अंग प्रत्यारोपण कानून 1994 और उसमें 2011 के संशोधन और इसके आधार पर बनाए गए नियमों के बाद अगर कोई जीवित व्यक्ति अंग दान करना चाहता है, तो इसकी अनुमति देने के मामले में दो कटेगरी बनाई गई है. अगर वह निकट संबंधी है तो उसके अंगदान की मंजूरी अस्पताल की ‘कंपिटेंट अथॉरिटी’ देगी.

कंपिटेंट ऑथोरिटी इस मामले में खुद अस्पताल है. अगर वह व्यक्ति निकट संबंधी नहीं है, तो ऐसे मामलों में मंजूरी सरकार द्वारा स्थापित ‘अथॉरोइजेशन कमेटी’ देगी. अथॉराइजेशन कमेटी से मंजूरी लेना एक कठिन और लंबी प्रक्रिया है. कमेटी तमाम तरह की जांच करने और संतुष्ट होने के बाद ही मंजूरी देती है, ताकि लेन-देन या दबाव वाले मामलों को खारिज किया जा सके.

कंपिटेंट अथॉरिटी चूंकि अस्पताल की ही कमेटी है और प्रत्यारोपण करने वाले अस्पताल का मुखिया या उसका नियुक्त किया हुआ व्यक्ति ही कंपिटेंट अथॉरिटी होता है, इसलिए वहां से मंजूरी लेना आसान होता है. खासकर, प्राइवेट अस्पताल और ऑर्गन ट्रांसप्लांट सेंटर का व्यावसायिक हित इस बात में है कि वहां ज्यादा से ज्यादा ऑर्गन ट्रांसप्लांट हों. ऐसे में वे इस बात की ओर शायद ही ध्यान दें कि क्या परिवार की किसी महिला पर भावनात्मक दबाव डालकर उसका अंग लिया जा रहा हो. यहां अंगदान करने वालों के हितों की रक्षा का दायित्व उस संस्था पर है, जिसका हित इस बात में है कि उसका अंग ले लिया जाए.

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इस कानून में जो धारा समस्यामूलक है, वह है अनुच्छेद 9 (3). इसमें यह लिखा है कि अगर कोई व्यक्ति चाहता है कि उसका कोई अंग उसकी मृत्यु से पहले अंग प्रत्यारोपण के लिए लिया जाए और जिसे अंग दिया जा रहा है, वह दोनों लोग अगर 'निकट संबंधी नहीं है' तो उसका अंग तब तक नहीं निकाला जा सकता है, जब तक कि ऑथोराइजेशन कमेटी इसकी मंजूरी न दे दे. यानी मौजूदा कानून ऑथोराइजेशन कमेटी की मंजूरी की जरूरत तभी मानता है, जब अंग देने और अंग पाने वाले निकट संबंधी न हों.

अगर इस एक्ट में संशोधन करके ऑथोराइजेशन कमेटी से मंजूरी को हर मामले के लिए, यानी परिजनों के लिए भी जरूरी कर दिया जाए, तो महिलाओं के हितों की रक्षा हो सकती है. परिवार के अंदर महिलाओं पर अगर अंग देने का दबाव है, तो यह बात ऑथोराइजेशन कमेटी को बातचीत के दौरान पता चल सकती है. अगर परिवार को पता हो कि मामला ऑथोराइजेशन कमेटी तक जाएगा, तो यह भी मुमकिन है कि वे खुद भी महिला परिजन पर दबाव डालने से परहेज करेंगे.

हालांकि इसमें एक समस्या यह होगी कि परिजनों के बीच अंग दान और अंग लेने की जो प्रक्रिया अब तक बेहद सरल थी, उसमें कुछ जटिलताएं आ जाएंगी और इसकी वजह से परिवार के अंदर होने वाले अंग दान में भी समय लगने लगेगा. अगर मरीज सीरियस है, तो यह समय बेहद महत्वपूर्ण हो सकता है. इसलिए कानून में बदलाव करते हुए इस बात का ध्यान रखना होगा कि साथ में एक वाजिब समय सीमा भी जोड़ी जाए, ताकि कोई समस्या पैदा न हो.

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कुल मिलाकर, अंग दान में महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव या दबाव को रोकने के लिए ये उपाय किए जा सकते हैं.

  1. मानव अंग प्रत्यारोपण कानून में संशोधन करके ऐसा प्रावधान किया जाए कि परिजनों के अंगदान की स्थिति में भी मामले को सरकार द्वारा नियुक्त कमेटी एक बार जरूर देखे और पड़ताल के बाद मंजूरी दे.
  2. परिजनों के अंग दान के मामले में यह आवश्यक बनाया जाए कि अंगदान करने वाली महिला की राय डॉक्टर जरूर पूछें. साथ ही जब यह पूछा जा रहा हो, तो कोई और परिजन मौजूद न हो.
  3. शादी के बाद अंगदान और फिर तलाक की स्थिति में यह कानूनी व्यवस्था की जाए कि जिसने अंगदान किया है, उसे भरण पोषण के लिए समुचित खर्च पति या उसके परिवार के सदस्य दें. इसके लिए कानूनी प्रक्रिया को आसान बनाया जाए. यह न हो कि जिस तरह तलाक कानूनों में महिला मेटेनेंस या हर्जाने के लिए भटकती रहती है, उसी तरह यहां भी वह भटकती रहे. अंग पाने वाले की मृत्यु की स्थिति में खर्चा देने की जिम्मेदारी अंग पाने वाले की जायदाद के वारिस पर हो.

उपाय और भी हो सकते हैं. इस पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए. लेकिन सबसे पहले तो यह स्वीकार किया जाए कि अंग देने वाले परिजनों में महिलाओं की बहुलता एक समस्या है, जिसका समाधान होना चाहिए.

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(लेखिका भारतीय सूचना सेवा में अधिकारी हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है)

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