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महात्मा गांधी के लिए 1947 की उथल-पुथल के बीच कश्मीर आशा की किरण था

जिस कश्मीर ने गांधी का स्वागत किया, पाकिस्तान के खिलाफ लड़ा, भारत में अपना भरोसा जताया, वो दिल्ली से इतना खफा क्यों?

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आज के दौर में ऐसे बहुत कम लोग होंगे, जिन्हें महात्मा गांधी को देखने का सौभाग्य मिला हो. ऐसे लोग भी कम ही होंगे जिन्होंने अपने घर में गांधी जी की अगवानी की हो और जिन्हें उनके साथ कदम मिलाकर चलने का सुअवसर मिला हो. जिसके कंधे पर उनका स्नेह भरा स्पर्श हुआ हो. बेगम खालिदा शाह को यह गौरव हासिल है, और वह उस दिन को एक अनमोल खजाने की तरह सहेजे हुए हैं.

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कश्मीर में खालिदा शाह को एक खास और इज्जतदार मुकाम हासिल है. वह शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला की बेटी हैं. जम्मू और कश्मीर के चार बार मुख्यमंत्री रहे डॉ. फारुख अब्दुल्ला की वह बड़ी बहन हैं. उनके पति गुलाम मोहम्मद शाह भी मुख्यमंत्री रहे हैं (1984-86). उनके बेटे मुजफ्फर शाह राज्य के एक बड़े नेता हैं. राजनीति उनकी नसों में दौड़ती है, और उन्हें कश्मीर के इतिहास का गहरा इल्म है. वह हमेशा बेखौफ होकर बात करती हैं, चाहे अलगाववाद और आतंकवाद का विरोध हो या जम्मू-कश्मीर के साथ केंद्र के अन्याय और वहां के लोगों के अपमान का मसला.

चिनार के पेड़ के तले

सुबह की धूप में मैं खालिदा शाह के साथ उनके घर के लॉन में बैठा हूं- चिनार के पेड़ के तले. हवा खुशनुमा और ठंडी है. सबसे पहली बात जो मुझे बहुत अच्छी लगी, वह यह कि वह अब भी कितनी तंदुरुस्त हैं. 85 साल की उम्र में उनकी चाल फुर्तीली और एकदम सधी हुई है. जब उन्होंने मीठी आवाज में बोलना शुरू किया तो मुझे महसूस हुआ कि उनकी याददाश्त कितनी अच्छी है. वह बीते जमाने की बातें याद कर रही हैं. लेकिन अब भी वे बातें कश्मीर, भारत, पाकिस्तान और पूरे उप महाद्वीप के लिहाज से प्रासंगिक हैं.

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इसकी वजह साफ है. इन घटनाओं के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति था जो अपनी जान की बाजी लगाकर सांप्रदायिक हिंसा और राष्ट्रवादी प्रतिद्वंद्विता की आग को बुझाने की कोशिश कर रहा था. इस आग की लपटें अब भी दक्षिण एशिया को झुलसा रही हैं.

खालिदा शाह ने मुझे जो कुछ बताया, उसका जिक्र वी. राममूर्ति की पुस्तक 'फ्रॉम द पेजेज ऑफ द हिंदू: महात्मा गांधी- द लास्ट 200 डेज' में भी है, जब गांधीजी कश्मीर पहुंचे थे. मैंने कश्मीर के आधुनिक इतिहास में एक अमिट यात्रा का विस्तृत चित्र प्रस्तुत करने के लिए ही इस किताब का संदर्भ दिया है.

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चलिए, यह कश्मीर के लोगों को ही तय करने दीजिए

वह शनिवार 2 अगस्त, 1947 का दिन था. महात्मा रावलपिंडी से एक दिन पहले कश्मीर पहुंचे थे. भारत को ब्रिटिश शासन से आजाद होने में एक पखवाड़ा शेष था. खुशियां अपार थीं लेकिन विभाजन का दुख भी था. खून खराबे और दुख का माहौल था. यह जम्मू और कश्मीर के इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण क्षण था, क्योंकि राज्य की किस्मत अधर में लटकी थी. मुस्लिम बहुल रियासत के हिंदू शासक महाराजा हरि सिंह क्या फैसला करेंगे? क्या वह भारत या पाकिस्तान में शामिल होंगे या आजाद रहेंगे?

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कश्मीरियों में अनिश्चितता, चिंता और यहां तक कि गुस्से की भावना भरी हुई थी. गुस्सा, क्योंकि उनके सबसे बड़े नेता को महाराजा ने जेल में डाल दिया था. अगर शेख अब्दुल्ला और कश्मीर घाटी के अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान में मिलने का फैसला करते तो हरि सिंह या नई दिल्ली में जल्द ही बनने वाली आजाद भारत की सरकार इस कदम को रोकने की ज्यादा कोशिश न करते. लेकिन यह कश्मीर के मुसलमानों का फैसला नहीं था. उनका दिल भारत की आजादी की मुहिम के साथ धड़कता था, जिसकी अगुवाई महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने की थी. नेहरू जी से तो कश्मीरियों का बहुत स्नेह था.

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मुसलिम लीग इस बात का आग्रह कर रही थी कि कश्मीर पाकिस्तान में मिल जाए. टू नेशन थ्योरी के आधार पर एक अलग मुसलिम देश के निर्माण की उसकी मांग मंजूर हो गई थी. लेकिन धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक एजेंडा पर ब्रिटिश विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का कहना था कि कश्मीर के लोग खुद अपनी नियति तय करेंगे.

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शेख अब्दुल्ला, उनकी पार्टी (नेशनल कांफ्रेंस) और उनके लोगों ने पाकिस्तान के साथ मिलने से इनकार कर दिया और कांग्रेस के साथ बने रहे. इसकी दो वजहें थीं. पहला, टू नेशन थ्योरी, यानी दो राष्ट्र का सिद्धांत कश्मीर की सदियों पुरानी सहनशीलता, और मेल मिलाप की प्रकृति के विरुद्ध था. दूसरा, गांधीजी और नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस ने जम्मू के डोगरा राजाओं के निरंकुश शासन के खिलाफ उनके संघर्ष का लगातार समर्थन किया था.

डोगरा राजा ने ही शेख अब्दुल्ला को जेल में डाला था ताकि लोग अपना भविष्य तय करने के हक से महरूम रह जाएं.

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राजा तो जनता का सेवक होता है

ऐसे नाजुक मौके पर गांधी जी ने कश्मीर जाने का फैसला किया. वह कश्मीर इसलिए नहीं गए थे ताकि लोगों से इल्तजा करें कि वे भारत में मिल जाएं. बल्कि, दिल्ली से रवाना होने से पहले 29 जुलाई को अपनी प्रार्थना सभा में उन्होंने कश्मीर पर अपने विचार साफ तौर से रखे थे:

मैं महाराजा से यह नहीं कहूंगा कि पाकिस्तान में नहीं, भारत में मिल जाएं. राज्य की असली अधिपति तो वहां की जनता है. राजा तो जनता का सेवक होता है. अगर वह यह नहीं है तो वह शासक भी नहीं है. मेरा यह दृढ़ विश्वास है और इसीलिए मैंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया- क्योंकि अंग्रेज अपने आप को भारत के शासक बताते थे और मैं उन्हें शासक मानने से इनकार करता हूं. कश्मीर में भी ताकत लोगों के पास ही है. उन्हें वही करने दीजिए जो वे करना चाहते हैं- कश्मीर में होने पर मैं कुछ नहीं करना चाहूंगा. मैं एक सार्वजनिक प्रार्थना भी नहीं चाहूंगा, हालांकि मैं ऐसा कर सकता हूं क्योंकि प्रार्थना मेरे जीवन का एक हिस्सा है.
महात्मा गांधी
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मेरे लिए स्वराज वह है जिसमें हिंदू और मुसलमान अमन-चैन से रहें

कश्मीर आने का उनका असली मकसद हिंदू और मुसलमानों, और जन्म लेने वाले दो आजाद मुल्कों के बीच शांति, एकता और दोस्ती की अपील करना था. भारत के विभाजन की आशंका के कारण पंजाब, सिंध, जम्मू, बिहार, बंगाल और अन्य जगहों पर सामूहिक हत्याएं हो रही थीं और लाखों लोगों को जबरन विस्थापित होना पड़ा था. इस बर्बरता को रोकना होगा, नहीं तो आजादी का कोई मायने नहीं रह जाएगा. शांति और सुलह के इसी मिशन के चलते उन्होंने 15 अगस्त को नई दिल्ली के समारोह की बजाय नोआखली (पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश) जाने का फैसला किया.

वह हमेशा कहा करते थे, “मेरे लिए असली स्वराज वह है, जिसमें हिंदू और मुसलमान शांति और सौहाद्र से रहें.” उन्हें कश्मीर में आशा की किरण दिखाई देती थी क्योंकि वहां कश्मीरी पंडितों को कश्मीर मुसलमानों से जिंदगी, जान और माल और इज्जत पर कोई खतरा नजर नहीं आता था.
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पूर्व में नोआखली के लिए रवाना होने से पहले, पश्चिम में कई नोआखाली भी थे- सांप्रदायिक दंगों का केंद्र जहां उनकी मौजूदगी का मरहम जरूरी था. इसीलिए वह रेल से दिल्ली से लाहौर और रावलपिंडी होते हुए कश्मीर पहुंचे और लोगों से नफरत छोड़ने और शांति बनाए रखने का आग्रह किया. उन्होंने लोगों से 15 अगस्त को शांति से मनाने का अनुरोध किया. "यह दुख का दिन था इसलिए नहीं, क्योंकि अंग्रेज जा रहे थे, बल्कि इसलिए कि वे इस देश के टुकड़े टुकड़े करके यहां से जा रहे थे."

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उन्होंने लोगों से एक खास अपील की थी: “इस दिन उपवास रखें, प्रार्थना करें और भगवान का शुक्रिया अदा करें.” ऐसी अपील क्यों? क्योंकि “यह वह समय है जब भाई भाई से लड़ रहा है, हर तरफ खाने और कपड़े की कमी है, और दोनों देशों के महानतम नेताओं ने ऐसा बोझ उठाने की चुनौती स्वीकार की है, जिससे भगवान की कृपा के बिना, सबसे मजबूत शख्स भी टूट जाएगा."

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गांधी जी को क्यों पसंद थी अबाइड विद मी

महात्मा गांधी को हेनरी फ्रांसिस लिटे की लिखी क्रिश्चियन प्रेयर गीत अबाइड विद मी इसीलिए बहुत पसंद थी?

“मेरे साथ रहो; शाम तेजी से ढल रही है;

अंधेरा घना हो रहा है; हे प्रभु मेरे साथ रहो;

जब सारे मददगार हार जाते हैं और धैर्य खोने लगता है,

बेसहारों के सहारा, ओह, मेरे साथ रहो.”

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यह भजन उनके दिल के इतना करीब था कि उन्होंने इसे सर्वधर्म प्रार्थना सभाओं में शामिल कर लिया. चूंकि यह गांधी जी का पसंदीदा था, इसलिए ‘एबाइड विद मी’ की धुन को 1950 से गणतंत्र दिवस के बीटिंग रीट्रीट समारोह में हर साल बजाया जाता था. दुखद है कि इस साल इसे हटा दिया गया. मोदी सरकार का क्या विचार शून्य फैसला है.

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शेख अब्दुल्ला के समर्थकों ने 1947 में गांधी जी का कैसे स्वागत किया

वापस 1947 की तरफ मुड़ते हैं. रावलपिंडी से गांधी जी कार से जम्मू कश्मीर राज्य की सीमा पर कोहाला पहुंचे. वह 1 अगस्त की सुबह थी. शेख अब्दुल्ला के समर्थकों ने उनका जोरदार स्वागत किया. फिर वह श्रीनगर के लिए रवाना हुए. यूं बारामूला में भी उनका भव्य स्वागत किया जाना तय था लेकिन एक छोटी कलह की वजह से लग रहा था कि वहां सब किए कराए पर पानी फिर जाएगा. वहां पाकिस्तान समर्थक समूह मुसलिम कांफ्रेंस के सदस्यों में गांधी के आगमन पर नाराजगी थी. यह गुट नेशनल कांफ्रेंस से अलग हो गया था.

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लेकिन जब शाम को महात्मा गांधी का छोटा सा दल श्रीनगर पहुंचा तो कोई विरोध प्रदर्शन नहीं हुआ. खालिदा शाह याद करती हैं, ''उनका स्वागत खुशी-खुशी करने के लिए हजारों की संख्या में लोग सड़क के दोनों किनारों पर खड़े थे. मैं वहां अपनी अम्मी के साथ गई थी. मेरी अम्मी ने सबसे पहले माला पहनाकर उनका स्वागत किया और कश्मीर में उनके सुखद सफर की ख्वाहिश जताई. उनके ठहरने का बंदोबस्त हवाई अड्डे के पास खोरशेद बाग में किया गया था. यह मशहूर कारोबारी किशोरीलाल सेठी का घर था. सफर की वजह से वे थोड़ा थके हुए थे लेकिन उनके 'दर्शन' के लिए भीड़ उमड़ रही थी.

उन्होंने कहा, “मैं कश्मीर के लोगों और बेगम शेख अब्दुल्ला से मिलने आया हूं. शेख अब्दुल्ला एक सत्याग्रही हैं. मेरा इरादा भारत बनाम पाकिस्तान की बहस में हिस्सा लेना नहीं है. पाकिस्तान जल्द ही एक सच्चाई होगा. हमारे दोनों देशों को भाइयों की तरफ शांति से रहना चाहिए.”
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महात्मा ने कई मौकों पर शेख अब्दुल्ला के बारे में खुलकर बात की थी. क्यों? क्योंकि "वह वास्तव में कश्मीर के शेर हैं. उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है, और सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि उन्होंने इस दौरान सभी हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों का दिल जीता है. वह उन सबको अपने साथ लेकर चलते हैं और ऐसा कुछ नहीं करते जिससे वे नाखुश हों.”

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सच्चा सत्याग्रही कभी हार नहीं सकता

कश्मीर में गांधी जी की पहली प्रार्थना सभा 2 अगस्त की शाम को हुई थी. इसमें करीब 20 हजार लोगों ने हिस्सा लिया. खालिदा शाह याद करती हैं, "प्रार्थना सभा में मेरी अम्मी ने पवित्र कुरान की आयतें सुनाईं. भगवद गीता का मधुर पाठ भी हुआ. इसके बाद पारसियों के पवित्र ग्रंथ के कुछ भजन गाए गए."

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"क्या आपको याद है कि उन्होंने प्रार्थना सभा में अपने संबोधन में क्या कहा था?" मैंने उससे पूछा. "उन्होंने इस अवसर पर बात नहीं की क्योंकि बारिश शुरू हो गई थी," खालिदा शाह को सब याद है, "केवल आम प्रार्थना थी, और बैठक खत्म हो गई."

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अगले दिन दोपहर को गांधी जी मुजाहिद मंजिल गए. यह नेशनल कांफ्रेंस का मुख्यालय था. वहां भी उन्होंने कोई भाषण नहीं दिया, क्योंकि भीड़ उनकी एक झलक पाने के लिए बेकाबू हुई जा रही थी. लोग चिल्ला रहे थे, महात्मा गांधी की जय, और शेख अब्दुल्ला जिंदाबाद!

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खालिदा शाह का सबसे यादगार पल वह था, जब गांधी जी सौरा के उनके पुश्तैनी घर में आए थे. यह लाल चौक से कोई आठ किलोमीटर दूर था. उनके बेटे ने उस मुलाकात की तस्वीरें बहुत गर्व से मुझे दिखाईं. इस तस्वीर में महात्मा गांधी एक हाथ बेगम अब्दुल्ला के कंधे पर रखे हुए हैं, और उनका दूसरा हाथ छोटी सी खालिदा के कंधे पर है. खालिदा याद करती हैं, “उन्होंने मेरे अब्बा की कैद के लिए हमारे परिवार और जम्मू कश्मीर के लोगो से हमदर्दी और एकजुटता जताई. उन्होंने भरोसा जताया कि मेरे अब्बा को जो जुल्म सहने पड़ रहे हैं, वे बेकार नहीं जाएंगे. कोई सच्चा सत्याग्रही कभी हार नहीं सकता.”

गांधी जी ने क्यों कहा था कि, “अगर मुझे उम्मीद की किरण दिखती है तो वह कश्मीर है.” मैंने खालिदा शाह से पूछा. “वजह साफ है. जब अविभाजित भारत के कई दूसरे हिस्सों में सांप्रदायिक आग भड़क रही थी तो किसी ने श्रीनगर या किसी और जगह कश्मीर पंडितों को नहीं छुआ. मेरे अब्बा की हिदायत के बाद नेशनल कांफ्रेंस के तीन वॉलियंटियर्स हर कश्मीरी पंडित के घर के बाहर तैनात हो गए.”
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खालिदा शाह कहती हैं, गांधी जी को ताम झाम पसंद नहीं था

महात्मा का उन पर कैसा असर हुआ? बिना रुके वह जवाब देती हैं: “मै तब छोटी थी और सियासत के बारे में ज्यादा नहीं जानती थी. हां, मैं कह सकती हूं कि उनकी दो बातें मैं कभी नहीं भूल सकती. पहला, वह ताम झाम पसंद नहीं करते थे- दिखावा उन्हें नापसंद था. उन्हें प्रोटोकॉल भी पसंद नहीं था. वह आम इनसान को भी वही इज्जत देते थे, जैसी इज्जत किसी राजा के नुमाइंदे को देते थे. दूसरा, वह सभी धर्मों का सम्मान करते थे और सभी के लिए प्यार और शांति से बात करते थे. इसीलिए कश्मीरी लोग उन्हें नेता नहीं, संत मानते थे.

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फिर उन्होंने एक खास कमेंट किया, “गांधीजी बहुत गंभीर और चिंतित दिख रहे थे. उन्हें पहले ही मालूम चल चुका था कि आगे क्या होने वाला है.”

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जब 14-15 अगस्त को आजादी मिली, तो महाराजा ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने से इनकार कर दिया. दो महीने के भीतर, पाकिस्तान समर्थित कबायलियों ने कश्मीर पर धावा बोल दिया. घबराहट में हरि सिंह श्रीनगर से जम्मू भाग गए, जहां उन्होंने भारत में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किए. भारतीय सेना कश्मीर पहुंच गई. भारत और पाकिस्तान के बीच लड़ाई शुरू हो गई. कई लड़ाइयों में से पहली लड़ाई. कश्मीर के लोगों ने कबायलियों को चेतावनी देकर भारतीय सेना की सहायता की - "हमलावर खबरदार हम कश्मीरी हैं तैयार".

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इसके कुछ ही महीने बाद 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा की हत्या कर दी.

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खालिदा शाह ने कहा, "जब उनकी हत्या की खबर आई तो मैं टूट गई." मेरी अम्मी-अब्बू और हमारे परिवार में सभी लोग भी. पूरी घाटी में शोक छा गया.”

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गांधी जी का भारत आज कहीं खो गया है

उन दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं को गुजरे सत्तर साल हो चुके हैं और तब से कश्मीर में और भी तकलीफदेह हादसे हुए हैं. इतने सालों में कश्मीर में क्या बदला है? मैंने खालिदा शाह से पूछा. "क्यों वही कश्मीर, जिसने महात्मा गांधी का इतने सम्मान से स्वागत किया, वही कश्मीर जो पाकिस्तान के कबायलियों के खिलाफ लड़ा, वही कश्मीर जिसने भारत में अपना विश्वास जताया, वह कश्मीर आज नई दिल्ली से इतना नाराज है?"

"मेरे अब्बू ने महात्मा गांधी के भारत में, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत में अपना भरोसा जताया था," वह कहती हैं, "बदकिस्मती से दिल्ली के शासकों ने ऐसा बर्ताव किया है कि कश्मीरी लोगों का विश्वास उठ गया है."
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(लेखक ने भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक के तौर पर कार्य किया है. वह ‘फोरम फॉर अ न्यू साउथ एशिया- पावर्ड बाय इंडिया-पाकिस्तान-चीन कोऑपरेशन’ के संस्थापक हैं. वह ‘म्यूजिक ऑफ द स्पिनिंग व्हील: महात्मा गांधीज़ मेनीफेस्टो फॉर द इंटरनेट एज’ लिख चुके हैं. @SudheenKulkarni लेखक का ट्विटर हैंडल है और उनका ईमेल एड्रेस sudheenkulkarni@gmail.com है.)

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