हरिद्वार में मुस्लिमों और ईसाइयों के खिलाफ नफरत भरे भाषणों के सिर्फ कुछ हफ्ते बाद ही, ऐसे समय में जब भारत में गो मांस ले जाने के शक में मुस्लिमों और दलितों को पीट-पीट कर मार डाला गया हो और कुछ मामलों में देश की सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों की ओर से इसके आरोपियों को सम्मानित किया गया था, कुछ ही महीनों के दौरान दूसरी बार मुस्लिम महिलाओं की ऑनलाइन नीलामी किए जाने के बाद और जब अलग-अलग राज्यों में ईसाइयों के सम्मेलन पर और पूजा स्थलों पर हमले हो रहे हैं, दिल्ली में वार्षिक बीटिंग रिट्रीट समारोह से ‘एबाइड विद मी’ को हटाना मामूली बात की तरह लग सकती है. लेकिन ऐसा नहीं है.
बीटिंग रिट्रीट एक सार्वजनिक कार्यक्रम है, जिसमें भारत की सेनाओं के जवान अपने खुद के बैंड के संगीत पर मार्च करते हैं. हर साल, महात्मा गांधी के पसंदीदा भजनों में से एक- अबाइड विद मी की धुन भी बजाई जाती थी. जो सेनाओं के जोशीले प्रदर्शन के बीच शांति और सुकून के कुछ लम्हे लेकर आती थी.
जब उत्पीड़ित ही उत्पीड़क बन जाता है
ये तर्क दिया जा सकता है कि एक परेड के दौरान, जो साफतौर पर अहिंसा के बारे में नहीं है, अहिंसा के दूत का पसंदीदा भजन बजाना एक विडंबना है. हालांकि, ये अच्छे से सोचा हुआ, विचारशील तर्क उन लोगों का नहीं है जो एबाइड विद मी पर कैंची चलाने का समर्थन करते हैं.
उनका कहना है कि ये गाना एक ‘औपनिवेशिक विरासत’ है और इसे हटाने का फैसला आधुनिक भारत को इसके ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से अलग करने की कोशिश है. यहां संदर्भ इस तथ्य का है कि एबाइड विद मी 19वीं शताब्दी के एंगलिकन मंत्री हेनरी फ्रांसिस लाइट ने लिखा था, जो स्कॉटलैंड के एक नागरिक थे.
बेशक, जो लोग इस तर्क का समर्थन करते हैं कि वो अपने रुख में विरोधाभास पर गौर नहीं करते हैं, ये देखते हुए कि बीटिंग रिट्रीट समारोह अपने आप में एक औपनिवेशिक विरासत है, जिसे संरक्षित करने में ये सरकार खुश है और उनमें से कई अंग्रेजी में अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं, जो कि उपनिवेश काल में ब्रिटिश विस्तारवाद के फलस्वरूप दुनियाभर में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है.
सच्चाई, जैसा कि हम सब जानते हैं, ये है कि उत्पीड़ित लोग उत्पीड़न से बचने के बाद ये चुनते हैं कि क्या रखना है और क्या हटाना है.
ये एक अलग ही चर्चा है. इस कॉलम में चलिए हम मौजूदा सरकार के समर्थकों की उस साधारण सी - परिभाषा को परखते है जिसमें वो अबाइड विद मी को एक रणनीति के तहत “औपनिवेशिक विरासत” बताते हैं.
‘हिंदुओं, अंग्रेजों से लड़ने में अपनी ऊर्जा बरबाद न करें’: आरएसएस
भारतीय जनता पार्टी (BJP) जिसकी अभी केंद्र में सरकार है, के वैचारिक जनक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के संस्थापकों ने अपने शुरुआती दिनों से ही ईसाइयों को उन तीन समूहों में एक के तौर पर माना था, जिन्हें वे भारत का मुख्य दुश्मन मानते थे.
भारतीय स्वतंत्रता सेनानी जहां ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को भारत से बाहर कर, स्व-शासन स्थापित करना चाहते थे, वहीं आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर को ये कहते हुए सुना गया था कि: “हिंदुओं, अपनी ऊर्जा को अंग्रेजों से लड़ने में बरबाद न करें, अपनी ऊर्जा को हमारे आंतरिक दुश्मन जो कि मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी हैं उनसे लड़ने के लिए बचा कर रखें.”
खुल कर या चोरी छिपे भारतीय मुसलमान अल्पसंख्यकों को हाशिए पर लाने या उत्पीड़न को स्वतंत्र विश्लेषकों ने व्यापक तौर पर दर्ज किया है.
देश के ईसाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ प्रचार – जिसमें 1990 के दशक तक उत्तर में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री ने भी कम मदद नहीं की – को अब तक ठीक से समझा नहीं गया है.
भारतीय ईसाइयों को बदनाम करने की एक और कोशिश
आजादी के बाद से ही भारतीय ईसाइयों को औपनिवेशिक युग के अवशेषों, उपनिवेशवादियों और देशद्रोहियों के वंशज, जिन्होंने अवसरवादी कारणों से हिंदू धर्म छोड़ दिया, के तौर पर दिखाने की मजबूत कोशिश की गई. साथ ही ईसाई धर्म को एक पश्चिमी धर्म के रूप में दिखाया गया, जो साम्राज्यवादियों के साथ भारत आया था. इन झूठों को फैलाने वाली सामाजिक-राजनीतिक ताकतों ने भारतीय इतिहास में सबसे सफल प्रचार अभ्यासों में से एक को अंजाम दिया है, यहां तक कि कई बुद्धिजीवी भारतीय भी कम से कम उनके कुछ दावों पर भरोसा करने लगे.
तथ्य: जीसस क्राइस्ट एक ऐतिहासिक व्यक्ति हैं जो एशियाई मूल के थे, न कि पश्चिमी देश के. तथ्य: ईसाई धर्म पहली बार करीब 1500 साल पहले भारतीय तटों पर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के आने से पहले आया.
एक तर्कसंगत दुनिया में, इनमें से कोई भी तथ्य मायने नहीं रखना चाहिए क्योंकि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में, सभी नागरिकों को अपना धर्म चुनने की आजादी होनी चाहिए – चाहे एशियाई हो या पश्चिमी मूल का – चाहे कोई भी कारण से वो उस धर्म को पसंद करें और जब भी वो इस धर्म को पसंद करना चाहें. और वास्तव में ऐसे भी भारतीय ईसाई समुदाय भी हैं जो ज्यादा पुराने नहीं हैं. इतिहास के इन पहलुओं पर जोर देने का एकमात्र कारण ये है कि भारतीय दक्षिणपंथ ने भारत के ईसाई अल्पसंख्यकों को बदनाम करने के लिए इन वास्तविकताओं को मिटाने की हर संभव कोशिश की है और करनी जारी रखी है.
अबाइड विद मी को एक “औपनिवेशिक” भजन का दर्जा देना इसी कोशिश का एक हिस्सा है, प्रचार का एक सोचा समझा हिस्सा, जिसने भारतीय ईसाइयों को बदनाम करने में योगदान दिया है.
अबाइड विद मी सभी धर्मों के लिए सार्वभौमिक है
अपने मूल में अबाइड विद मी एक ईसाई भजन है, एक औपनिवेशिक भजन नहीं, अर्थ के हिसाब से ये सभी धर्मवादियों के लिए सार्वभौमिक है और अगर कोई सच में इसके खिलाफ तर्क दे सकता है, तो वो हैं नास्तिक और अज्ञेयवादी. लेकिन निश्चित तौर पर, वे बीटिंग रिट्रीट समारोह से अबाइड विद मी को बाहर करने के पक्ष में नहीं हैं.
लाइट एक ईसाई थे, जो स्कॉटलैंड के थे और उनके गीत जीवन और मृत्यु दोनों में सर्वोच्च शक्ति के प्रति निकटता को लेकर है. अबाइड विद मी पूरे भारत में ईसाई अंत्येष्टि में गाया जाता है, ये भारतीय ईसाइयों द्वारा अपनी मूल भाषा और भारतीय भाषा के संस्करणों में भक्ति के साथ गाया जाता है. इसे गैर ईसाई धर्मों के लोग भी गाते हैं, जो इसके अर्थ से खुद को जोड़ पाते हैं और आस्तिक और नास्तिक दोनों तरह के लोग भी गाते हैं, जो इसकी जबरदस्त कविता और संगीत को पसंद करते हैं. हालांकि, इसे “औपनिवेशिक” के रूप में बताना, उपनिवेशवादियों के साथ ईसाई मूल की हर चीज से जोड़ने की लंबे समय से चली आ रही रणनीति का विस्तार है, ताकि विस्तार और उकसावे से भारत के ईसाई अल्पसंख्यक भी, लोगों के जनमानस में उपनिवेशवादियों के बराबर हो जाएं.
जैसा कि हम जानते हैं, अबाइड विद मी भजन में “जीसस” या “क्राइस्ट” शब्द नहीं है, जो कि इसे ईश्वर में विश्वास करने वाले के लिए प्रासंगिक बनाता है, चाहे उसका धर्म कोई भी हो. इसलिए, इस हफ्ते टीवी चैनलों पर एक प्रतिक्रिया सुनकर हैरानी हुई जिसमें ये कहा गया कि अबाइड विद मी में एक शब्द “लॉर्ड” का जिक्र इसे एक धर्मनिरपेक्ष देश में, एक सरकारी समारोह में जगह बनाने के लिए ज्यादा ही ईसाई बना देता है.
“लॉर्ड” एक सामान्य अंग्रेजी शब्द है, ये ईसाई धर्म के लिए खास नहीं है और आमतौर पर अंग्रेजी बोलते समय अलग-अलग धर्मों का पालन करने वाले इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं. लॉर्ड राम, लॉर्ड कृष्ण, लॉर्ड बुद्ध, लॉर्ड जीसस क्राइस्ट.
अबाइड विद मी की सार्वभौमिकता से नकारना, आश्चर्य की बात नहीं है कि एक ऐसे राजनीतिक दल की ओर से आती है जिसने बार-बार कई सालों से गांधी को कमजोर करने के लिए चुना है.
कैसे गांधी की शिक्षाएं हिंदू धर्म तक सीमित नहीं थीं
अबाइड विद मी के लिए महात्मा गांधी का प्यार, उनकी जागरूकता और दृढ़ विश्वास इस बात का एक संकेत है कि एक धर्म को मानने के कारण अन्य धर्मों की शिक्षा को अपनाने और/या उसकी शिक्षा का लाभ उठाने की संभावना को रोकता नहीं है. गांधी एक समर्पित हिंदू थे जिनका सत्याग्रह और अहिंसा का रास्ता कई स्रोतों से और बहुत महत्वपूर्ण रूप से जीसस क्राइस्ट के उपदेशों से प्राप्त हुआ था.
“अगर कोई आपके दाहिने गाल में थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल भी उसके आगे कर दें” इस कथन का श्रेय कुछ भारतीय गलती से महात्मा गांधी का देते हैं लेकिन ये बाइबल (मैथ्यू: चैप्टर 5, वर्स 38-42) के द सर्मन ऑन द माउंट में जीसस के उपदेशों से आया था.
‘20वीं सदी का सबसे महान ईसाई’
क्राइस्ट के बारे में गांधी की समझ बहुत ही गहरी थी. महान अमेरिकी नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, रेवरेंड मार्टिन लूथर किंग जूनियर के अधिकृत तौर पर कहे एक बयान से इसका पता चलता है. मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था कि उन्होंने हमेशा महसूस किया था कि जीसस का प्रस्तावित अहिंसा का ये विशेष रूप केवल अंतर-व्यक्तिगत संबंधों के लिए उपयोगी था, जब तक गांधी के काम ने उन्हें ये नहीं सिखाया की जन आंदोलनों में भी इसका अत्यधिक व्यावहारिक मूल्य था.
उन्होंने कहा था, “क्राइस्ट ने हमें रास्ता दिखाया और भारत में गांधी ने दिखाया कि ये काम कर सकता है.”
जीसस के एक और उद्धहरण- “मेरे पास दूसरे धर्मसंघों में भी भेड़े हैं (जॉन: चैप्टर 10, वर्स 16)”- ज्यादातर इसका अर्थ ये समझा जाता है कि “ईसाई” केवल उस व्यक्ति को दर्शाता है जो क्राइस्ट के मूल्यों को साझा करता है चाहे उसका बैपतिस्मा हुआ हो या नहीं- का जिक्र करते हुए किंग एक कदम और आगे बढ़ गए ये ऐलान करने के लिए कि “आधुनिक दुनिया की ये एक अजीब विडंबनाओं में एक है कि 20वीं शताब्दी का सबसे महान ईसाई ईसाई चर्च का सदस्य नहीं था.”
भारत से इतनी दूर एक ईसाई पादरी ये कह सका कि वो क्राइस्ट को भारत के एक धर्मनिष्ठ हिंदू की वजह से बेहतर तरीके से समझ सका, ये सभी भारतीयों, हिंदुओं और गैर हिंदुओं के लिए एक सम्मान की बात है. हालांकि, इस सम्मान को स्वीकार करने के लिए भारत के सबसे सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी महात्मा गांधी पर हिंदू धर्म के अलावा दूसरे धर्म के प्रभाव को भी मानना होगा.
लेकिन ऐसा करना मौजूदा बहुसंख्यक शासक पार्टी के लिए एक बड़ी मुश्किल होगी जो एक वैचारिक वर्ग से संबंधित है, जो भारत को एक ऐसे देश में बदलना चाहता है जहां हिंदू धर्म की प्रधानता हो और धार्मिक अल्पसंख्यक एक अधीनस्थ स्थिति पर काबिज हों.
कौन, वास्तव में, आज एक ‘भारतीय’ है?
जिस विषय से ये कॉलम शुरू हुआ था, उस पर लौटने के लिए, इस साल के बीटिंग रिट्रीट समारोह से अबाइड विद मी को निकालना कोई छोटा मुद्दा नहीं है.
ऐसे समय में जब धार्मिक अल्पसंख्यकों पर भारत में काफी हमले हो रहे हैं, इस कदम को भारत के ईसाई अल्पसंख्यक के जान-बूझकर अपमान के रूप में नहीं देखा जा सकता है, जो देश की आबादी का सिर्फ 2.3 फीसदी है. ये मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों और अन्य सभी अल्पसंख्यक समुदायों के लिए एक और संदेश है कि भारतीय के रूप में किसकी गिनती होती है, ये कौन परिभाषित करता है.
(ऐना एम वेट्टिकाड एक पुरस्कार विजेता पत्रकार और द एडवेंचर्स ऑफ एन इंट्रिपिड फिल्म क्रिटिक की लेखिका हैं. उनसे ट्विटर पर @annaveticad, इंस्टाग्राम पर @annammveticad और फेसबुक पर AnnaMMVetticadOfficial पर संपर्क किया जा सकता है. इस आर्टिकल में छपे विचार लेखिका के अपने हैं. इसमें क्विंट का सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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