क्योंकि पवित्र संस्था कहने से ही शादी में अन्याय की गुंजाइश बढ़ जाती है. आशा और आशंका के बीच विवाह में प्रेम की तलाश की जा रही है. विवाह में बलात्कार पर बहस छिड़ी है. किसी को आशा है कि आईपीसी की धारा 375 के विवाह में बलात्कार वाले अपवाद 2 को खत्म कर दिया जाएगा. दूसरी तरफ किसी को आशंका है कि इस अपवाद को खत्म करने से शादी नाम की संस्था की चूलें हिल जाएंगी. आशा और आशंका के दो समूह कानून के गलियारों में घूम रहे है. इस बीच एक नया मौका तलाशा जा सकता है- शादी नाम की संस्था को नए सिरे से परिभाषित करने का. एक ऐसी जेंडर निष्पक्ष दुनिया का सफर जहां साहचर्य और प्रेम की परिभाषा इस कथित पवित्र संस्था का पर्याय न हो.
शादी देह की राजनीति ही है
यूं शादी देह की राजनीति से इतर कुछ नहीं रही है. या यूं कहें देह के जरिए राजनीति करने का मंच है. अमेरिकी इतिहासकार मार्गेट आर हंट ने अपने एक पेपर 'कॉमर्स, जेंडर एंड द फैमिली इन इंग्लैंड' में लिखा है कि शादी दरअसल संपत्ति, व्यवसाय, व्यक्तिगत संपर्कों, धन-दौलत, मवेशियों और औरतों को हस्तांतरित का एक तरीका होता था. अंग्रेजी का शब्द ‘हस्बैंड’ खेती से बना है, यानी जो जमीन का स्वामी है और उसे जोतता है. एनिमल हस्बैंडरी यानी पशुपालन भी वहीं से निकला है. जो औरत का पालक है, वही हैस्बैंड है.
ये परिभाषाएं और विवाह की उत्पत्ति की कहानी इस बात को साबित करती हैं कि औरतों को संपत्ति माना जाता था, इसलिए उनका अपनी देह और अस्तित्व पर कोई हक नहीं होता था. यह वह दौर था, जब राजाओं की ढेरों रानियां होती थीं. हर सभ्यता का इतिहास इसका गवाह है.
कानून के इतिहास में ‘कवरचर’ के सिद्धांत को खूब शोहरत मिली है, जिसकी उत्पति तो इंग्लैंड में हुई लेकिन बाद में यह सभी जगह पहुंच गया. इसका मतलब ऐसी शादीशुदा औरत है जिसका लीगल दर्जा पति में समाहित हो चुका है. आईपीसी में मैरिटल रेप वाला अपवाद इसी पर आधारित है कि बीवी की सहमति के कोई मायने नहीं हैं. चूंकि शादी में प्रेम की अवधारणा तब होती ही नहीं थी. प्रेम की अवधारणा, कमोबेश नई ही है.
17-18वीं शताब्दी में कांट, डेविड ह्यूम्स, रूसो, वॉल्टेयर जैसे दार्शनिकों ने जिंदगी को खुशी की खोज बताया और इस बात की हिमायत की कि दौलत या हैसियत के लिए नहीं, प्यार के लिए शादी की जानी चाहिए. लेकिन, इसके बावजूद औरतों की स्थिति में बहुत फर्क नहीं आया.
या सेक्सुएलिटी के जरिए जाति, धर्म के आधार पर भेदभाव करने का तरीका
अपने यहां यह जाति व्यवस्था को मजबूत करने के लिए इस्तेमाल किया गया. शादी एक संस्था के रूप मे पवित्रता की धारणा को प्रचारित करने का उपकरण बनी जोकि धर्म, जाति, जेंडर और सेक्स के आधार पर भेदभाव को औपचारिक मान्यता देती है. इसीलिए अपनी जाति, समुदाय और धर्म के बाहर शादियां करने पर पाबंदी थी क्योंकि सेक्सुएलिटी का इसका इस्तेमाल करके जाति और वर्ग व्यवस्था को पोषित किया जाता था.
जातिगत और धर्म आधारित बंटवारा, पितृसत्ता की खासियत है क्योंकि वह एक समूह को हाशिए पर फेंकता है और उसके दमन के जरिए दूसरे समूह को ताकत के दुरुपयोग की खुशी देता है.
क्योंकि शक्ति संतुलन में औरतों का पलड़ा कमजोर रहता है
यह भेदभाव आज तक कायम है. क्योंकि कानून बनाने वाले चाहे अंग्रेज रहे हों, चाहे खुद भारतीय, औरतों के लिए बैलेंस ऑफ पावर हमेशा गैर अनुपातिक, यानी डिसप्रपोशनेट ही रहता है. जैसे तीन तलाक को लेकर कितना ही बवाल हुआ लेकिन सिर्फ तलाक लेने के लिए ही नहीं, बच्चों की कस्टडी, कारोबार या जमीन जायदाद पर अपने हक के लिए औरतों को कितने ही संघर्ष करने पड़ते हैं.
यहां तक सेक्यूलर कानून कहलाने वाला स्पेशल मैरिज एक्ट, 1954 भी किसी से कम नहीं है. इसमें भी तमाम झोल हैं. स्पेशल मैरिज एक्ट कहता है कि अगर अविभाजित संयुक्त परिवार का कोई हिंदू व्यक्ति इस कानून के तहत शादी करता है तो वह अपने परिवार से अलग हो जाता है. इसलिए एक तरह से वह पुश्तैनी संपत्ति से भी महरूम हो जाता है. इस लिहाज से हिंदू परिवारों को अपनी बेटियों को संपत्ति से अलग करने का अच्छा रास्ता मिल जाता है.
जिस कॉन्जुगल राइट्स, यानी घर साझा करने के अधिकार की बात विवाह में बलात्कार वाले मामले में भी की गई, वह भी महिलाओं के साथ भेदभाव ही करता है. सुप्रीम कोर्ट एक मामले में कह चुका है कि एक साथ रहने, यानी घर साझा करने का अधिकार महिला और पुरुष दोनों को है. यह कानून जेंडर न्यूट्रल लगता है क्योंकि पति और पत्नी, दोनों एक घर में रहने के अधिकार को बहाल कर सकते हैं. लेकिन यहां भी औरतें ही प्रभावित होती हैं. चूंकि इस प्रावधान के तहत औरतों को मैरिटल घर में रहने को मजबूर किया जा सकता है, और चूंकि, विवाह में बलात्कार कोई अपराध नहीं तो उन्हें जबरदस्ती, उत्पीड़न का शिकार बनाया जा सकता है. यहां तक कि बाल विवाह जैसे कानून में भी विवाह उस स्थिति में कानूनी बन जाता है, जब लड़की या लड़का 18 साल के होने के बाद उसे अमान्य घोषित करने के याचिका दायर नहीं करते.
जरूरत है कि शादी की नई परिभाषा रची जाए
ऐसे में यह सवाल बार-बार पूछा जाता है कि जिस संस्था में भेदभाव और हिंसा का एक लंबा इतिहास हो, उसमें कानून के जरिए जैसे समावेश किया जा सकता है. और यह समावेश भी आसान नहीं है. क्योंकि इसका मतलब यह नहीं कि इस व्यवस्था में भेदभाव और हिंसा से खुद ब खुद मुक्ति मिल जाएगी. इसीलिए शादियों को रीडिफाइन यानी नए सिरे से परिभाषित किया जा रहा है. जिसमें पति पत्नी की बजाय पार्टनर बना जाए. साथी बना जाए.
सेम सेक्स मैरिज या लैवेंडर मैरिज इसके नए उदाहरण हैं, जैसा कि बधाई दो जैसी फिल्म में देखा जा सकता है. पेरेंटहुड की भी नई परिभाषा रची जा रही है. ऐसा नहीं है कि ये नियम हो जाए, लेकिन गुंजाइश कुछ बढ़ सकती है. शादी की नई परिभाषा का मतलब, पुरानी को कमजोर करना नहीं है, बल्कि उसका दायरा बढ़ाना है. सेक्शन 377 वाला मामला इसी बढ़ते दायरे की शुरुआत है.
1984 में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कुछ खास इनटिमेट ह्यूमन रिलेशनशिप्स को राज्य के दखल से दूर रखा जाना चाहिए क्योंकि हमारे संविधान में व्यक्तिगत आजादी की सुरक्षा भी मायने रखती है. ऐसी आजादी की बात 2018 में हादिया मामले में भी भारत के सुप्रीम कोर्ट ने दोहराई थी. शफीन जहां से उसके संबंध पर कोर्ट ने कहा था कि संविधान हर व्यक्ति के मामले में स्वतंत्रता और स्वायत्तता को मान्यता देता है. 2018 में ही सर्वोच्च न्यायालय व्यभिचार को अपराध बनाने वाले आईपीसी के सेक्शन 497 को भी असंवैधानिक बता चुका है, और कह चुका है कि औरत पति की प्रॉपर्टी नहीं है. उसकी सेक्सुएलिटी पर नियंत्रण किसका हो, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं. तो, इसी लिहाज से शादी की नई परिभाषा रची जा सकती है, जो हरेक शख्स की अपनी हो, और जिसमें दोनों पार्टनर्स का अपना अस्तित्व बना रहे.
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)