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बिहार: 16 की हुई JDU सरकार, विकास के एजेंडे पर चले फिर कैसे राह भटके नीतीश कुमार

Nitish Kumar के 16 साल के शासन में Bihar ने क्या खोया-क्या पाया?

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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) देश के कुछ चुनिंदा नेताओं में से हैं जो लंबे समय तक सत्ता में बने रहे हैं. उनकी यह उपलब्धि और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वे अपनी जाति (कुर्मी) के मात्र चार प्रतिशत वोटरों के सपोर्ट की बदौलत लम्बे समय से सत्ता में बने हैं. 24नवंबर को वे अपने कार्यकाल का 16 वाँ साल पूरा कर चुके. और इस तरह वे अब बिहार के लांगेस्ट सर्विंग मुख्यमंत्री बन चुके हैं.

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उनके लंबे कार्यकाल पर राजनीतिक विश्लेषकों की अपनी अलग-अलग राय है, लेकिन सभी इस बात पर सहमत हैं कि नीतीश का पहला कार्यकाल (2005-2010) बिहार के लिए काफी उपलब्धि भरा रहा, लेकिन उसके बाद नीतीश अपने रास्ते से भटक गए. दूसरे कार्यकाल में उनपर ‘नेशनल एम्बिशन’ (प्रधान मंत्री बनने की इच्छा) का हावी होना, नरेंद्र मोदी के एनडीए का नेता चुने जाने के बाद बीजेपी से अपना 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ना, 2014 के लोक सभा चुनाव में अपनी पार्टी JDU की शर्मनाक परफॉरमेंस के बाद दलित नेता जीतन राम मांझी को अपना गद्दी सौंपना, 9 महीने बाद मांझी को धकियाकर सत्ता से हटाने के बाद पुनः मुख्यमंत्री बनना और फिर अपने धुर-विरोधी राष्ट्रीय जनता दल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव से हाथ मिलाना, ये कुछ ऐसे कदम थे जिससे नीतीश की काफी किरकिरी हुई.

आज नीतीश पुन एनडीए के साथ हैं और कभी अपने घोर विरोधी रहे मोदी के बल पर राज्य की सत्ता में बने हुए हैं. लेकिन बिहार उनके 16 साल के शासन में कितना आगे बढ़ा है ये बड़ा सवाल है. अपनी हालिया रिपोर्ट में नीति आयोग ने स्वास्थ्य व्यवस्था के क्षेत्र में बिहार को “फिसड्डी” बताया है. नीति आयोग की रिपोर्ट के मुताबिक, बिहार में प्रत्येक एक लाख की आबादी पर सिर्फ 6 बेड मौजूद हैं.

16 साल में क्या किया?

इतना ही नहीं, 16 साल के बाद आज भी नीतीश सरकार ग्लोबल इन्वेस्टर्स को लुभाने के लिए तरह-तरह के वायदे ही कर रहे हैं. नए उद्योग के लगने की तो बात ही छोड़ दीजिये, बिहार में बंद पड़े 29 चीनी मीलों को भी नीतीश खुलवा न सके, जबकि यह उनकी पार्टी और गठबंधन के चुनावी वायदे में सबसे ऊपर था.

प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक और इंडियन एक्सप्रेस के असिस्टेंट एडिटर संतोष सिंह कहते हैं,

"लालू प्रसाद के शासनकाल से नीतीश का शासनकाल वाकई बढ़िया दिखता है, लेकिन पूर्व मुख्य मंत्री श्रीकृष्ण सिंह के सामने वे कहीं नहीं टिकते." श्रीकृष्ण सिंह 11 साल 5 दिन तक सत्ता में रहे और उनका कार्यकाल बिहार के लिए काफी गौरवशाली माना जाता है.
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वे कहते हैं, "नीतीश अपने पहले के शासनकाल में काफी बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे. उनका ध्यान बिहार को एक इंडस्ट्रियल हब बनाने पर था. इसके लिए उन्होंने कई ग्लोबल मीट भी करवाए, कई उद्योगपतियों से खुद मुलाकात की, लेकिन आज वे केवल 'सात निश्चय' और बिजली सुधारने की बातें करते हैं. यूं कहें कि रसगुल्ला खाने के बाद वे बतासा खा रहे हैं."

24 नवंबर 2005 को नीतीश ने जब बिहार की सत्ता संभाली थी, तो राज्य की स्थिति बेहद ख़राब थी. नरसंहार आम बात थी, अपहरण उद्योग चरम पर था, व्यापारी अपना कारोबार समेट बाहर भाग रहे थे और अच्छी सड़कें न के बराबर थीं. सड़कों पर गड्ढा था या गड्डे में सड़क, यह पत्ता करना मुश्किल था.

सत्ता संभालते ही नीतीश ने दो कार्यों पर ज्यादा फोकस किया-कानून व्यवस्था को ठीक करना और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार लाना. इसके तहत उन्होंने कानून व्यवस्था का जिम्मा चुस्त पुलिस पदाधिकारियों को सौंपा. पूर्व पुलिस महानिदेशक अभ्यानंद उनमें से एक थे. ये अभयानंद ही थे जिन्होंने शातिर अपराधियों के खिलाफ "स्पीडी ट्रायल" चलाने का आईडिया सरकार को दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि कई खूंखार अपराधी काफी जल्द जेल की सलाखों के पीछे पहुंच गए.

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नीतीश के दूसरे कार्यकाल में महत्वाकांक्षा काफी हावी हो गई

अपराध नियंत्रण के साथ ही नीतीश ने इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने पर काफी ध्यान दिया. इसका परिणाम हुआ कि राज्य में हजारों किलोमीटर चिकनी सड़कें बनीं, पुल-पुलिया का निर्माण हुआ, स्कूल भवन और हॉस्पिटल बिल्डिंग्स बने. हॉस्पिटल्स के बेड जो कभी कुत्तों के आराम करने की जगह थे मरीजों से गुलजार हो गए. इसके साथ ही साथ इन्वेस्टर्स को भी बुलाने के भी प्रयास होते रहे. इस प्रयास के तहत ही रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन मुकेश अंबानी, टाटा संस के पूर्व चेयरमैन रतन टाटा और एयरटेल के चेयरमैन सुनील भारती मित्तल पटना आये और व्यापार की संभावनाओं को तलाशा, लेकिन ये फलीभूत नहीं हो सके. महिलाओं के सशक्तिकरण पर उनके काम ने उन्हें जरूर महिलाओं के बीच लोकप्रिय बनाया है, लेकिन वहां अभी बहुत काम करने की जरूरत है.

वैसे ये सारे काम नीतीश के पहले कार्यकाल में हुए. इन सारे कार्यों का ही असर था कि 2010 के विधानसभा चुनाव में नीतीश को जनता ने भारी समर्थन दिया और उन्होंने सत्ता में पुनर्वापसी की. लेकिन दूसरे कार्यकाल के मध्य में नीतीश पर राजनितिक महत्वाकांक्षा काफी हावी हो गयी और केंद्र की राजनीति में अपना वर्चस्व कायम करने के चक्कर में उन्होंने अपने 17 साल पुराने गठबंधन के साथी से संबंध तोड़ लिया. ये सब कुछ जून 2013 में हुआ और इसके साथ ही नीतीश के राजनीतिक भागदौड़ के दिन शुरू हो गए जो अगले 5 साल तक जारी रहे, जब तक कि उन्होंने सितंबर 2017 में एनडीए में वापसी नहीं की.

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इस बीच उन्होंने अपने मंत्रिमंडल के साथी मांझी को सत्ता सौंपी, फिर छीना, लालू प्रसाद के साथ मिलकर 2015 में बिहार की सत्ता में फिर से लौटे, लालू के दो बेटों को मंत्री बनाया और दो साल साथ रहने के बाद आखिर में पुनः एनडीए में लौट गए. लेकिन नीतीश के इस राजनीतिक कूद फांद के बीच विकास का एजेंडा कहीं पीछे छूट गया.

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सरोर अहमद कहते हैं,

"सच कहा जाये तो नीतीश के 16 साल के कार्यकाल में कंस्ट्रक्शन वर्क्स को छोड़कर और कोई काम नहीं हुए. ये भी सच है कि नीतीश अपने फर्स्ट टर्म में ही सक्सेसफुल रहे. इसके बाद वो जनता को बेवकूफ बनाने लगे."

अहमद के मुताबिक जनता का जितना समर्थन नीतीश को मिला उतना शायद ही बिहार के किसी नेता को मिला. नीतीश का कार्यकाल उनके अपने राजनीतिक उसूलों से पीछे हटने एक लिए भी जाना जाएगा. नीतीश ने ही कहा था कि “मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन बीजेपी के साथ फिर कभी नहीं जाऊंगा”.

आज ये बात जगजाहिर है कि नीतीश कहां हैं. बीजेपी के साथ गठबंधन में JDU ने यह स्पष्ट कर दिया था कि विवादस्पद मुद्दे, जैसे राम मंदिर का निर्माण, धारा 370 को रद्द करना, तीन तलाक कानून, समान नागरिक संहिता और नागरिकता विधेयक पर कोई समर्थन नहीं रहेगा. इनमें से राम मंदिर मुद्दे का हल सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद हुआ. बाकी मुद्दे पर JDU एक-एक करके अपना पैर पीछे खींचती रही और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपने सहयोगी का साथ दिया.

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नीतीश से जुड़ी और भी कुछ रोचक बातें हैं. बीजेपी से अपना संबंध तोड़ने के बाद नीतीश ने राजनीतिक स्तर पर अपनी पहचान बनाये रखने के प्रयास में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाये, जैसे भ्रष्ट अधिकारीयों की सम्पति जब्त करने के बाद उनके बंगले में स्कूल खोलना, बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू करना और पर्यावरण की सुरक्षा हेतु 'जल-जीवन-हरियाली' अभियान चलाना.

अगर पहले कदम पर नजर डालें तो कुछेक अधिकारियों की संपत्ति जब्त करने के बाद यह पहल अब आखों से ओझल हो चुकी है. शराबबंदी वास्तव में एक मजाक बनकर रह गई है क्योंकि राज्य में शराब आसानी से उपलब्ध है और जल-जीवन-हरियाली एक पब्लिसिटी स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं है.

नीतीश के 16 साल के कार्यकाल को आंकने का एक तरीका ये हो सकता है कि देखिए खुद JDU कैसी नाजुक हालत में पहुंच गई है. बेराजगारी, विकास और धर्मनिरपेक्षता को लेकर विपक्ष उन्हें घेरता है तो सहयोगी उनकी जमीन हथियाता जा रहा है.

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