2010 की बड़ी हेडलाइंस को याद कीजिए:
देश को 1.76 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ
जिन कंपनियों को स्पेक्ट्रम दिए गए, उनकी वैल्यू रातोंरात करोड़ों के हो गए
राजनीति और बिजनेस के घिनौने रिश्ते (अंग्रेजी में क्रोनी कैपिटलिज्म) की पराकाष्ठा थी
इन बड़ी हेडलाइंस के बाद 2012 की और भी बड़ी हेडलाइन:
सुप्रीम कोर्ट ने 122 टेलीकॉम सर्किल के लाइसेंस रद्द कर दिए
कुछ कंपनियां तत्काल सेक्टर से बाहर हो गईं. कुछ को दूसरे के साथ मर्ज होना पड़ा. नतीजा यह हुआ कि जिस सेक्टर में कुछ साल तक 14 कंपनियां थीं, कई लाख रोजगार दिए गए और करीब 40,000 करोड़ रुपये का निवेश हुआ, उस सेक्टर में फिर से 7 कंपनियां ही बचीं.
नुकसान किसका हुआ? तथाकथित घोटालेबाजों का (तथाकथित इसीलिए, क्योंकि सारे आरोपियों को कोर्ट ने बरी कर दिया), सरकारी खजाने का, उन लाखों इंजीनियर्स का, जो इस सेक्टर में जॉब पाने को इच्छुक थे या फिर मोबाइल सेवा का उपयोग करने वाले कंज्यूमर्स का?
घोटालेबाजों के बारे में हमें पता नहीं चल पाया. शायद आगे भी पता न चले. कैसे और किसको फायदा पहुंचाया गया, इस पर पुख्ता सबूत पेश करने में हमारी एजेंसी सफल नहीं हो पाई. इसको आप एजेंसी की विफलता मान सकते हैं या फिर बेनिफिट ऑफ डाउट. मतलब घोटाला हुआ, तो इसका कोई सबूत नहीं है. इस आधार पर सब निर्दोष हैं.
सरकारी खजाने को नुकसान- इसका कैसे अनुमान लगेगा. सीएजी का मानना था कि इसमें 'पहले आओ, पहले पाओ' वाली पॉलिसी नहीं अपनाई जाती और स्पेक्ट्रम को बाजार के भाव से बांटा जाता, तो सरकारी खजाने में 1.76 लाख करोड़ का इजाफा होता. अब यह किसने देखा है कि यह नहीं वह होता, तो ऐसा हो जाता. इसीलिए यह बहस शाश्वत चलेगी और बहुत सारे तर्क दिए जाएंगे. नतीजा कुछ नहीं निकलेगा.
अब तीसरे और चौथे सवाल का जवाब खोजते हैं. कंज्यूमर ने क्या पाया और नौकरी खोजने वालों की कौन सुनेगा?
बाजार का अपना एक लॉजिक होता है- जितने सारे खिलाड़ी, कंज्यूमर की उतनी ही बल्ले-बल्ले. कर्ज में डूबी कंपनियां अगर टेलीकॉम सेक्टर से बाहर हो रही हैं और इसमें बहुत ही कम प्लेयर बचेंगे, तो मान लीजिए कि सर्विस क्वालिटी पर से ध्यान हटेगा. सस्ती टेलीकॉम सेवा बहुत दिनों तक सस्ती नहीं रहेगी. तो नुकसान किसका?
उन इंजीनियर्स और मैनेजर्स के बारे में भी सोचिए, जिन्होंने इस सेक्टर से जुड़ने के सपने बुने होंगे. उनको किस तरह की खबरें मिल रही हैं— अगले कुछ महीनों में टेलीकॉम सेक्टर में करीब 1.5 लाख लोगों की छंटनी हो सकती है. मतलब यह कि नई भर्तियां तो छोड़िए, जिनकी नौकरी है, वो भी खतरे में है. फिर वही सवाल, तो नुकसान किसका?
हर बड़ी खबरों पर हमारी भेड़चाल होती है. हम मान लेते हैं कि किसी ने घोटाला शब्द बोला, तो दाल में जरूर कुछ काला है. फट से हम बड़ा निष्कर्ष निकाल लेते हैं. उसके पहले क्या, उसके बाद क्या, इसकी ठीक से विवेचना नहीं होती.
तथाकथित 2घोटाला कुछ इसी तरह का था. हम यह भूल गए कि इस खबर के कई पहलू हैं और हर पहलू की अलग से विवेचना होनी चाहिए थी. लेकिन राजनीति का ब्राउनी नंबर बढ़ाने के चक्कर में किसको इतना ध्यान रहता है. इसीलिए हड़बड़ी में अजीबो-गरीब फैसले हो जाते हैं.
अब इस पर ठंढे दिमाग से विवेचना करने की जरूरत है कि नुकसान किसका?
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)