पिछले शुक्रवार को गुरुग्राम में पुलिस सिक्योरिटी में नमाज पढ़ते लोगों को देख कट्टर हिंदू संगठनों के सीने चौड़े हो गए थे. ट्विटर हैंडलों और फेसबुक के पन्नों पर उनके चीयरलीडर्स झूम रहे थे. लेकिन गुड़गांव की ये तस्वीरें गंगा-जमुनी तहजीब में यकीन रखने वालों में खौफ पैदा कर रही थीं.
‘न्यू इंडिया’की ये तस्वीरें उनके दिलो-दिमाग में इस मुल्क के मुस्तकबिल को लेकर सवाल उठा रही थीं. क्या अब उन्हें अब और परेशान करने वाले मंजर दिखाई देंगे? क्या इस मुल्क में हजारों फूलों को एक साथ खिलते देखने का सिलसिला खत्म हो जाएगा?
एक आम हिन्दुस्तानी की तरह मैं भी इन सवालों से बावस्ता हूं. गुरुग्राम में पहरे में नमाज का मंजर देखकर मुझे लगा कि ये कैसी गर्म हवा देश में बह रही है? ये कैसा दौर है, जब खुदा की इबादत के लिए पुलिस की जरूरत पड़ रही है?
हिन्दुस्तान के जमीर पर यकीन पैदा करने वाला सफर
यकीन मानिए, अखबारों, चैनलों, वेबसाइटों और सोशल मीडिया से देश-दुनिया के हालात पता करने वाले आम मिडिल क्लास हिन्दुस्तानी की तरह मैं भी गुड़गांव की तस्वीरों को देख कर यकीन कर लेता कि हवा सचमुच गर्म है. लेकिन इन तस्वीरों से आगे जहां और भी है.
इस दुनिया की झलक मुझे मिली एक हालिया ट्रेन सफर में. जिस दिन गुड़गांव की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थीं, ठीक उसके एक दिन पहले मैं बोकारो स्टील सिटी से दिल्ली का सफर कर रहा था. झारखंड स्वर्ण जयंती एक्सप्रेस के एक स्लीपर डिब्बे में कोडरमा से मुस्लिम यात्रियों का एक छोटा ग्रुप डिब्बे में दाखिल हुआ. ऊंचा पायजामा पहने, सिर पर नमाजी टोपी और दाढ़ी बढ़ाए हुए इन यात्रियों को देख कर लग रहा था कि कि ये आगे आने वाले स्टेशन गया और नजदीकी कस्बे रफीगंज के किसी मदरसे या सेमिनरी से जुड़े हैं.
थोड़ी देर में नमाज का वक्त हो गया और इनमें से कुछ लोगों ने ट्रेन के अंदर ही इबादत शुरू कर दी. इस बीच ट्रेन रुक रही थी और दूसरे यात्री भी बाहर से अंदर आ रहे थे. अधिकतर यात्री हिंदू थे. थोड़े से मुसलमान. नमाज की वजह से रास्ता बंद हो गया था और लोग अपनी सीटों तक नहीं पहुंच पा रहे थे.
पैंट्री से सामान लेकर बेचने निकले वेंडर, टॉयलेट जाने के लिए सीट से उठे यात्री और टॉयलेट से निकल कर सीट पर वापस जाने के लिए निकले यात्री भी जहां के तहां अटक गए थे. जो लोग नमाज पढ़ रहे थे, उनके कुछ साथी रास्ता रोक कर खड़े हो गए थे, ताकि इसमें बाधा न पड़े.
वो सब्र और वो सलीका
लोगों के जहां-तहां अटके होने से मुझे थोड़ी खुन्नस होने लगी थी. मैं डिब्बे के बाकी लोगों के रिएक्शन देख रहा था. लोग बड़े सब्र से नमाज खत्म होने का इंतजार कर रहे थे. चेहरे सहज लग रहे थे. उनमें हिंदू चेहरे भी थे और मुसलमान भी.
रांची (हटिया स्टेशन ) से क्रिश्चियन मिशनरी से जुड़े लोग का एक दल भी सीट पर बैठा हुआ था. कुछ कस्बाई महिलाएं, जो अभी-अभी डिब्बे में घुसी थीं, नमाज होते देख जहां की तहां रुक गई थीं. वे नजदीकी सीटों पर बैठ गई थीं. कोई शोर नहीं और न चेहरे पर कोई शिकन. अपनी सीट पर बैठी दो-तीन महिलाओं के छोटे-छोटे बच्चों न जब शोर करना शुरू किया, तो उन्होंने उन्हें आंखें दिखा कर चुप करा दिया.
एक महिला की गोद में सो रहे छोटे बच्चे ने जब रोना शुरू किया, तो मां ने उसके मुंह में दूध की बोतल डाल दी. पानी की बोतल बेचने वाले वेंडरों के हाथ में भारी बाल्टियां थीं. लेकिन वे उन्हें पकड़े धैर्य से खड़े थे. इस बीच रास्ते में कुछेक मंदिर दिखे. खिड़की के नजदीक बैठे कुछ लोगों ने उन्हें देखकर हाथ जोड़े. एक-दो और छोटे स्टॉपेज पर जब गाड़ी रुकी, तो हड़बड़ी होने के बावजूद उतरने वाले इस सलीके से उतर रहे थे कि नमाजियों के शरीर न छू जाए. चढ़ने वाले तो जहां के तहां खड़े ही थे.
फसाद का फलसफा लेकर क्यों जिएं?
मेरे लिए ये सुकूनदेह मंजर था. वरना, वॉट्सऐप, ट्विटर और दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर रात-दिन नफरत उगलते मैसेज, पोस्ट और तस्वीरों से बनाए जा रहे माहौल के बीच मुझे सचमुच लगने लगा था कि देश के पोर-पोर में नफरत का जहर घुल रहा है. दो कौमों के बीच रंजिश की दीवार खड़ी हो गई है.
नमाज के बाद मैंने टोह लेने के लिए नमाजियों के साथ सफर कर रहे एक युवक शाकिर उस्मानी से बातचीत शुरू की. मैंने पूछा, क्या इस रूट पर अक्सर नमाजियों की इबादत के वक्त लोग इतना धैर्य रखते हैं. घुमाकर पूछे गए इस सवाल के पीछे मेरे मकसद को वो ताड़ गया.
उस्मानी कहने लगा, ''गुड़गांव में नमाज को लेकर हरियाणा के सीएम के बयान पर आप राय मांग रहे हैं, तो सुन लीजिये. ये नेता लोगों का काम है. वोट के लिए भाइयों के बीच नफरत पैदा करना. दो-तीन साल से मैं इस ट्रेन में सफर कर रहा हूं. कई बार ऐसे मौके आए जब लोगों ने बीच ट्रेन में नमाज पढ़ी. लेकिन कभी भी किसी ने एतराज नहीं किया.'' उस्मानी के खयालात में खुलापन दिखा.
उसने कहा, ''हिंदू-मुसलमानों के बीच नफरत का झूठा ढिंढोरा पीटा जा रहा है. हमारे यहां 150-200 किलोमीटर के बीच कई कस्बे और गांव हैं, जहां ठीक-ठाक मुस्लिम आबादी है. कई जगह हिंदुओं और मुसलमानों के घर सामने-सामने हैं. मस्जिदें भी हैं और थोड़ी दूर पर मंदिर भी. मस्जिद के लाउडस्पीकर से अजान की आवाज आती है. मंदिर के डाउडस्पीकर में भजन बजता है. कभी किसी ने एतराज नहीं किया. मेरी उम्र 30 साल हो गई, भाईचारा बिगड़ने की इक्का-दुक्का घटनाएं ही देखी है. हम उनका खयाल रखते हैं और उससे भी ज्यादा वे हमारा खयाल रखते हैं. इस देश के मुसलमान कोई बाहर से नहीं आए हैं. यहीं पैदा हुए हैं. इसी मिट्टी के हैं. फिर फसाद का फलसफा लेकर क्यों जिएं.''
जिन्हें नाज है हिंद पर, वे यहां हैं
मैंने पूछा, ''मुसलमानों में जो डर पैदा किया जा रहा है. उस पर क्या सोचते हैं?'' उसने कहा, ''कुछ नेता लोग कुछ मीडिया वालों से मिलकर मुसलमानों के खिलाफ प्रोपगंडा कर रहे हैं. करने दीजिये. मुझे यकीन है लोग गुमराह नहीं होंगे. इसे हमारे हिंदू पड़ोसी अच्छे से समझते हैं.'' मैंने सामने बैठे एक हिंदू सज्जन से इसकी तसदीक करनी चाही.
उन्होंने कहा, ''मुल्ला जी बिल्कुल ठीक कह रहे हैं. कोई खबर आती है तो हम समझते हैं कि सचमुच ऐसा हो रहा है. लेकिन हम तो वर्षों से ऐसे इलाके में रह रहे हैं, जहां हिंदू और मुसलमान बड़ी शांति से साथ-साथ रह रहे हैं. दोनों ओर के लोगों को यह पता है कि लड़ाने-भिड़ाने की राजनीति चलती रहती है.'' उस्मानी बोले, ''हमें इस भाईचारे पर नाज है. अपने हिन्दोस्तान पर नाज है. नफरत की आंधियों के बीच अमन का चिराग जलता रहेगा.''
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