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पति, पत्नी और वो: नाजायज रिश्तों को अपराध क्यों माना जाए?

आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं था और परंपरा से न्याय होता था.

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भारत की अपराध दंड संहिता यानी आईपीसी लिखने वाले लॉर्ड बैंबिंगटन मैकाले चाहते थे कि विवाह संबंध में अगर पत्नी और किसी ‘वो’ के बीच संबंध बन जाएं, तो इसे अपराध न माना जाए. आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं था और परंपरा से न्याय होता था. जब मैकाले के सामने विवाह संबंधी अपराधों को कोडिफाई करने की बारी आई, तो उनके सामने यह प्रश्न आया कि पत्नी के साथ किसी बाहरी व्यक्ति के यौन संबंध यानी व्यभिचार को अपराध माना जाए या नहीं.

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मैकाले ने भारत के अपने सीमित अनुभवों के आधार पर माना कि जब कोई किसी की पत्नी को भगा ले जाता है, या उसके साथ यौन संबंध बनाता है तो यह दंडनीय अपराध नहीं है. मैकाले ने पाया कि ज्यादातर मामलों में पीड़ित पक्ष यानी पति चाहता है कि उसकी पत्नी उसे वापस मिल जाए या फिर उसे इसका आर्थिक मुआवजा मिले. मैकाले की चलती तो आईपीसी में व्यभिचार को दीवानी मामला माना जाता और रुपए-पैसे के आधार पर फैसले होते.

मैकाले की इस मामले में नहीं चली और व्यभिचार को आईपीसी में अपराध मान लिया गया और भारतीय कानूनों में धारा 497 जुड़ गई. व्यभिचार से संबंधित आईपीसी की धारा 497 में यह प्रावधान है कि अगर कोई पुरुष किसी विवाहिता स्त्री से, बिना पत्नी की सहमति से, यौन संबंध बनाता है तो उस पुरुष को पांच साल तक की कैद की सजा या आर्थिक दंड या दोनों की सजा हो सकती है. इस मामले में पत्नी को अपराध में हिस्सेदार नहीं माना जाएगा. व्यभिचार से संबंधित दंड प्रक्रिया संहिता यानी सीआरपीसी में यह प्रावधान है कि पत्नी को यह अधिकार नहीं है कि वह व्यभिचारी पति पर व्यभिचार का आरोप लगा सके. ऐसा करने का अधिकार सिर्फ पति को है.

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व्यभिचार के कानून पर उठते रहे हैं सवाल

यह कानून 1860 से लेकर अब तक जारी है. इस पर सवाल उठते रहे हैं. लेकिन भारतीय न्याय जगत की प्रभावशाली विचारधारा हमेशा इस कानून को बनाए रखने के पक्ष में रही. लॉ कमीशन ने 1971 में पेश अपनी 42वीं रिपोर्ट में इस कानून में दो संशोधन करने के सुझाव दिए गए. पहला, इस अपराध की सजा घटाकर दो साल कर दी जाए. और दूसरा, महिलाओं को भी दोषियों की श्रेणी में लाया जाए. लेकिन ये सुझाव कभी माने नहीं गए. लॉ कमीशन ने माना कि इस कानून को खत्म करने का समय अभी नहीं आया है.

अब 2017 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच ने फिर से इस कानून को बहस के लिए देश के सामने पेश कर दिया है. इसलिए इस कानून पर अब नए सिरे से बहस छिड़ गई है. 

केरल निवासी जोसेफ साइन ने सुप्रीम कोर्ट मे याचिका डालकर यह मांग की थी कि व्यभिचार के कानून को बदलकर इस कृत्य को अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाए क्योंकि दो सहमत वयस्क लोगों के बीच यौन संबंध को अपराध कैसे कहा जा सकता है. इस याचिका की सुनवाई के दौरान तीन जजों की बेंच ने इस कानून को समीक्षा के दायरे में डाल दिया है.

सुप्रीम कोर्ट इससे पहले तीन बार इस कानून पर विचार कर चुका है और हर बार कानून के मौजूदा स्वरूप को बनाए रखने के पक्ष में ही फैसला सुनाया गया है.
आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं था और परंपरा से न्याय होता था.
सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को समीक्षा सूची में डाला है
(फोटो: Reuters)
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भारत में व्यभिचार का जो कानून है, उसमें पांच मुख्य बातें हैं.

स्नैपशॉट

व्यभिचार होना तभी माना जाएगा जब पति मुकदमा करेगा. यह मुकदमा पत्नी नहीं कर सकती. पति अगर विवाहेतर संबंध रखे, तो उसे कानून व्यभिचार नहीं मानता.

व्यभिचार के मुकदमे में पत्नी या महिला को आरोपी पक्ष नहीं बनाया जाएगा. यानी व्यभिचार की सजा सिर्फ पुरुष को मिल सकती है.

अगर पत्नी का किसी और पुरुष से यौन संबंध, पति की सहमति से है, तो उसे व्यभिचार नहीं माना जाएगा.

व्यभिचार के मामले में सजा विवाह संबंध से बाहर के आदमी को ही हो सकती है. विवाह संबंध से बंधे लोगों का कोई भी यौन संबंध व्यभिचार नहीं है.

अगर कोई पुरुष किसी अविवाहित महिला से यौन संबंध बनाता है, तो किसी भी स्थिति मे इसे व्यभिचार नहीं माना जाएगा.

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रक्त शुद्धता को बचाने के लिए है व्यभिचार रोकने के कानून

भारत ही नहीं, सारी दुनिया में जहां भी व्यभिचार के कानून हैं, उसके पीछे एक ही सोच काम करती है. वह यह कि विवाह संस्था को बाहरी पुरुष से बचाया जाए, ताकि होने वाली संतान की खून की शुचिता कायम रहे. यानी यह पता होना चाहिए कि बच्चे का बाप कौन है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि बाप की विरासत और पैतृक जायदाद बेटे को ही जा रही है. यह एक तरह से परिवार की पारंपरिक व्यवस्था को बचाए रखने की जुगत है. इसलिए विवाह संस्था के अंदर पति के व्यभिचारी होने को व्यभिचार कानून के दायरे में नहीं रखा गया है क्योंकि विवाह के अंदर जो बच्चा पैदा होगा, उसे पैदा तो महिला करेगी.

व्यभिचार अंग्रेजी के जिस शब्द एडल्टरी से आया है, उसका अर्थ ही मिलावट है. इस खास संदर्भ में यह खून में मिलावट का अर्थ ग्रहण करता है. इस कानून की भाषा इस तरह लिखी गई है, मानो महिला किसी पुरुष की संपत्ति है और जब कोई बाहरी पुरुष उस संपत्ति को ले जाता है या उसे ‘खराब” करता है, तो उसे दंडित किया जाएगा.

आईपीसी बनने से पहले देश में नागरिकों के लिए कोई लिखित कानून नहीं था और परंपरा से न्याय होता था.
दुनिया के कई देशों में खत्म हो रहे हैं व्यभिचार से जुड़े कानून
(फोटो: iStock)
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दुनिया में खत्म हो रहा है व्यभिचार का कानून

यह दिलचस्प है कि ब्रिटिश राज में भारत में तो व्यभिचार को अपराध बनाने का कानून बन गया, लेकिन खुद ब्रिटेन में व्यभिचार अपराध नहीं है. बेशक तलाक के लिए इसे एक आधार माना गया है, लेकिन किसी को इस बात की सजा नहीं हो सकती कि उसने किसी विवाहित महिला से यौन संबंध बना लिए हैं.

अमेरिका के 21 राज्यों में व्यभिचार दंडनीय अपराध है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब से यह व्यवस्था दी है कि दो सहमत वयस्कों के बीच यौन संबंध अपराध नहीं है, तब से व्यभिचार के कानून के तहत किसी का आरोपी नहीं बनाया जा रहा है. पूरे यूरोप में एक भी देश ऐसा नहीं है, जो व्यभिचार को अपराध मानता हो. बेशक तलाक के आधार के तौर पर व्यभिचार को एक कारण जरूर माना जाता है.

कुल मिलाकर, विकसित देशों मे स्थिति यह है कि या तो वहां व्यभिचार का कोई कानून नहीं है, या फिर जहां कानून है कि वहां इसका इस्तेमाल न के बराबर होता है. कुछ देशों में कानून की किताबों में व्यभिचार सिर्फ इस वजह से है, क्योंकि यह तलाक का आधार है. विकसित देशों में यह मान लिया गया है कि दो वयस्कों के बीच सहमति से होने वाला यौन संबंध गलत या अनैतिक वगैरह तो हो सकता है, लेकिन इसे अपराध नहीं माना जा सकता.

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भारत में भी खत्म होना चाहिए व्यभिचार को दंडित करने का कानून

ऐसे समय में अगर भारत व्यभिचार के डेढ़ सौ साल पुराने कानून की समीक्षा कर रहा है तो यह एक सही कदम है. आदर्श स्थिति तो यही होगी कि भारत भी बाकी विकसित देशों के साथ कदमताल करे और व्यभिचार को अपराध मानना बंद करे और कानून की किताबों से धारा 497 को हटाया जाए. सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में यही मांग की गई है.

लेकिन बहस की दिशा इस ओर मुड़ गई है कि क्या इस कानून में महिला को भी अपराधी माना जाए. सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने भी अपनी टिप्पणी में इस कानून के जेंडर न्यूट्रल बनाने की जरूरत कही है.

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इस कानून के दायरे में महिला को भी अपराधी बनाना एक दोधारी तलवार साबित होगी. इसका असर यह होगा कि पत्नियां, पतियों के व्यभिचार के लिए महिला/महिलाओं पर मुकदमा कर पाएंगी. विवाह संस्था को इससे मजबूती मिलेगी, लेकिन इस वजह से महिलाओं के बड़ी संख्या में मुकदमेबाजी में फंसने की आशंका है.

यह भी देखना होगा कि कहीं महिलाओं को भी दोषी मानने के चक्कर में कानून में ऐसा संशोधन तो नहीं किया जाएगा जिससे पति अपनी पत्नी पर मुकदमा कर पाएंगे. अभी के कानून के तहत यह सुविधा पत्नियों को नहीं है. यानी पत्नियां पतियों पर व्यभिचारी होने का मुकदमा नहीं कर सकती हैं.

वैसे भी, इस कानून में महिलाओं को अपराध के दायरे में लाना व्यभिचार के कानून की मूल भावना के खिलाफ होगा क्योंकि ऐसे संबंधों से संतानों की रक्त शुद्धता प्रभावित नहीं होती. रक्त शुद्धता पर असर पत्नी के विवाहेतर यौन संबंध से ही होता है.

इस कानून में संशोधन धारा 479 को और जटिल ही बनाएगा. सुप्रीम कोर्ट की पहले जताई गई इन चिंताओं का कोई आधार नहीं है कि इस कानून के समाप्त किए जाने के लिए देश तैयार नहीं है.

क्या इस बात का समय नहीं आ गया है कि भारत भी तमाम अन्य विकसित देशों की तरह रक्त शुद्धता के विचार को खारिज करे और सहमति से होने वाले यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करे?

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