19वीं शताब्दी में ‘द ग्रेट गेम’ फ्रेज का खूब इस्तेमाल होता था. इसका मतलब था, ब्रिटिश और रूसी साम्राज्यों के बीच अफगानिस्तान, और पड़ोसी मध्य और दक्षिण एशियाई क्षेत्रों में सत्ता और प्रभुत्व की होड़.
पश्चिमी एशिया में अमेरिकी ताकत की भी एक हद
लेकिन जिसे ‘साम्राज्यों की कब्रगाह’ कहा जाता है, वहां बहुत दिनों तक किसी की हुकूमत नहीं रही. दो शताब्दी बाद अमेरिकी महाशक्ति को भी इसी सच से रूबरू होना पड़ा.
अमेरिका से प्रशिक्षित और उसके हथियारों से लैस तीन लाख अफगानी सैनिकों की सेना कुछ ही घंटों में ताश के पत्तों की तरह ढह गई. यह शिकस्त याद दिलाती है कि पश्चिम एशिया में भी अमेरिकी ताकत की एक हद है.
इसके लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की आलोचना की जा सकती है. कहा जा सकता है कि अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी का तरीका बहुत खराब था. ऐसे कई दूसरे आरोप भी लगाए जा सकते हैं. कैसे एक ऐसे ‘राष्ट्र के निर्माण’ का गलत फैसला किया था जो हजारों सालों से बाहरी दखल का विरोध करता रहा है.
काबुल के पतन और अमेरिकी सेना की वापसी के बाद (जहां उसने 1 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए थे) अब सवाल यह है कि पश्चिम एशिया में आगे क्या होने वाला है? यह एक ऐसा सवाल है जो पश्चिम में मोरक्को से होता हुआ पूर्व में पाकिस्तान और उत्तर में तुर्की से खाड़ी और अफ्रीका के सींग, यानी हॉर्न (क्योंकि मानचित्र में इसका आकार सींग जैसा ही है) तक फैला हुआ है.
तो, अफगानिस्तान में अमेरिकी हार पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका के हर छोर को एक तरह से छुएगी. अफगानिस्तान के इतिहास की सबसे लंबी लड़ाई. इस हिसाब किताब में अमेरिका के साथ उसके नाटो सहयोगी और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश भी शामिल हैं. ऑस्ट्रेलिया की तो इस बात के लिए भी निंदा होनी चाहिए कि उसने बिना समझे बूझे मूखर्ता पूर्ण तरीके से अमेरिका का साथ दिया.
एक नया साइगॉन
बेशक, तुलना तो की ही जाएगी. कैसे अमेरिका ने काबुल से घबराकर वापसी की है, और 46 साल पहले साइगॉन यानी वियतनाम में क्या हुआ था. लेकिन कुछ मामलों में अफगानिस्तान के हालात ज्यादा परेशान करने वाले हैं. क्योंकि इसके बाद पश्चिम एशिया में अराजकता फैलने का डर है.
1975 में दक्षिणी वियतनामी सेना की हार से भारत चीन जैसे पड़ोसी देशों पर असर होता, इससे पहले ही जंग के नतीजों पर विराम लगा दिया गया. पर अफगानिस्तान कई मामलों में अलग है. जबकि वियतनाम में अमेरिका की साख और आत्मविश्वास की धज्जियां उड़ गई थीं, लेकिन चीन के उभार से पहले तक पश्चिमी प्रशांत में वह एक प्रभुत्वशाली सैन्य ताकत बना रहा था.
पश्चिम एशिया में अमेरिकी कद छोटा हुआ है
पश्चिम एशिया में अमेरिका का कद छोटा हुआ है. वो अपनी प्रतिबद्धता पर कायम रह सकता है, उसका यह विश्वास टूटा न भी हो लेकिन हिल जरूर गया है. आने वाले समय में वह देखेगा कि उसकी ताकत पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं. ये वो समय है जब चीन और रूस विश्व स्तर पर अमेरिका के संकल्प को परख रहे हैं. तुर्की और ईरान भी पश्चिम एशिया में अमेरिकी विफलता से पैदा हुए खालीपन को भरने की कोशिश कर रहे हैं.
अफगानिस्तान में बीजिंग और मॉस्को के अपने हित हैं. चीन के लिए यह सिर्फ सीमा का मसला नहीं और रूस ऐतिहासिक रूप से अफगानिस्तान में चरमपंथ को लेकर चिंतित है. क्योंकि उसकी खुद की मुस्लिम आबादी और उसके आस-पास के देशों तक इसकी आंच जा सकती है.
हाल तक चीन तालिबानी नेताओं से अपने रिश्ते बना रहा था. उसके विदेश मंत्री वांग यी ने अफगानिस्तान के तालिबानी राजनीतिक प्रमुख मुल्ला अब्दुल गनी बरादार से पिछले ही महीने मीटिंग की थी, और उसकी काफी चर्चा हुई थी. फिर पाकिस्तान भी है जोकि सालों से तालिबान को गुपचुप और जाहिर तौर से सहारा देता आया है. इस्लामाबाद कोशिश करेगा कि अमेरिका की खराब स्थिति का कैसे अपने क्षेत्रीय फायदे के लिए इस्तेमाल किया जाए.
यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के चीन से भी गहरे रिश्ते हैं और अमेरिका से झगड़ालू संबंध. अफगानिस्तान में भी तालिबान के बारे में यह राय हो सकती है कि वह बदल गया है और वह देश में आम सहमति कायम करने की कोशिश करेगा जो जातीय और कबायली विभाजनों से त्रस्त है.
तालिबान ने शुरुआती संकेत दे दिए हैं. दुश्मनों से बर्बर प्रतिशोध और अफगानी जनता की घबराहट को देखकर इस बात पर भरोसा नहीं होता कि वह बदल गया है.
पश्चिम एशिया पर क्या असर होगा?
क्या अल कायदा और इस्लामिक स्टेट को तालिबान नियंत्रित अफगानिस्तान में दोबारा से जमने का मौका मिलेगा? क्या तालिबान आतंकवाद का सरकारी प्रायोजक बनेगा? क्या वह अफीम के कारोबार के लिए अफगानिस्तान को बड़े बगीचे के तौर पर इस्तेमाल होने देगा? दूसरे शब्दों में कहें तो क्या तालिबान अपने तौर तरीके और व्यवहार को इस तरह बदलेगा कि वो पड़ोसियों और पूरे क्षेत्र के लिए खतरा न बने?
ईरान और अफगानिस्तान कुदरती साझेदारी नहीं
अमेरिका के नजरिये से देखें तो अफगानिस्तान से उसकी वापसी के एक और मायने हैं. उसने ईरान के साथ परमाणु समझौते में फिर से जान फूंकने की कोशिशें छोड़ दी हैं. पश्चिम एशिया में उसकी मौजूदगी की एक वजह यह भी थी जो नाकाम हुई है. हालांकि एक मसला इजराइल-फिलिस्तानी विवाद भी है, पर फिलहाल उस पर चर्चा नहीं.
ज्वाइंट कॉम्प्रेहेंसिव प्लान ऑफ ऐक्शन (जेसीपीओए) को ताजादम करना बाइडेन प्रशासन की मुख्य जिम्मेदारी है, ताकि पश्चिम एशिया में अधिक रचनात्मक तरीके से जुड़ा जा सके.
लेकिन इस मामले में प्रगति के कदम लड़खड़ा रहे हैं. नए कट्टर ईरानी राष्ट्रपति के चुनाव ने समझौते की कोशिशों को मुश्किल बनाया है. जेसीपीओए में जान न आई, जिसे राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप बेदम छोड़ गए हैं, तो अनिश्चितता और बढ़ेगी और पश्चिम एशिया में जोखिम भी.
तेहरान के शीर्ष नेतृत्व की दिलचस्पी अफगानिस्तान की घटनाओं पर खास तौर से होगी. तालिबान से ईरान का रिश्ता लाग डांट कर रहा है. तेहरान अफगानिस्तान में शिया आबादी के साथ होने वाले बुरे बर्ताव के कारण हमेशा से परेशान रहा है. शिया ईरान और सुन्नी कट्टपंथी तालिबान में अदावत लाजमी है. वे कुदरती साझेदार नहीं.
खाड़ी देशों के हित में नहीं अमेरिका की वापसी
इसके अलावा अफगानिस्तान के हालिया घटनाक्रमों पर खाड़ी देश भी ध्यान देंगे. कतर ने घनी सरकार के शांति वार्ता के दौरान तालिबान को कूटनीतिक पनाह दी थी. अमेरिका की छत्रछाया में यह शांति वार्ता असफल साबित हुई है. तालिबान की महत्वाकांक्षा तो सिर्फ सत्ता में वापसी थी.
कोई भी राजनैतिक पर्यवेक्षक कैसे किसी और बात पर भरोसा करता, यह संहेद जगाता है. साऊदी अरब हाल की घटनाओं से बेकरार होगा क्योंकि इस क्षेत्र में अमेरिकी ताकत को कमजोर करना रियाद के हित में नहीं है. लेकिन साऊदी अरब का तालिबान से लंबा जुड़ाव रहा है. साऊदी अरब की विदेश नीति के हिसाब से देखें तो अफगानिस्तान का नुकसान होने पर उसका कोई फायदा नहीं होने वाला.
ईजिप्ट और जॉर्डन के अपने अपने सिरदर्द
इसके बजाय अगर क्षेत्र में अमेरिका की स्थिति खराब होती है तो उसके उदारवादी अरब सहयोगियों के लिए चिंता की बात होगी. इसमें ईजिप्ट और जॉर्डन, दोनों शामिल हैं. इन दोनों देशों में अपने-अपने तालिबानी प्रतिरूप हैं जो घात लगाए बैठे हैं. ऐसे में अफगानिस्तान की घटनाएं उनके लिए अच्छी खबर नहीं हैं.
अफगानिस्तान में तालिबान की कामयाबी से पश्चिम एशिया का कोई कोना अछूता नहीं रहने वाला. ईराक और सीरिया के कुछ हिस्सों में अमेरिका की सैन्य मौजूदगी है. वहां भी अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी का काफी असर होगा. लेबनान एक हारा हुआ देश माना जाता है. अफगानिस्तान की हार से वहां भी निराशा बढ़ेगी.
इजरायल भी आ सकता है लपेटे में
इजरायल आकलन करेगा कि उसके मुख्य सहयोगी की नाकामी का उस पर क्या-क्या असर हो सकता है. बेशक, पश्चिम एशिया में अगर हालात बिगड़ते हैं तो इजरायल भी उसके लपेटे में आ सकता है. अगले चरण में अमेरिका पश्चिम एशिया में अपनी दूसरी प्रतिबद्धताओं से भी पीछे हट जाएगा. इसीलिए अभी समय है कि वह अफगानिस्तान के अपने दर्द भरे अनुभवों से सबक ले.
जो एक सबक अमेरिका और उसके सहयोगियों के लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है, वह यह है कि एक ‘हारे हुए देश’ की जंग को लड़ने का मतलब सिर्फ हार है.
(यह एक ओपिनियन पीस है. द क्विट न इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. यह लेख मूल रूप से द कंवर्जेशन में प्रकाशित हुआ है.)
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