दो ताकतवर महिला राजनेता पिछले एक महीने के दौरान ट्विटर से जुड़ीं (या जुड़ने वाली हैं)- मायावती और प्रियंका गांधी.
इनमें से एक चार दशक से राजनीति में हैं, तो दूसरी का राजनीतिक सफर अभी शुरू हुआ है. आप सोच रहे होंगे कि फिर मैं उनकी बात यहां एक साथ क्यों कर रहा हूं, क्योंकि 100 दिनों के अंदर वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तगड़ा झटका दे सकती हैं.
‘मैंने तो पहले ही कहा था’, मुझे इस वाक्य से नफरत है. लेकिन थोड़ा दिखावा किसे पसंद नहीं होता (आखिर, मैं भी इंसान हूं). ठीक एक साल पहले, फरवरी 2018 में मैंने यह लिखा था:
उनकी राजनीतिक वापसी चमत्कार से कम नहीं है. 2014 की मोदी लहर में उनका नामोनिशान मिट गया था. उनके पास लोकसभा की एक भी सीट नहीं थी. समाजवादी पार्टी (पांच सीटें) और कांग्रेस (अमेठी और रायबरेली की दोनों सीटों) ने अपने गढ़ बचा लिए थे, पर मायावती एक सीट को भी तरस गई थीं. इसके तीन साल बाद ‘मोदी, शाह और देर से आए योगी आदित्यनाथ’ की 2017 की सुनामी में भले ही उन्हें 19 सीटें ही मिलीं, लेकिन बीएसपी 22.23 पर्सेंट वोट शेयर के साथ मजबूत दिखी. इसके 6 महीने बाद स्थानीय चुनावों में उन्होंने अलीगढ़ और मेरठ में मेयर की सीटों पर कब्जा किया.
लोकसभा चुनाव के लिए इसका क्या नतीजा निकलता है: अगर यूपी में एनडीए और मायावती-एसपी-कांग्रेस एलायंस के बीच सीधा मुकाबला होता है, तो देशभर में एनडीए 200-220 सीटों (बीजेपी की सीटें घटकर 170-200) तक सिमट जाएगा. तब ममता और डीएमके के साथ मिलकर यूपीए 2019 में लोकसभा चुनाव में 272 सीटों के बहुमत के काफी करीब पहुंच जाएगा.
आप इन आंकड़ों को खारिज कर सकते हैं, लेकिन मायावती को नहीं. वह क्या करेंगी, कहना मुश्किल है. जरा याद करिए कि 17 अप्रैल, 1999 के दिन उन्होंने क्या किया था. सुबह उन्होंने प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से वादा किया कि अविश्वास प्रस्ताव के दौरान शाम को वह लोकसभा में उनका समर्थन करेंगी.
वाजपेयी आश्वस्त हो गए और जीत का ऐलान कर दिया. कुछ ही घंटे बाद मायावती ने हैरतंगेज राजनीतिक गुलाटी मारी और सदन में वाजपेयी सरकार के खिलाफ वोट डाला. अविश्वास मत के वोटों की जब गिनती हुई, तो सरकार के पक्ष में 269 और विरोध में 270 वोट पड़े थे. वाजपेयी की एक वोट से अप्रत्याशित हार हुई थी. दिल्ली की झुग्गियों से निकलीं एक अनजानी स्कूल टीचर से देश के सबसे बड़े राज्य की पहली दलित महिला मुख्यमंत्री बनने वाली मायावती के दिमाग को समझना आसान नहीं है.
मायावती ने अखिलेश यादव को आगे किया
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ मायावती ने बेहद मजबूत गठबंधन बनाया है. उन्होंने खुद को जान-बूझकर बीच में रखा है. उन्होंने कांग्रेस को इस एलायंस का चेहरा क्यों नहीं बनने दिया? मैं यह बात अब बखूबी समझ सकता हूं. उनका तर्क बिल्कुल साफ था:
- कमजोर नेतृत्व के कारण यूपी में कांग्रेस अपने समर्थकों का वोट बीएसपी को ट्रांसफर कराने की स्थिति में नहीं थी. मुमकिन था कि उसके गैर-मुस्लिम समर्थक भी बीजेपी के पाले में चले जाते.
- मायावती चतुर राजनेता हैं. वह जानती हैं कि 2019 में उनके सांसदों के बिना न तो एनडीए, न यूपीए के नेतृत्व में और न ही फेडरल फ्रंट की गठबंधन सरकार बनेगी. अगर उन्हें ठीक-ठाक सीटें मिलती हैं तो वह कम से कम उप-प्रधानमंत्री (जिन लोगों को यह बात मजाक लग रही है, उन्हें पता होना चाहिए कि चौधरी चरण सिंह और देवी लाल जनता सरकार में कहां तक पहुंचे थे) के पद पर अड़ सकती हैं.
अब बैटन अखिलेश यादव के हाथ में है. उन्हें क्या करना चाहिए? क्या उन्हें यूपी में त्रिकोणीय मुकाबला होने देना चाहिए? अब ‘मोदी को हराने वाली’ मुख्य भूमिका मायावती से निकलकर अखिलेश के हाथों में आ गई है. तीन राज्यों में राहुल गांधी की शानदार जीत और खास तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान प्रियंका गांधी को दिए जाने के बाद एक नया राजनीतिक समीकरण संभव है.
अखिलेश का मायावती के सामने 10 प्वाइंट का प्रेजेंटेशन
अखिलेश के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती 'बुआ' यानी मायावती को 'चाय पर चर्चा' (मोदी ने 2014 में चुनाव प्रचार के लिए इसका शानदार ढंग से इस्तेमाल किया था) के लिए मनाना है. उसके बाद वह उनके सामने नीचे दिए गए 10 पॉलिटिकल फैक्ट पेश करें:
- 2014 ब्लैक स्वान इलेक्शन था, इसलिए 2009 के सबक नहीं भुलाए जाने चाहिए: 2009 में कांग्रेस ने 20 पर्सेंट वोट शेयर के साथ 21 लोकसभा सीटें (बीएसपी व बीजेपी से अधिक पर एसपी से कुछ कम) जीती थीं.
- प्रियंका के राजनीति में आने से पहले ही कांग्रेस का वोट शेयर (2014 के 7 पर्सेंट से) 6 पर्सेंटेज प्वाइंट्स बढ़ चुका था: 2017 के स्थानीय निकाय चुनाव से लेकर हालिया चुनावी सर्वेक्षणों में कांग्रेस का मत प्रतिशत यूपी में 12 से अधिक रहा है. प्रियंका के पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान संभालने के बाद यह 2009 के 20 पर्सेंट तक पहुंच सकता है. इसलिए उस चुनाव की चाय पत्ती को समझना बहुत जरूरी है.
- अवध में मजबूत है कांग्रेस: 2014 में जब कांग्रेस की बुरी हार हुई थी, तब भी उसे इस क्षेत्र में 18 पर्सेंट वोट मिले थे. रायबरेली और अमेठी के अलावा प्रतापगढ़,उन्नाव, बाराबंकी, फैजाबाद और कुशीनगर में वह काफी मजबूत रह सकती है.
- 28 सीटों में कांग्रेस की ताकत: ये सीटें पार्टी ने या तो 2009 में जीती थीं या 2014 की मोदी लहर के बावजूद उसने यहां 10 पर्सेंट से अधिक वोट शेयर बचाए रखा था. ईमानदारी से कांग्रेस की इस ताकत को स्वीकार करना चाहिए, न कि इसे उद्दंडता से खारिज किया जाना चाहिए.
- कांग्रेस ने 2009 में कुर्मी समुदाय के बीच अच्छी पैठ बनाई थी: 2007 से 2009 के बीच कुर्मी समुदाय के बीच कांग्रेस का जनाधार सबसे अधिक (22 पर्सेंट तक) बढ़ा था. पार्टी के पास छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के रूप में इस जाति के भूपेश बघेल जैसे कद्दावर नेता हैं. भारतीय राजनीति में ये चीजें काफी मायने रखती हैं.
- 2009 में कई वर्गों में कांग्रेस ने पहुंच बनाई थी: सवर्ण (19 पर्सेंट की बढ़ोतरी), ब्राह्मण (13 पर्सेंट की वृद्धि) और मुस्लिम, गैर-जाटव अनुसूचित जाति और जाटों में हरेक वर्ग में उसका वोट शेयर 11 पर्सेंट बढ़ा था. राहुल-प्रियंका की लीडरशिप में इसमें से एक हिस्सा कांग्रेस के पास वापस लौट सकता है.
- एसपी, बीएसपी, कांग्रेस अलायंस से मुस्लिम वोटरों को खुशी होगी: 20 पर्सेंट मुस्लिम वोट बैंक गेमचेंजर साबित हो सकता है. अगर आप इसमें दलित, यादव,कुर्मी, सवर्ण वोट बैंक को जोड़ दें तो अलायंस को अप्रत्याशित जीत मिल सकती है.
- महिला और युवा वोटर आसानी से शिफ्ट हो सकते हैं: उम्रदराज पुरुष वोटरों की तुलना में यह वर्ग नए राजनीतिक ग्रुप के साथ प्रयोग करता रहता है. यूपी में पुरुषों की तुलना में पहले ही अधिक महिलाएं वोट डाल रही हैं. जरा सोचिए, आपके, प्रियंका, राहुल और मेरे फोटो एक पोस्टर पर हों तो क्या कमाल होगा.
- इंडिया टुडे और सी-वोटर के सर्वे में बीजेपी के सफाये का दावा: दोनों सर्वे में यूपी में महागठबंधन को 50 पर्सेंट से अधिक वोट मिलने का दावा किया गया है. इनमें कहा गया है कि बीजेपी को इससे 10-15 पर्सेंटेज प्वाइंट्स कम वोट मिलेंगे. इंडिया टुडे के सर्वे में तो कहा गया है कि महागठबंधन को 75 और बीजेपी को सिर्फ 5 सीटें मिलेंगी.
- सीटें जितनी हों, उतना अच्छा: बुआ, अगर कांग्रेस अलग लड़ती है तो हम दोनों 22-25 सीटें जीत सकते हैं, लेकिन अगर हम उसे सम्माजनक 22 सीटों पर लड़ने का मौका देते हैं तो हम दोनों को 30-30 सीटें मिलनी तय हैं.
चाय पर चर्चा के अंतिम सवाल-जवाब
मुझे यकीन है कि अखिलेश यादव की बातें मायावती ध्यान से सुनेंगी और चाय की आखिरी चुस्की के साथ वह पूछेंगी, ‘कांग्रेस को वोट बीएसपी और एसपी को ट्रांसफर हो, यह आप कैसे पक्का करेंगे?’ अखिलेश बड़ी समझदारी से इसका यह जवाब देंगेः ‘जैसे हम और आप अपना वोट एक दूसरे को ट्रांसफर कराएंगे. जनता हमेशा ताकतवर और जीतने वाले नेताओं की सुनती है. पहले से उलट अब कांग्रेस के पास राहुल और प्रियंका हैं, जो अपने समर्थकों से कहेंगे कि अगर आप हमारे सहयोगियों के लिए वोट करेंगे तो असल में आप हमारे लिए वोट कर रहे होंगे. पहले कांग्रेस की बातों पर लोग भरोसा नहीं करते थे, लेकिन अब वे उस पर ऐतबार करेंगे.’ इस सवाल का मायावती क्या जवाब देंगी?
यह तो एक अरब वोट का सवाल है.
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Dear Akhilesh, Introduce Rahul and Priyanka to Deputy PM Mayawati
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