आज भीमराव रामजी अंबेडकर (Ambedkar) (14 अप्रैल 1891 से 6 दिसंबर 1956) की 131वीं जयंती है, भीमराव रामजी अंबेडकर को देशभर में 'बाबासाहेब' के नाम से जाना जाता है. कुछ लोगों द्वारा यह तर्क दिया जा सकता है कि स्वतंत्र भारत की सामाजिक, कानूनी, आर्थिक और राजनीतिक नींव में अंबेडकर के कार्य, विरासत और योगदान की शायद किसी से तुलना ही नहींं की जा सकती है. कुछ लोग तो उनके योगदान को गांधी से भी बड़ा मानते हैं.
इतिहासकार और गांधी की जीवनी के लेखक रामचंद्र गुहा ने अपनी पुस्तक 'गांधी: द इयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड (1914-1948)' के अंबेडकर के साथ तर्क नामक एक चैप्टर में लिखा है कि
'अपने से अधिक मुखर सुधारकों जैसे कि नारायण गुरु और अनुयायियों व सबसे हालिया अंबेडकर से प्रत्यक्ष रूबरू होने का ही परिणाम रहा कि इसने जाति के बारे में गांधी की (स्वयं की) समझ को बदल दिया. इससे जाति को लेकर पूर्वाग्रहों और बहिष्कार को चुनौती देने की उनकी (गांधी की) इच्छा बढ़ गई. बीआर अंबेडकर के जन्म और उसके बाद के करियर का गांधी पर काफी अधिक प्रभाव पड़ा, जितना वे कई बार स्वीकार करने को तैयार थे.
अंबेडकर का समाजवाद : 'व्यावहारिक, हठधर्मिता नहीं'
अंबेडकर पारंपरिक समाजवादी नहीं थे, लेकिन उनका झुकाव विकासवादी समाजवाद की ओर था. उन्होंने खुद अपने विचारों को विकसित किया और अपने तरीके से एक 'समाजवादी' के रूप में उभरे. जाति-प्रेरित सामाजिक और आर्थिक असमानता या समुदायों के जाति-आधारित शोषण को पहचानने और सुधारने के लिए उनके विचारों को उनके सभी कार्यों में अनुभवजन्य-आलोचनात्मक तरीके से सामने लाया गया.
विवेक श्रीवास्तव के तर्क के अनुसार "अंबेडकर का समाजवाद" "नया और स्वदेशी" था. "यह हठधर्मिता के बजाय व्यावहारिक है," वे कहते हैं कि "यह मानवीय है, हिंसक नहीं."
अब तक यहां मैंने अंबेडकर के बारे में जो कुछ कहा है, वह बहुत प्रसिद्ध है, जिसमें उनकी शिक्षाएं और मुख्यधारा की सामाजिक बहस में हस्तक्षेप शामिल हैं.
हालांकि, अंबेडकर के काम का एक अहम पहलू ऐसा भी रहा है जिस पर मुख्यधारा में बहुत कम या सीमित ध्यान दिया गया है. वह पहलू है महिलाओं के अधिकारों के लिए उनका दृढ़ समर्थन और योगदान. 1920 और 1930 के दशक के सामाजिक आंदोलनों और भारत के आधुनिक नारीवादी विचार को आकार देने में उनकी व्यापक भूमिका रही है.
अंबेडकर बतौर फेमनिस्ट
राधा कुमार द्वारा द हिस्ट्री ऑफ डूइंग में भारत में नारीवादी आंदोलनों के इतिहास की चार्टिंग की गई है, इसके अनुसार 19वीं शताब्दी को एक ऐसे समय के रूप में देखा जाता है जब केवल कुछ सुधारों के द्वारा ही महिलाओं के "अधिकार" और "गैर-बराबरी" प्रमुख मुद्दे बन गए.
कुमार के अनुसार 19वीं सदी के अंत तक ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में महिलाओं की भलाई में सुधार के लिए सभी सामाजिक समूहों की महिलाओं ने विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में शामिल होना और आंदोलनों को शुरु करना प्रारंभ कर दिया था. 20वीं सदी की शुरुआत में महिलाओं के स्वयं के स्वायत्त संगठनों के विभिन्न स्वरूप उभरे, जिससे 1920, 1930 और 1940 के दशक के अंत में "महिला सक्रियता" नाम की एक विशेष श्रेणी की अनुमति मिली.
समान व्यवहार और अवसर सुनिश्चित करने के संदर्भ में इस अवधि में यानी 20वीं सदी की शुरुआत में महिलाओं के अधिकारों और उनके कारणों की वकालत करने में अंबेडकर की अपनी भागीदारी व भूमिका महत्वपूर्ण है.
'मूक नायक' और 'बहिष्कृत भारत' के दिनों से ही अंबेडकर के कार्यों में महिलाओं का उत्पीड़न एक प्रमुख विषय रहा है. महिलाओं के मुद्दों को कवर करने के लिए समर्पित खास सेक्शन के साथ समाचार पत्र (मूक नायक, बहिष्कृत भारत) स्थापित करने के उनके अपने लेखन और प्रयास तुलसीबाई बंसोडे (पहली बार 1913 में महाड सभा में भाग लेने वाले) जैसे समाज सुधारकों के पहले के कार्यों से प्रेरित थे. जिन्होंने 'चोखमेला' जैसे अखबार की शुरुआत की थी.
मीनाक्षी मून जैसी महिला लेखकों ने हाल के दशकों में दलित महिलाओं की ऐतिहासिक स्थितियों के बारे में लिखने और यहां तक कि आमी मैतारानी (हमारी महिला सहेली) जैसी पत्रिकाओं को चलाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है.
मनु ने जिस तरीके से महिलाओं की प्रतिष्ठा और पद का विवरण दिया है उसके जवाब में 1920 के दशक की शुरुआत में अंबेडकर लिखते हैं कि 'क्या कोई इस बात से इंकार या संदेह कर सकता है कि भारत में महिलाओं (और उनकी स्थिति) के पतन के लिए मनु जिम्मेदार थे?' अंबेडकर ने 1927 में 3 हजार से अधिक महिलाओं की एक सभा को संबोधित करते हुए प्रसिद्ध रूप से कहा था कि 'मैं एक समुदाय की सफलता का मूल्यांकन महिलाओं की प्रगति की डिग्री से करता हूं.' अंबेडकर ने अपने पिता को जो पत्र लिखे थे, उसमें से कुछ में महिलाओं के अधिकारों और लैंगिक समानता के बारे में उनकी चिंता दिखाई देती है.
कमाटीपुरा में अंबेडकर का भाषण
मानव गरिमा को महत्व देने पर (खास तौर पर किसी व्यक्ति को दूसरों के नजरिए से कैसे देखा व माना जाता है के संदर्भ में) अंबेडकर के अथक जोर ने भारतीय महिलाओं को भेदभावपूर्ण हिंदू कोड और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता द्वारा लगाए गए जाति और वर्ग-आधारित दासता की पूर्व-मौजूदा बाधाओं को तोड़ने के लिए प्रेरित किया.
उनके अनुसार ऐसा करने का तरीका पितृसत्तात्मक मानदंडों और प्रथाओं (स्वयं मनु की तरह) का प्रचार करने वाले ग्रंथों की सार्वजनिक रूप से निंदा करना और महिलाओं की शिक्षा और कल्याण पर बेजोड़ व बेमिसाल ध्यान देना था. वह हर महिला को उसकी सामाजिक स्थिति के बावजूद, उनके बुनियादी सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अधिकारों, जिसमें संपत्ति का अधिकार और राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदारी आदि शामिल हैं, को धीरे-धीरे साकार करने में सहायता करने में विश्वास करते थे.
1936 में कमाटीपुरा में वाघ्य, देवदासी, जोगिनी और अराधी महिलाओं को संबोधित करते हुए दिए गए एक भाषण में अंबेडकर ने देवदासी महिलाओं (आमतौर पर दलित और अन्य उत्पीड़ित जातियों से आने वाली महिलाएं) से हिंदू मंदिरों में देवताओं के समक्ष लड़कियों को वयस्क होने से पहले 'अर्पित' किए जाने वाली और 'समुदाय के सदस्यों के लिए सेक्सुअली तौर पर मौजूद रहने' जैसी पहले से चली आ रही प्रथा को तोड़ने और छोड़ने का आह्वान किया.
उन्होंने कहा 'अब आप मुझसे पूछेंगे कि हम अपना जीवन यापन कैसे करेंगे. इस बारे में मैं आपको कुछ नहीं बताउंगा. जीवन यापन करने के सैकड़ों तरीके हैं. यहां मैं केवल इस बात पर जोर दूंगा कि आप इस अपमानित जीवन को छोड़ दें... और इस तरह की परिस्थितियों में न रहें जो आपको अनिवार्य रूप से वेश्यावृत्ति की ओर घसीटे.'
अपनी अधिकांश संसदीय चर्चाओं और भाषणों में अंबेडकर ने महिलाओं और उनके मूल अधिकारों से जुड़े मुद्दों को लगातार उठाया और उस पर बात की. 1920, 1930 और 1940 के दशक के अंत के दौरान एक निश्चित सीमा तक इसने उस समय के महिला सुधारकों के काम के लिए अधिक से अधिक सार्वजनिक समर्थन को उत्प्रेरित करने में मदद की. इसके साथ ही संगठित सत्याग्रहों में महिलाओं की भागीदारी, विशेष रूप से कम सुविधा वाले समूहों से आने वाली महिलाओं की भागीदारी का विस्तार किया.
उदाहरण के लिए मंदिर में प्रवेश की मांग करने वाले प्रसिद्ध महाड सत्याग्रह (1927) में मनुस्मृति को जलाने के लिए कई पिछड़ी जातियों की महिलाओं ने एक साथ हिस्सा लिया था. शांदाबाई शिंदे इस सत्याग्रह में हिस्सा लेने वाली महिलाओं में से एक थीं.
कालराम मंदिर सत्याग्रह (1930) नासिक में 500 से अधिक महिलाओं ने हिस्सा लिया था. यह आंदोलन महिलाओं की समानता (समान व्यवहार) को बहाल करने के लिए चलाया गया था. अंबेडकर की पत्नी रमाबाई अंबेडकर जनवरी 1928 में बॉम्बे में स्थापित किए एक महिला संगठन की अध्यक्ष चुनी गईं थीं.
1928 का मेटरनिटी बिल
ब्रिटिश भारत के पहले भारतीय न्याय और कानून मंत्री के रूप में अंबेडकर ने बॉम्बे की विधान सभा में महिलाओं के लिए परिवार नियोजन उपायों के लिए लड़ाई लड़ी.
विधान सभा में उन्होंने जिस तर्क के साथ 1928 में एक मातृत्व लाभ विधेयक (मेटरनिटी बेनेफिट बिल) प्रस्तुत किया था वो इस तरह था :
'यह राष्ट्र के हित में है कि मां को अपनी गर्भावस्था के दौरान और प्रसव बाद में भी निश्चित समयावधि तक आराम मिलना चाहिए. यह विधेयक (मातृत्व विधेयक) का सिद्धांत पूरी तरह से उस सिद्धांत पर आधारित है... ऐसे में, सर मैं यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हूं कि इसका (बिल को तैयार करने और पारित होने) भार काफी हद तक सरकार द्वारा वहन किया जाना चाहिए. मैं इस तथ्य को स्वीकार करने को तैयार हूं क्योंकि सरकार की प्राथमिक चिंता लोगों के कल्याण का संरक्षण है... और आप देखेंगे कि हर देश में सरकार से मातृत्व लाभ के संबंध में एक विशेष राशि ली जाती है.'
अंबेडकर ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी का सामना कैसे किया?
हिंदू कोड बिल (1948) के बारे में बोलते हुए संविधान सभा में अंबेडकर ने सदस्यों से एक सामान्य कोड बनाने का आग्रह किया जो हिंदू कानून की प्रतिगामी प्रथाओं को एक सुधारात्मक कोड के साथ बदल देगा. इसमें संपत्ति के समान अधिकार, मृतक की संपत्ति के विभिन्न उत्तराधिकारियों के बीच उत्तराधिकार के आदेश, भरण-पोषण, विवाह और तलाक समेत सात प्रमुख मुद्दों को संबोधित किया गया था.
मुखर्जी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) के बहुत नजदीक थे. कोड बिल (1951 में प्रस्तुत) के संशोधित मसौदे में विवादित प्रावधानों पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ उनका (अंबेडकर का) सीधा टकराव था. इन प्रावधानों में अहम मुद्दा एकल विवाह प्रथा से जुड़ा था.
मुखर्जी ने कोड बिल पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि 'महिलाओं को तलाक का अधिकार देना बिल्कुल भी स्वीकार्य नहीं था... विवाह की पवित्र प्रकृति एक विचारधारा है जो लाखों लोगों के दिमाग में गहराई से बैठी हुई है. यह हिंदू विवाह का अनिवार्य और पवित्र स्वरूप है.'
अंबेडकर ने मुखर्जी से सवाल करते हुए पूछा कि यह देखते हुए कि 90 प्रतिशत शूद्रों ने अपनी परंपरा और प्रथा में महिलाओं के तलाक के अधिकार को स्वीकार किया. वह (मुखर्जी) किन हिंदुओं का जिक्र कर रहे थे. उन्होंने (अंबेडकर ने) आगे कहा 'कम शब्दों में कहा जाए तो संस्कारिक विवाह पुरुष के लिए बहुविवाह है और पत्नी के लिए आजीवन दासता'
हिंदू रूढ़िवादी वर्गाें के दबाव के कारण अंततः कोड बिल को पारित नहीं किया जा सका. अंबेडकर ने उस समय कानून मंत्री के रूप में अपने इस्तीफे के कई कारणों का हवाला दिया, जिसमें यह भी शामिल है कि कैसे स्वतंत्र भारत की संसद ने विधेयक को पारित न करके अपनी महिलाओं नागरिकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया.
महिला अधिकारों के लिए अंबेडकर का योगदान जारी रहा
इन सबके बाद भी भारतीय संविधान के निर्माता के तौर पर महिलाओं के लिए योगदान जारी रहा. संविधान में निहित कुछ अनुच्छेद एक नारीवादी दृष्टिकोण प्रदान करते हैं.अनुच्छेद 14,15,15 (3), 16, 23, 39 (a,d), 42, 51 A (e) के तहत जो प्रावधान संविधान में सूचीबद्ध किए गये हैं वे दोनों महिलाओं के लिए समान अधिकारों और अवसरों की स्पष्ट रूप से रक्षा करते हैं.
स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में इन प्रावधानों में से अधिकांश को महिलाओं और उनकी स्वतंत्र एजेंसी के व्यक्तिगत और सामूहिक हितों की रक्षा, सुरक्षा और उन्हें बढ़ावा देने के लिए कानूनी अधिनियमों में लागू किया गया है. जिन्हें विशेष तौर पर श्रम और पारिवारिक कानून के मामलों में देखा जाता है.
गहन - चिंतन करने पर यह देखने को मिलता है कि अंबेडकर का नजरिया ब्राह्मणवादी संहिताओं या नियमों (ब्राह्मणवादी कोडों) द्वारा लगाए गए पितृसत्तात्मक मानदंडों को तोड़ने के लिए महिलाओं को उनके स्वतंत्र प्रयास में सक्षम बनाने की आवश्यकता से परे था.
अंबेडकर का नजरिया व जोर इस पर था कि एक सामूहिक, भाई-चारे वाला संगठन बने जिसका नेतृत्व और प्रबंधन महिलाओं द्वारा किया जाए. सामाजिक मुद्दों पर आत्म-जागरूकता पैदा करते हुए महिलाओं की शिक्षा और उनकी भलाई को बढ़ावा दिया जाए. यह भारत के अभी भी विकासशील समाज में सुधार के लिए महत्वपूर्ण है.
जैसा कि आज हम बाबासाहेब की 131वीं जयंती मना रहे हैं ऐसे में उन्हें और उनके योगदान को देखने के लिए मुख्यधारा से बाहर देखना महत्वपूर्ण है. वह आधुनिक भारतीय नारीवादी विचारों और नारीवादी आंदोलन को आकार देने वाले एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे.
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