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नागपुर में प्रणब: गोलवलकर का जवाब आंबेडकर हैं, गांधी नहीं

गांधी, नेहरू, हेडगेवार और गोलवलकर की राष्ट्र की परिभाषा में बहुत समानताएं हैं लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर की सोच अलग है

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गांधी-नेहरू-हेडगेवार-प्रणब इन सबके पास भारत का अतीत गौरवशाली है, इसलिए वे हमेशा पीछे मुड़कर किसी राम राज्य की तरफ देखते हैं. वहीं, बाबा साहेब के पास ऐसा कोई शानदार अतीत नहीं है इसलिए वे एक आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की कामना करते हैं, जो अतीत की बुराइयों और सामाजिक-आर्थिक भेदभाव से मुक्त हो.

प्रणब मुखर्जी ने नागपुर के संघ मुख्यालय में एक ऐसा भाषण दिया है, जिसमें दी गई भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा और व्याख्या से कांग्रेस और आरएसएस-बीजेपी दोनों न सिर्फ संतुष्ट हैं, बल्कि इसे अपनी जीत के तौर पर देख और दिखा रही हैं.

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प्रणब मुखर्जी ने भारतीय राष्ट्र के बारे में आखिर ऐसा क्या कह दिया, जिससे न कांग्रेस को शिकायत है न आरएसएस-बीजेपी को? प्रणब मुखर्जी की भारतीय राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है? क्या संघ के संस्थापक और विचारक हेडगेवार और गोलवलकर भी भारतीय राष्ट्र को उसी नजरिए से देखते थे, जिस नजरिए से गांधी और नेहरू देखते थे?

यह लेख इस मान्यता के साथ लिखा गया है कि गांधी, नेहरू, हेडगेवार और गोलवलकर की राष्ट्र की परिभाषा में बहुत ज्यादा समानताएं हैं. प्रणब मुखर्जी इसी कॉमन ग्राउंड पर खड़े हैं इसलिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों को उस भाषण से कोई दिक्कत नहीं हो रही है.

इसलिए अगर राष्ट्र को किसी और नजरिए से देखना है तो उसे कांग्रेस और आरएसएस की परंपरा से बाहर देखना होगा. आपकी यह खोज आपको हमारे ही समय के मूर्धन्य विचारक बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के पास ले जाएगी. उनका यह नजरिया क्या है, इसे जानने के लिए एक और भाषण का ही सहारा लेते हैं. यह भाषण बाबा साहेब ने भारत की संविधान सभा में 25 नवंबर, 1949 को दिया था. यह संविधान सभा में दिया गया उनका आखिरी भाषण था.

बाबा साहेब किसी महान भारतीय सभ्यता की बात नहीं करते. भारत का इतिहास उनके लिए कोई शानदार कहानी नहीं है. बल्कि वे उन कमियों की बात करते हैं जिनकी वजह से भारत पहले कभी आजाद देश था. लेकिन अपने ही लोगों की धोखाधड़ी के कारण उसने अपनी आजादी गंवा दी थी. वे कहते हैं- जब मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध पर हमला किया, तो राजा दाहिर के सेनापतियों ने कासिम से रिश्वत ले ली और युद्ध लड़ने से मना कर दिया.

1. भारत पर हमला करने के लिए मोहम्मद गोरी को जयचंद ने ही न्यौता दिया था. वहीं, जब शिवाजी मुगलों से लड़ रहे थे तो दूसरे मराठा और राजपूत सरदार मुगल बादशाह के पक्ष में युद्ध कर रहे थे. जब ब्रिटिश सिख शासक गुलाब सिंह को बर्बाद करने की लड़ाई लड़ रहे थे तो उनके सेनापति निष्क्रिय हो गए. 1857 में जब भारत के एक हिस्से ने खुद को आजाद घोषित कर दिया तो सिख चुपचाप देखते रहे. बाबा साहेब चिंता जताते हैं कि क्या भारत आगे भी ऐसी वजहों से अपनी आजादी खो देगा.

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गांधी, नेहरू, हेडगेवार और गोलवलकर की राष्ट्र की परिभाषा में बहुत समानताएं हैं लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर की सोच अलग है
बाबा साहेब किसी महान भारतीय सभ्यता की बात नहीं की थी
(फोटो: विकीपीडिया कॉमंस) 

2. बाबा साहेब आगे कहते हैं कि अतीत की उन समस्याओं के अलावा हमारे यहां जाति और आस्था के आधार पर भेदभाव है. भारत के गणतंत्र बनने से पहले ही वे आशंका जताते हैं कि इन भेदभाव की वजह से हमारे देश में ढेर सारी राजनीतिक पार्टियां होंगी. वे पूछते हैं कि ये राजनीतिक पार्टियां देश को ऊपर रखेंगी या अपनी जाति और आस्था को?

3. वे कहते हैं कि भारत में लोकतांत्रिक परंपराएं पहले भी थीं. उसकी मिसालें बौद्ध संघों में मिलती हैं. संविधान में कई बातें बौद्ध संघों की कार्यप्रणाली से ली गई हैं लेकिन उन बातों और परंपराओं को काफी पहले भुला दिया गया है. लोगों के लिए लोकतंत्र एक नई चीज है और यह खतरा है कि इसका पतन तानाशाही में हो जाए.

लोकतंत्र की रक्षा के लिए वे तीन उपाय सुझाते हैं. एक, अपनी मांगें मनवाने के लिए गैरसंवैधानिक तरीकों को अपनाने का निषेध. दो, व्यक्ति पूजा का निषेध और तीन, सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना.

4. बाबा साहेब के नजरिए से सामाजिक लोकतंत्र के लिए स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना आवश्यक है. बाबा साहेब कहते हैं कि भारतीय समाज में समानता का घोर अभाव है. भारतीय समाज ऊंच और नीच के क्रमिक भेदभाव में बंटा हुआ है. आर्थिक स्तर पर गरीब और अमीर का भेद बहुत ज्यादा है.

26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों के दौर में प्रवेश करने वाले हैं. राजनीतिक स्तर पर देश में समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक स्तर पर असमानता होगी. राजनीति में हम एक आदमी एक वोट और हर वोट का बराबर मूल्य का सिद्धांत मानेंगे लेकिन सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में हर व्यक्ति समान नहीं होगा.
बाबा साहेब आंबेडकर

बाबा साहेब चेतावनी देते हैं कि अगर इस भेदभाव को खत्म न किया गया तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा.

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बाबा साहेब कहते हैं कि समानता के अभाव के साथ-साथ हमारे समाज में बंधुत्व का भी अभाव है. वे पूछते हैं कि हजारों जातियों में बंटे लोगों में बंधुत्व का भाव कैसे पैदा हो सकता है? बाबा साहेब कहते हैं कि “जातियां दरअसल राष्ट्रविरोधी हैं” क्योंकि वे सामाजिक जीवन में भेद पैदा करती हैं.

6. बाबा साहेब बताते हैं कि कुछ नेताओं को संविधान में “पीपुल ऑफ इंडिया” यानी “भारत के लोग” शब्द के इस्तेमाल पर एतराज था. वे चाहते थे कि इसके बदले “भारतीय राष्ट्र” शब्द का प्रयोग किया जाए. बाबा साहेब के मुताबिक यह मानना कि हम एक राष्ट्र हैं, दरअसल खुद को भ्रम में रखना है.

वे कहते हैं-

हजारों जातियों में बंटे लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? हम जितनी जल्दी यह मान लेंगे कि हम अब तक एक राष्ट्र नहीं बन पाए हैं, उतना ही हमारे लिए अच्छा होगा.

इसके मुकाबले प्रणब मुखर्जी के नागपुर अभिभाषण को फिर से सुनें जो कांग्रेस और आरएसएस-बीजेपी दोनों को पसंद आ रहा है. उनके भाषण के कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं.

गांधी, नेहरू, हेडगेवार और गोलवलकर की राष्ट्र की परिभाषा में बहुत समानताएं हैं लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर की सोच अलग है
नागपुर में संघ के कार्यक्रम में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
(फोटोः PTI)
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1. प्रणब मुखर्जी भारत के राजनीतिक इतिहास की शुरुआत लगभग ढाई हजार साल पहले महाजनपदों के दौर और बौद्धकाल से मानते हैं और प्रमाण के तौर पर मेगस्थनीज से लेकर ह्वेन सांग जैसे विदेशी यात्रियों के विवरणों का हवाला देते हैं. वे बताते हैं कि इस दौर में भारत शिक्षा का केंद्र था और इसी दौर में अर्थशास्त्र जैसी रचनाएं लिखी गईं. वे कहते हैं कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से लेकर अगले 1800 साल तक भारत शिक्षा का केंद्र रहा. यानी वे ईस्वी सन 1200 तक के समय को को भारत का महान युग मानते हैं.

(गौर करें कि यही वह समय है जब भारत में मुसलमान शासकों का दौर शुरू हुआ, जिनके लिए प्रणब मुखर्जी मुस्लिम हमलावर शब्द का प्रयोग करते हैं. लेकिन प्रणब मुखर्जी इतिहास में और पीछे नहीं जाते, वरना उन्हें ‘आर्यों का भारत पर आक्रमण हुआ था या नहीं,’ इस विवाद में एक पक्ष लेना पड़ता.)

2. प्रणब मुखर्जी कहते हैं कि यूरोप में राष्ट्र राज्यों के अभ्युदय से पहले ही भारत एक देश था, जहां वसुधैव कुटुंबकम् और सर्वे भवन्तु सुखिन का उद्घोष होता था. लोगों की भाषाएं और उनके धर्म अलग-अलग थे, लेकिन एक साझा राष्ट्रीय चेतना थी. प्रणब मुखर्जी का भारत हमेशा से एक सहिष्णु राष्ट्र रहा है, जहां विविधता का आदर होता है. हमलावर और विदेशी सभ्यताएं आती रहीं, लेकिन वे भारत नाम के महासमुद्र में मिलती रहीं.

वहीं, बाबा साहब किसी काल्पनिक सहिष्णु भारत की बात कभी नहीं करते. बाबा साहेब के लिए भारतीय राष्ट्र कोई काल्पनिक पांच हजार साल पुराना विचार नहीं है. उनका भारत एक वास्तविक विचार है, जिसे हासिल किया जाना है और इसके लिए प्रयास करने की जरूरत है.

3. प्रणब मुखर्जी जिस विविधतापूर्ण भारत की बात कर रहे हैं, उसमें उनके मुताबिक 122 भाषाएं, 1600 बोलियां और 7 बड़े धर्म हैं. इसके अलावा तीन नस्ल- आर्य, द्रविड़ और मंगोल नस्ल के लोग यहां रहते हैं. इन सबकी पहचान भारतीय है और इनके बीच कोई शत्रुता नहीं है. बाबा साहेब इन विविधताओं के शत्रुतापूर्ण अतीत को स्वीकार करते हैं और उन्हें स्वीकार करते हुए एक राष्ट्र बनाने की कल्पना करते हैं. प्रणब मुखर्जी के राष्ट्र में तमाम विविधताओं का उल्लेख है. लेकिन जाति भेद का जिक्र नहीं है. जबकि बाबा साहेब जाति को भारतीय राष्ट्र के निर्माण की सबसे बड़ी समस्या मानते हैं.

गांधी, नेहरू, हेडगेवार और गोलवलकर की राष्ट्र की परिभाषा में बहुत समानताएं हैं लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर की सोच अलग है
RSS के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
(फोटोः PTI)
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4. प्रणब मुखर्जी के मुताबिक शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, करुणा, जीवन के प्रति सम्मान और प्रकृति के साथ समरसता भारतीय सभ्यता के बुनियादी तत्व हैं. वे अपने भाषण में इसे बनाए रखने की अपील करते हैं. बाबा साहेब साफ कहते हैं कि भारत में लोग आपस में टकराते रहे हैं. खासकर जाति के आधार पर तो लगातार एक दूसरे से नफरत करते रहे हैं.

प्रणब मुखर्जी का यह भाषण ही दरअसल भारत का प्रभावशाली और मुख्यधारा का चिंतन है. गांधी-नेहरू और हेडगेवार-गोलवलकर इस बिंदु पर एकमत है कि भारत एक प्राचीन राष्ट्र है, यह हमेशा से एक रहा है, यह एक प्राचीन सभ्यता है, जिसका मूल आधार हिंदू धर्म है, जिसे अब धर्म नहीं, जीवन पद्धति कहा जा रहा है.

आखिरी वाली बात कई बार खुलकर कही नहीं जाती. लेकिन भेदभाव को स्वीकार कर, उसे मिटाने का उपाय किए बगैर एकता की बात करना. दरअसल भेदभाव को हमेशा के लिए बनाए रखने की रणनीति होती है, जिसके शिखर पर हमेशा सबसे प्रभावशाली समुदाय बैठा होता है. यह बाबा साहेब का तरीका नहीं है.

सवाल उठता है कि संघ और गांधीवाद इतने एक से हैं तो अलग क्यों दिखते हैं? दरअसल इनके बीच विचारधारा से कहीं अधिक कार्यप्रणाली, भाषा और रणनीति का अंतर है. यह रघुपति राघव राजा राम के मधुर भजन और जय श्रीराम के उग्र और हिंसक नारे का अंतर है. लेकिन राम दोनों के पास हैं. ये दोनों नदियां एक ही समुद्र से निकली दो धाराएं हैं, जिसे गांधी राम राज्य और हेडगेवार हिंदुस्थान कहते हैं. दोनों के राष्ट्रवाद के केंद्र में गाय है, गंगा है, हिंदी है, हिंदू है, वर्णव्यवस्था है, मनु है, मर्दवाद है.

बाबा साहेब इन चक्करों में नहीं पड़ते. बाबा साहेब मानते हैं कि भारत के अतीत में बहुत समस्याएं रही हैं, लेकिन अब उसे एक राष्ट्र बनना है, जिसके लिए समाज में समानता और बंधुत्व जरूरी है और यह काम समाज की बुराइयों और असमानताओं को दूर किए बिना संभव नहीं है.

(दिलीप मंडल सीनियर जर्नलिस्‍ट हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्‍व‍िंट की सहमति होना जरूरी नहीं है. आर्टिकल की कुछ सूचनाएं लेखक के अपने ब्लॉग पर छपी हैं)

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