बीजेपी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने तीन साल तक तमाम पिछड़ी जातियों का भला किया! अब वह अति पिछड़ों का अलग से भला करेगी!
बीजेपी को लगता है या फिर वह बताना चाहती है कि अति पिछड़ों का भला इसलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि ओबीसी में कुछ जातियां बहुत ताकतवर हो गई हैं और वे अति पिछड़ों का हक मार ले रही हैं. बीजेपी यह संदेश दे रही है कि वह अति पिछड़ों को पिछड़ों से बचाना चाहती है.
बीजेपी अति पिछड़ों तक इस संदेश को पहुंचाने के लिए इतनी गंभीर है कि केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों में से अति पिछड़ी जातियों की पहचान करने और उनको अलग से आरक्षण देने के लिए एक आयोग का गठन कर दिया है. 2 अक्टूबर, 2017 को गठित यह आयोग 12 हफ्ते के अंदर अपनी रिपोर्ट सौंप देगा.
इस आयोग को तीन काम सौंपे गए हैं. एक, ओबीसी को मिलने वाले लाभ के बंटवारे में कैसा अन्याय हो रहा है. दो, ओबीसी का बंटवारा किस आधार पर होगा और तीन, इन कटेगरी की पहचान कैसे की जाएगी.
आयोग की अध्यक्षता रिटायर्ड जस्टिस जी. रोहिणी कर रही हैं. एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के डायरेक्टर, रजिस्ट्रार जनरल-जनगणना आयुक्त और आरएसएस से जुड़े विचारक जेके बजाज आयोग के सदस्य होंगे. सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के संयुक्त सचिव इस आयोग के सेक्रेटरी का कार्यभार संभालेंगे.
बीजेपी को लगता है कि इस तरह वह अति पिछड़ी जातियों को आकर्षित करके उनका वोट हासिल कर लेगी और 2019 के लोकसभा चुनाव में उसकी नाव इस बूते पार लग जाएगी. जाहिर है कि 2019 के पहले बीजेपी अपने पक्ष में हवा बनाने के लिए और भी बहुत कुछ करेगी, लेकिन जाति और समाज के स्तर पर देखा जाए तो ओबीसी जातियों को केंद्रीय स्तर पर दो या अधिक हिस्सों मे बांटने के लिए आयोग का गठन बीजेपी का अब तक का सबसे बड़ा कदम है.
आखिर बीजेपी की क्या है रणनीति
बीजेपी ने 2019 के चुनाव से पहले एक ऐसी चाल चली है, जो दोधारी तलवार साबित हो सकती है. यह कैसी मार करेगी और किसका फायदा और किसका नुकसान करेगी, यह विवाद का विषय है. इस आयोग के गठन के राजनीतिक नफा-नुकसान के सवाल को फिलहाल छोड़ दिया जा सकता है, क्योंकि यह एक नया कदम है और इसकी तासीर का अंदाजा लगाने के लिए तथ्य फिलहाल किसी के पास नहीं हैं.
फिलहाल इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश होनी चाहिए कि बीजेपी ने यह जो कदम उठाया है, उसके पीछे की रणनीति क्या है और क्या बीजेपी वाकई वही चाहती है, जो इसके नेता और मंत्री कह रहे हैं.
इस आयोग के गठन के पीछे मूल स्थापना यह है कि मंडल कमीशन लागू होने के बाद केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू तो हो गया. साल 2006 से केंद्र सरकार के उच्च शिक्षा संस्थानों में भी ओबीसी आरक्षण लागू है, लेकिन इस आरक्षण का लाभ ओबीसी की तमाम जातियों तक नहीं पहुचा. और कुछ तथाकथित ताकतवर ओबीसी जातियों ने आरक्षण का बड़ा हिस्सा खा लिया.
अब अगर कोई पूछे कि किसी को भी ऐसा क्यों लगता है कि ओबीसी की कुछ जातियों ने आरक्षण का ज्यादा हिस्सा खा लिया है, तो इसका जवाब किसी के पास नहीं है.
किसी जाति ने ज्यादा हक लिया, यह पता कैसे चलेगा
अगर कोई पूछे कि क्या किसी के पास भी ऐसा कोई आंकड़ा है, जिससे साबित हो कि ओबीसी आरक्षण का ज्यादा हिस्सा किस जाति या जातियों के हिस्से में आया है, या ओबीसी की कौन सी जातियां आरक्षण का लाभ उठाने से वंचित रह गई हैं, तो पता चलेगा कि यह आंकड़ा किसी के पास नहीं है. जो कुछ है वह तथ्य नहीं है. बस कुछ लोगों को ऐसा लगता है.
यह कहा जा सकता है कि तथ्य नहीं हैं, तभी तो केंद्र सरकार ने आयोग गठित किया है, ताकि आंकड़े जुटाए जा सकें. लेकिन सवाल उठता है कि किसी भी जाति ने ज्यादा हक ले लिया है, यह पता कैसे चलेगा. यह जानने के लिए दो तरह के आंकड़े चाहिए. एक, उस जाति की कुल संख्या कितनी है. और दो, कुल कितनी सरकारी नौकरियां उस जाति के लोगों के पास हैं. यह दोनों आकड़ा जुटाना किसी पांच सदस्यीय आयोग की हैसियत से बहुत बड़ी बात है.
बता दें, केंद्र सरकार ने रोहिणी कमीशन को पिछड़ेपन के आंकड़े जुटाने का जिम्मा नहीं सौंपा है.
भारत में 1931 के बाद से जातियों के आंकड़े नहीं हैं. 1931 में आखिरी बार ऐसी जनगणना हुई, जिसमें देश की तमाम जातियों को गिना गया. 1941 की जनगणना दूसरे विश्वयुद्ध के कारण अस्त-व्यस्त रही और उसके आंकड़े नहीं आए.
1951 की जनगणना आजाद भारत में हुए और उस समय राष्ट्रनिर्माताओं ने यह सोचा कि जाति को नहीं गिनने से जाति खत्म हो जाएगी. या फिर उन्होंने यह सोचा होगा कि जाति के आंकड़े जुटाने और जाति पर बात करने से राष्ट्रीय एकता पर बुरा असर पड़ेगा.
बहरहाल, 1951 से जाति की जनगणना नहीं हो रही है और कोई भी यह बात दावे से नहीं कह सकता कि जाति नहीं गिनने से जातिवाद कमजोर पड़ा है.
किसी के पास किसी जाति के पूरे आंकड़े नहीं
मौजूदा स्थिति यह है कि किसी को नहीं मालूम कि देश में किसी जाति के कितने लोग हैं. यह भी नहीं मालूम कि किस जाति के कितने लोग सरकारी नौकरी में है और उनमें से कितने लोगों ने आरक्षण से नौकरी पाई है. पिछड़ापन या प्रतिनिधित्व का अभाव या प्रतिनिधित्व की अधिकता के बारे में सारी बातें बिना किसी आंकड़े के कही जा रही हैं.
ऐसे में जाहिर है कि रोहिणी आयोग जब यह बताएगा कि ओबीसी में किस जाति को ज्यादा नौकरियां मिली हैं और किन जातियों को कम, तो यह बात किसी तथ्य या आंकड़ों पर आधारित नहीं होगी. यह मामला हर हाल में अदालत में जाएगा और इस बीच में 2019 का चुनाव हो चुका होगा.
इसलिए ओबीसी जातियों के वर्गीकरण का आयोग सामाजिक से कहीं ज्यादा राजनीतिक उद्देश्य से उठाया गया कदम है.
बीजेपी को यह पसंद नहीं है कि ओबीसी एकजुट रहे. उत्तर भारत में, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश में ओबीसी एकता ने पिछले तीन दशक में प्रादेशिक और कई बार राष्ट्रीय राजनीति की दिशा तय की है. बीजेपी इस एकता को तोड़ना चाहती है और ओबीसी में फूट डालना चाहती है.
अति पिछड़ों का कल्याण बीजेपी के लिए एक नारे से ज्यादा कुछ नहीं है. पिछड़ी जातियों या अतिपिछढ़ी जातियों के कल्याण के लिए केंद्र सरकार जमीनी स्तर पर कुछ भी करती नजर नहीं आ रही है. अपने सवर्ण आधार वोट बैंक के नाराज होने के जोखिम की वजह से बीजेपी यह कर भी नहीं सकती. इसलिए उन्होंने अतिपिछड़ी जातियों के सामने एक लॉलीपॉप रख दिया है.
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क्या है ओबीसी आरक्षण की वर्तमान स्थिति
ओबीसी आरक्षण की वर्तमान स्थिति यह है कि तथाकथित ताकतवर जातियों को मिलाकर भी तमाम ओबीसी केंद्र सरकार की नौकरियों में 12% से भी कम है. यह बात अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि ओबीसी की तमाम जातियों का हक किसी ओबीसी जाति ने नहीं मारा है. हक सारी ओबीसी जातियों का मारा गया है और जिन्होंने हक मारा है, उनकी तलाश ओबीसी जातियों से बाहर करनी होगी.
जब तथाकथित ताकतवर ओबीसी जातियों के होते हुए ओबीसी अपना आरक्षण नहीं बचा पा रहे हैं और तब कल्पना की जा सकती है कि ओबीसी को बांटने का नतीजा क्या होगा. जाहिर है कि ओबीसी के 27% कोटे को खाली रखने की जो रणनीति अभी चल रही है उसे ही और पुख्ता करने के लिए ओबीसी को बांटने की कोशिश हो रही है.
ओबीसी आरक्षण में ज्यादा हिस्सा किन जातियों के पास जा रहा है और कौन सी जातियां वंचित रह जा रही हैं, इसकी मीमांसा का काम दरअसल तब शुरू होना चाहिए, जब ओबीसी कोटा भरने लगे. अभी तो कई संस्थानों में खासकर उच्च पदों पर एक भी ओबीसी नहीं है. ऐसे में किस जाति ने ज्यादा खा लिया और किसने कम, जैसे सवाल बेहद शरारतपूर्ण हैं.
अगर इस सवाल का और ऐसे ही तमाम अन्य सवालों का जैसे कि सवर्ण जातियों में ज्यादातर नौकरियां किस जाति के हिस्से जा रही हैं, का जवाब जानना है और जो कि जानना चाहिए, तो इसके लिए जाति जनगणना, 2011 के आंकड़े जारी किए जाने चाहिए. बताना चाहिए कि भारत में किस जाति की संख्या कितनी है और किस जाति के लोगों को कितनी नौकरियां मिली हैं.
इसके बाद सरकार नीति बना सकती है कि ज्यादा हिस्सा खाने वाली जातियों को खास समय अंतराल के लिए नौकरियों से दूर रखा जाए, ताकि नौकरियों में सामजिक संतुलन स्थापित हो और तमाम जातियों की सरकारी नौकरियों में हिस्सेदारी सुनिश्चित की जा सके.
लेकिन सरकार यह नहीं कर सकती. दरअसल सरकार के पास 2011 की जाति जनगणना के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. जाति और बीपीएल जनगणना में जब लाखों की संख्या में गड़बड़ियां पाई गईं और 46 लाख जातियों, उपजातियों और गोत्र के नाम सामने आ गए तो नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष अरविंद पानगड़िया के नेतृत्व में 16 जुलाई, 2015 को एक कमेटी बनाने की घोषणा कर दी गई.
लेकिन ढाई साल बाद भी उस कमेटी के बाकी सदस्यों के नाम घोषित नहीं हुए हैं. पानगड़िया अब नीति आयोग से विदा भी हो चुके हैं. जाहिर है कि मौजूदा सरकार जाति जनगणना के आंकड़े सामने लाने नहीं चाहती.
जाति की गिनती और सरकारी नौकरियों में उनकी मौजूदगी के आंकड़ों को जाने बगैर केंद्र सरकार ने देश को जाति के विवाद में धकेल दिया है. चूंकि आंकड़े नहीं हैं, इसलिए यहां सारे विवाद इस आधार पर तय होंगे कि कौन सी जाति बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती है और सरकार की किस हद तक बांह मरोड़ सकती है. जाट, गुर्जर, कापू और पटेल आंदोलनों में यह हो चुका है. यह जातियुद्ध का रास्ता है. इससे बचना चाहिए.
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