ADVERTISEMENTREMOVE AD
मेंबर्स के लिए
lock close icon

75 साल के भारत से अंबेडकर का सवाल- हाशिए पर पड़ी जातियों तक लोकतंत्र कब पहुंचेगा?

Ambedkar Jayanti 2022: राजनीति से निजी क्षेत्र तक, भारत सामाजिक लोकतंत्र विकसित करने में विफल

Updated
story-hero-img
i
छोटा
मध्यम
बड़ा
Hindi Female

दुनिया भर में प्रजातांत्रिक समतावाद को सच में चाहने वाले लोग आज बाबासाहेब अंबेडकर (B. R. Ambedkar) के 131 जन्मदिन पर उन्हें याद कर रहे हैं. ये एक ऐसा समय है जब प्रतिनिधित्व पर आधारित सामाजिक लोकतंत्र को लेकर उनके दार्शनिक विचारों की दोबारा कल्पना और उन्हें पुनर्जीवित करना और ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाता है. इसकी कल्पना उन्होंने एक सामाजिक संगठन के तौर पर की थी, किसी सरकार के रूप में नहीं और ये जरूरत आज किसी भी समय से ज्यादा है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD
समतावाद पर आधारित प्रजातंत्र को लेकर बाबासाहेब अंबेडकर की परिकल्पना सामाजिक लोकतंत्र को लेकर उनकी उस दार्शनिक समझ से गहरे तक जुड़ी थी जो जाति को मिटा सके और हिंदू समाज में जाति पर आधारित वर्गीकरण और अधिपत्य को तोड़ सके. एक ऐसा समाज जो जन भावना, जन उदारता, नैतिकता और योग्यता से पूरी तरह वंचित है.

डॉ. अंबेडकर ने अपने एक भाषण (जो उन्होंने कभी दिया नहीं) का जिक्र Annihilation of caste में किया कि

हिंदुओं पर जाति का प्रभाव साफ-साफ निंदनीय है. जाति ने जन भावना को मार दिया है. जाति ने जन उदारता की भावना को नष्ट कर दिया है. जाति ने लोगों की राय को असंभव कर दिया है.

हिंदुओं की जनता की अपनी एक जाति है. उनकी जिम्मेदारी सिर्फ उनकी जाति के प्रति है. उनकी निष्ठा सिर्फ उनकी जाति तक सीमित है. सदाचार जाति से भरा हुआ बन गया है और नैतिकता जाति तक सीमित होकर रह गई है.

जो लोग काबिल हैं, उनके लिए कोई सहानुभूति नहीं है. गुणी लोगों के लिए यहां कोई सराहना नहीं है. जरूरतमंदों के लिए उदारता नहीं है. इस तरह की पीड़ा को लेकर कोई जवाब नहीं मिलता. यहां उदारता है, लेकिन ये जाति से शुरू होती है और जाति पर खत्म हो जाती है. यहां सहानुभूति है, लेकिन दूसरी जाति के लोगों के लिए नहीं.

0

डॉ. अंबेडकर जाति पर आधारित हिंदू समाज की कड़ी आलोचना करते थे. उनका मानना था कि एक आदर्श समाज वो है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित हो. लेकिन उनके सबसे प्रमुख समकालीन महात्मा गांधी वर्णाश्रम धर्म के पक्के समर्थक थे और उन्होंने गांवों के लिए ऐसे लोकतंत्र की हिमायत की, जिनकी जड़ें रामराज्य पर आधारित थीं. वो पश्चिम में मॉडर्न संस्कृति के भी आलोचक थे और उन्होंने सर्वोदय के उपदेश दिए.

महात्मा गांधी के रूढ़िवाद और बाबासाहेब अंबेडकर के उदारवादी सिद्धांतों के बीच संघर्ष

जाति को लेकर महात्मा गांधी का रूढ़िवाद बाबासाहेब अंबेडकर के उदारवादी सिद्धांतों के खिलाफ था. जब बाबासाहेब अंबेडकर उत्पीड़न का शिकार हुए अछूतों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग कर रहे थे, महात्मा गांधी ने आमरण अनशन की बात कहकर इसे रोकने की कोशिश की.

राजा शेखर वुंड्रू ने भारत में राजनीतिक आरक्षण के इतिहास पर विस्तृत रिसर्च किया है. वह लिखते हैं, अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग को लेकर गांधी का विरोध इस विचार की वजह से था कि वह अछूतों को हिंदू समाज का आंतरिक हिस्सा मानते थे

ADVERTISEMENTREMOVE AD

दशकों बाद प्रभुत्व वाली हिंदू जातियों की इस जातिगत अशिष्टता को दलित पैंथर्स आंदोलन ने चुनौती दी. इन्होंने अपने घोषणा पत्र में दलितों के राजनीतिक शासन को लेकर एक खुला आह्वान किया और ये था— हम ब्राह्मण पथ में एक छोटी सी जगह नहीं चाहते. हम पूरे देश का शासन चाहते हैं. हृदय परिवर्तन, आजाद ख्याल शिक्षा हमारे शोषण की इस स्थिति का अंत नहीं कर सकती. जब हम एक आंदोलनकारी जनसमूह को जमा कर लेते हैं, लोगों को जगाते हैं तो संघर्ष से ये जन समुदाय आंदोलन की एक विशाल लहर बन जाता है. दलितों के खिलाफ अन्याय को मिटाने के लिए, उन्हें निश्चित ही खुद शासक बनना होगा.

1990 के दशक की शुरुआत में बड़े स्तर पर वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के एजेंडे को लागू किया गया जिससे कर्ज के संकट को दूर किया जा सके, लेकिन इसने अदृश्य रूप से पब्लिक सेक्टर के सिकुड़ते जाने के लिए नींव की तरह काम किया. ये दलितों के लिए तैयार की गईं स्वीकारात्मक नीतियों पर एक बड़ा प्रहार भी था.

चूंकि तेजी से बढ़ता प्राइवेट सेक्टर संवैधानिक रूप से दी गई आरक्षण की नीतियों के दायरे में नहीं आता, ये खुले तौर पर विविधतापूर्ण प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के स्वाभाविक नियम की उपेक्षा करता है. इसके परिणामस्वरूप हर तरह का प्राइवेट सेक्टर तेजी से प्रभावशाली ऊंची जातियों के अधिपत्य वाला क्षेत्र बनकर रह गया.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारत के राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक आरक्षण पर राजनीति एक प्रतीकवाद की तरह रहा है और ये कभी दलितों को राजनीतिक सम्मान देने की तरफ उन्मुख नहीं रहा.

CPI(M) को अपनी शीर्ष निर्णायक इकाई पोलित ब्यूरो में किसी दलित नेता का प्रतिनिधित्व नहीं वाली विरासत को खत्म करने में 58 साल लगे.

वहीं कई प्रमुख जगहों और प्रमुख राजनीतिक दलों में दलित नेताओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही बेकार ढंग से बेहद कम है.

ये उच्च जाति के राजनीतिक नेताओं के लिए एक गंभीर अनुमान होना चाहिए जो पार्टी में उच्च पदों पर बैठे हैं. उत्पीड़ित निचली जातियों के निश्चयात्मक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित किए बिना पार्टियां सत्ता में लोकतंत्र के प्रतिनिधित्व पर आधारित मॉडल का पूरी तरह से अहसास नहीं कर सकतीं.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने हाल में इस बात की तरफ इशारा किया था कि जातिविहीनता (Castelessness) एक ऐसा विशेषाधिकार है, जो सिर्फ ऊंची जातियों के पास है क्योंकि, उनका जातिगत विशेषाधिकार पहले ही सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पूंजी में बदल चुका है.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

भारतीय लोकतंत्र का 75 साल पुराना इतिहास

भारतीय लोकतंत्र के 75 साल पुराने इतिहास को प्रतिनिधित्व के वितरण मॉडल के लेंस से मापने की जरूरत है. यह फौरी तौर पर जाति जनगणना की मांग करता है जो वितरण के लोकतांत्रिक मॉडल की जमीनी वास्तविकताओं को सामने लाएगा.

जाति जनगणना भारत की स्वतंत्रता से ठीक पहले सामाजिक सुधार के एजेंडे को आगे बढ़ाने में राष्ट्रवादियों और उच्च जातियों की अस्वीकृति को भी उजागर करेगा.

हाशियाकरण से मुक्ति का मार्ग भारतीय लोकतंत्र में होने और उससे अपनेपन की भावना के बारे में दलितों और उत्पीड़ित जातियों की धारणाओं के मूल्यांकन के बीच से होकर गुजरता है.

अंत में कहना चाहूंगा कि बाबासाहेब अंबेडकर के लिए एक जातिविहीन लोकतंत्र बनाने का असल समाधान नैतिक प्रतिनिधित्व के इर्द गिर्द गढ़ा हुआ है. इसलिए हिंदू सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करना और शास्त्रों का बहिष्कार जरूरी है.

वो दृढ़ता से ये सोचते थे कि आप जाति के आधार पर किसी भी चीज का निर्माण नहीं कर सकते, आप एक राष्ट्र को नहीं बना सकते, आप नैतिकता को नहीं बना सकते. जो कुछ भी आप जाति को आधार रखकर बनाएंगे, वो टूट जाएगा और कभी भी पूरा नहीं होगा.
ADVERTISEMENTREMOVE AD

वह काफी कठोर ढंग से इस बात पर महात्मा गांधी की आलोचना भी की थी कि शास्त्रों की शुद्धता में यकीन लोगों की सोच को आजाद नहीं कर सकता और इस बात को महसूस न करके बार बार अनदेखा किया जा रहा है.

बाबासाहेब ने कहा कि शास्त्रों के आदेशों को अस्वीकार करने के लिए बुद्ध और गुरू नानक के विचारों का आदर और उनका अनुसरण करें.

(सुभाजीत नस्कर जादवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकाता में अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग के सहायक प्रोफेसर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं)

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

Published: 
सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
अधिक पढ़ें
×
×