अगर एक अमेरिकी डॉलर (American dollar) 80 रुपए का हो जाता है तो इतनी हाय तौबा क्यों? अगर मेरी दादी आज जिंदा होतीं तो यह भोला सा सवाल जरूर करतीं. वैसे अर्थव्यवस्था का जो हाल है, उसे देखते हुए चारों तरफ से हाय-तौबा मची है. नेताओं से लेकर शेयर मार्केट के सट्टेबाज, और सोशल मीडिया से लेकर क्रिप्टो करंसी के दीवाने नौजवान- हर तरफ से रुपए में गिरावट पर त्राहिमाम-त्राहिमाम की चीख पुकार सुनाई दे रही है.
वैसे मैं किसी को डराना नहीं चाहता, लेकिन अगर रुपए में गिरावट ही आपके लिए कयामत की दस्तक है तो आपने दूसरे खौफनाक मंजर नहीं देखे. विदेशी निवेशकों ने इस कैलेंडर वर्ष में 30 बिलियन डॉलर वापस खींच लिए हैं. भारत को चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में 70 बिलियन डॉलर का व्यापार घाटा हुआ है. हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 50 बिलियन डॉलर गिरकर 600 बिलियन डॉलर हो गया है. करीब 270 बिलियन डॉलर के विदेशी कर्ज का बोझ हमारे कंधों पर है जिसे नौ महीने के भीतर चुकाना है. ऐसे में सोचिए कि डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत 80 के इस पार होगी या उस पार?
चीन और जापान ने अपनी करंसी को जानबूझकर कमजोर रखा
लेकिन मुझे यह '80 का फोबिया' बेहद हास्यास्पद लगता है. मैं सोचता हूं कि इस बात को कितने लोग समझते होंगे कि जापान और चीन ने कैसे जानबूझकर अपनी मुद्राओं की कीमत कम रखी- सिर्फ इसलिए ताकि निर्यात बाजार में उनके उत्पाद धूम मचा सकें.
अब यह तो सभी लोग जानते होंगे कि इन दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं ने पिछले 50 सालों में चामत्कारिक रूप से आसमान छुआ है. बेशक, उनकी आर्थिक कायापलट की दूसरी वजहें भी हैं लेकिन कृत्रिम तरीके से रॅन्मिन्बी और येन के मूल्यह्रास से भी उन्हें बहुत फायदा हुआ. यह भी सच है कि दोनों देशों को ‘करंसी मैन्यूपुलेटर्स’ कहकर बदनाम किया गया, चूंकि पश्चिमी ब्लॉक चोटिल हुआ और उन्हें इन दोनों देशों की मजबूत अर्थव्यवस्थाओं से संघर्ष करना पड़ रहा है.
तो, चीन और जापान ने जानबूझकर अपनी करंसियों को कमजोर क्यों किया? क्योंकि शुरुआती दौर में सस्ती करंसी ने उनके अपने टेक, अप्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्थाओं की ‘हिफाजत’ की. इस बीच उन्हें अपने औद्योगिक आधार को आधुनिक और उत्पादक बनाने के लिए पर्याप्त समय मिल गया.
लेकिन यहां हम अपने आधे-अधूरे ज्ञान का इस्तेमाल रुपये में गिरावट पर अफसोस जताने के लिए कर रहे हैं. इस दौरान हम यह भूल रहे हैं कि चीन ने किस तरह हमें शिकस्त दी है. सोचिए, सिर्फ तीन दशक पहले, हमारी जीडीपी चीन के बराबर थी. उफ्फ हमारी प्रति व्यक्ति आय भी उससे ज्यादा थी. लेकिन आज चीन की अर्थव्यवस्था 20 ट्रिलियन डॉलर की है और हम हर मंच पर अपने 3 ट्रिलियन डॉलर के आसपास की अर्थव्यवस्था का ढिंढोरा पीटने की वजह ढूंढ रहे हैं.
सच कहूं तो अगर अर्थव्यवस्था का विकास ही हमारे लिए राष्ट्रीय गौरव है तो हमें प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने पर जोर देना चाहिए, न कि रुपए को 'मजबूत' रखने पर.
रुपए में गिरावट का नुकसान गिनाइए
क्या कोई मुझे दो, सिर्फ दो वजहें बता सकता है कि रुपए में गिरावट का बुरा नतीजा क्या होगा? मैं देख सकता हूं कि लोगों ने झट से अपने हाथ उठा लिए क्योंकि एक प्रतिकूल प्रभाव तो सार्वभौमिक और निर्विवाद है. रुपये में गिरावट से आयातित वस्तुएं कुछ समय के लिए महंगी हो जाएंगी. तेल की कीमतें, उर्वरक, पूंजीगत वस्तुओं का निवेश सब महंगा हो जाएगा- आयात के लिए ज्यादा कीमत चुकानी पड़ेगी. तो, कोई शक नहीं कि कमजोर रुपये का एक भयानक नतीजा आयातित मुद्रास्फीति है.
चलिए अब यह बताइए कि दूसरा बुरा नतीजा क्या है? खामोशी... बहुत से लोग चुप हो जाएंगे... दूसरा नतीजा... हम्म मेरे ख्याल से, रुपए में गिरावट देश के स्वाभिमान को मिट्टी में मिला देगा.
अरे छोड़िए भी. यह कोई आर्थिक दलील नहीं, सिर्फ एक मूर्खतापूर्ण, राजनीतिक और भावुक टिप्पणी है. क्योंकि कड़वी सच्चाई यह है कि आयात महंगा होने के अलावा, रुपए में गिरावट का ऐसा कोई- मैं दोहराता हूं- ऐसा कोई बहुत बड़ा नुकसान नहीं होने वाला. हां, इसमें बहुत सी अच्छी बातें छिपी हुई हैं, जैसे उच्च निर्यात आय, एसेट्स की कीमत में सुधार, अधिक घरेलू निवेश वगैरह वगैरह.
इसके अलावा, अगर बाजार अच्छा है, और सरकारें घबराती नहीं हैं या जूझने को तैयार रहती हैं ,तो एक ऐसी व्यवस्था कायम होने लगती है जो अपने आप को सुधारती चले. अपनी गलतियों से सीखती रहे. कैसे? ठीक है, मैं समझाता हूं, शुरुआत आपके बाजीगर, यानी गिरते रुपए से.
इसका फायदा है- इसे समझने के लिए कुछ उदाहरण
विडंबना यह है कि एक डॉलर को खरीदने के लिए जैसे-जैसे ज्यादा से ज्यादा रुपये की जरूरत होती है, तो धीरे-धीरे यह पहिया उलटने लगता है. भारतीय एसेट्स और निवेश, जिन्हें पहले 'महंगा' होने के लिए छोड़ दिया गया था, अब आकर्षक लगने लगते हैं. यह साबित करने के लिए हम एक आसान सा उदाहरण दे रहे हैं-
कल्पना कीजिए कि छह महीने पहले, एक विदेशी निवेशक ने शेयर A को 75 रुपये में बेच दिया और एक डॉलर वापस घर ले गया. इसके दो पहलू हैं. एक, A के शेयर की कीमत गिर गई. और दो, रुपया भी गिर गया.
अब दूसरे विदेशी निवेशक, रुपये और शेयर की कीमत में गिरावट (यानी, उनके पोर्टफोलियो की कीमत पर दोहरी मार), दोनों के डर से बिक्री शुरू करते हैं.
कल्पना कीजिए कि इस बिक्री की होड़ में शेयर A की कीमत 75 रुपये से घटकर 60 रुपये हो जाती है, जबकि अब एक डॉलर खरीदने के लिए 80 रुपये की जरूरत है, जो पहले 75 रुपये में उपलब्ध था.
सोचें कि हमारे पहले विदेशी निवेशक के दिमाग में क्या चल रहा है, जिसने शेयर A को 75 रुपये में बेच दिया था और एक डॉलर ले गया था. वह लार टपकाने लगा है. क्योंकि अब, वह शेयर A को लगभग 75 सेंट्स में खरीद सकता है और उसे प्रत्येक डॉलर के लिए 25 सेंट का शुद्ध मुनाफा होगा. यानी अपने लेनदेन में उसे 25% की भारी कमाई हो सकती है.
जैसा कि हमारे आसान उदाहरण से साबित होता है, बिक्री और बाजार से निकासी का चक्र उलट जाएगा. किसी अर्थव्यवस्था में, जैसे-जैसे एसेट्स की कीमतें गिरती हैं, और रुपया भी गिरता है, विदेशी विक्रेता खरीदार बन जाते हैं. अब एसेट्स की कीमतें मजबूत होने लगती हैं, रुपया गिरना बंद हो जाता है, घरेलू निवेश बढ़ जाता है, आयात की जगह घरेलू माल बाजार में उपलब्ध होता है (जिसे आयात प्रतिस्थापन कहते हैं), जीडीपी तेजी से बढ़ती है, सरकार का राजस्व बढ़ता है.
महंगाई जोखिम है पर उससे निपटने में समझदारी दिखानी होगी
लेकिन मुद्रास्फीति एक बड़ा जोखिम बनी हुई है. इसलिए, नीति निर्माता मुद्रास्फीति को काबू में करने के लिए ब्याज दरों में वृद्धि करते हैं. यह खपत और निवेश की मांग को कम करता है. कीमतें बढ़ना बंद हो जाती हैं.
लेकिन विडंबना यह है कि उच्च ब्याज दरों से विदेशी मुद्रा आकर्षित नहीं होती. जैसा कि हमने ऊपर देखा, विदेशी मुद्रा का प्रवाह ज्यादा होता है तो एसेट्स की कीमतें और निवेश बढ़ते हैं. आमदनी तेजी से बढ़ने लगती है. आय बढ़ती है तो मांग भी बढ़ती है.
आर्थिक आत्मविश्वास बढ़ता है तो ब्याज दर का चक्र भी उलटने लगता है, जिससे टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुएं, निर्माण, आवास, पूंजीगत वस्तुओं और अन्य चीजों की मांग बढ़ जाती है. अर्थव्यवस्था में वृद्धि होने लगती है.
स्टॉक की कीमतें, जो रुपए में गिरावट की वजह से गिरने लगी थीं, अब ब्याज की दर कम होने की वजह से बढ़ने लगती हैं. इससे अर्थव्यवस्था में पूंजी निर्माण को और बढ़ावा मिलता है. आय प्रभाव लौटता है, यानी उपभोक्ता की आय में परिवर्तन होने के कारण उत्पाद या सेवा की मांग बदलती है. आखिर में, अगर निवेश और आयात प्रतिस्थापन चतुराई से होता है, तो अर्थव्यवस्था अधिक असरकारक और प्रतिस्पर्धी बन जाती है.
तो, जाहिर है रुपए की कीमत, मुद्रास्फीति की दर, एसेट्स के मूल्य और खपत/निवेश की मांग, सभी सिलसिलेवार होते हैं. A में बदलाव होता है तो B भी बदलता है, और इससे A फिर से बदल जाता है. बाजार खुद को सुधारता चलता है (बेशक, काफी दर्द और तनाव के जरिए).
तो कृपया रुपये में गिरावट का गम न करें
गम तब कीजिए, जब बाजार प्रतिस्पर्धा का नुकसान होता हो, जब निवेश उत्पादक नहीं रहते, जब मुद्रास्फीति संकट को बेदर्दी से शांत किया जाता है, जब टैक्स तेजी से बढ़ाए जाते हैं, जब सरकारें घबराती हैं और कड़े कदम उठाने लगती हैं, “नियंत्रण” के लिए चाबुक फटकारने लगती हैं, फौरी किस्म के नकारात्मक असर पर पसीना पसीना हो जाती हैं.
लेकिन अगर सरकार समझदारी से पहल करे तो धीरे-धीरे बढ़ी हुई कीमतें कम होने लगेंगी, और अपने प्रतिस्पर्धी स्तर पर लौट आएंगी. तब रुपए में गिरावट, एक बेहतर शुरुआत की तरफ पहला कदम होगा. वह कयामत का दिन नहीं, वरदान का दिन साबित होगा.
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