काफी लंबे समय से पंजाब (Punjab) के सीमावर्ती राज्य के आसपास के क्षेत्रों में खूनी युद्ध और हिंसा देखी गई है (जैसे सिकंदर की मैसेडोनियन सेना और राजा पोरस के बीच हाइडेस्पेस की लड़ाई), क्योंकि यह मैदान सभी विदेशी आक्रांताओं के लिए 'हिंदुस्तान' का प्रवेश द्वार था.
1947 में विभाजन के साथ यह सब बदस्तूर जारी रहा, जब करीब 1 करोड़ 80 लाख लोग विस्थापित हुए और अफरा-तफरी में उस सरहद के पार चले गए, जिसे नए सिरे से खींचा गया था. करीब 10 से 20 लाख लोग मारे गए (मुख्य रूप से दोनों पक्षों के 'पंजाब' में).
1965 और 1971 के भारत-पाक युद्ध में इस इलाके में भयंकर जंग हुईं और 1980 के दशक में पंजाब का यह इलाका विशेष रूप से तनावपूर्ण रहा.
425 किलोमीटर लंबी भारत-पाक सीमा की ऐतिहासिक 'युद्ध कौशल' परंपरा, इतिहास, और उसकी वास्तविकताओं ने यह सुनिश्चित किया कि भारतीय सुरक्षा सेवाओं में पंजाब का गैर आनुपातिक रूप (Disproportionately) से योगदान रहे और यह भी कि सबसे मुश्किल स्थानों पर उनकी तैनाती भी हो.
बदकिस्मती से, कुछ दशकों की थोड़ी खामोशी के बाद पंजाब में सामाजिक वैमनस्य के साथ तनाव के चिर-परिचित काले बादल छा गए हैं. मानों, उसके धैर्य और सुरक्षा का इम्तिहान सामने है. क्या अतीत के सबक भुला दिए गए हैं? हाल ही में एक विद्रोही नेता के मामले में लापरवाही से किया गया बर्ताव यही साबित करता है.
इंडियन आर्म्ड फोर्स बॉर्डर पर बाहरी खतरों से देश की रक्षा करते हैं, जबकि पुलिस बल आंतरिक खतरों से. इसलिए इस अंदरूनी खतरे की जिम्मेदारी पंजाब पुलिस (केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और खुफिया एजेंसियों के सहयोग से) की है.
इतिहास जो हो, सो हो. लेकिन आज पंजाब पुलिस के 80,000 कर्मचारी उस विद्रोही नेता को पकड़ने में नाकाम रहे, जो लोगों की नजरों में हैं, लेकिन उसने चकमा देकर पुलिस विभाग को शर्मिंदा कर दिया है. ऐसे में पुलिस ना तो तेज-तर्रार नजर आ रही है और ना ही पेशेवर.
पुलिस फोर्स में राजनीतिक करतूत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें 10 महीने के भीतर पांच DGP बदले गए. बदलती व्यवस्था के मद्देनजर अधिकारी बदले गए और राजनीतिक वरीयताएं भी बदलती रहीं.
राजनैतिक शासक वर्ग पुलिस पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहता.
सुरक्षा बलों की 'वर्दियों' के बीच तुलना और पंजाब पुलिस की चूक
अब, जब विभिन्न सुरक्षा बलों के बीच तुलना की जाती है तो वह हमेशा उचित नहीं होती. सैद्धांतिक रूप से, भारतीय सशस्त्र बल सीमाओं पर बाहरी खतरों से देश की रक्षा करते हैं, जबकि पुलिस बल आंतरिक खतरों से. इसलिए इस अंदरूनी खतरे की जिम्मेदारी पंजाब पुलिस (केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों और खुफिया एजेंसियों के सहयोग से) की है, लेकिन इतिहास गवाह है कि आंतरिक उग्रवाद से निपटने के लिए भी हमेशा भारतीय सेना को ही बुलाया जाता है (कश्मीर, पंजाब से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों तक). चूंकि पुलिस बल हमेशा इस चुनौती को पूरा करने में विफल रहा है.
हालांकि पंजाब न केवल विद्रोही आंदोलन को सफलतापूर्वक (हाल तक) समाप्त करने के दुर्लभ मामलों में से एक था, बल्कि उसके कुछ साहसी पुलिस अधिकारियों के लिए व्यक्तिगत प्रतिभा और उत्कृष्ट प्रदर्शन की मिसाल पेश की (जाहिर तौर पर राजनीतिक-प्रशासनिक मदद और समझौतों के साथ).
विभाजन की भयावहता के बाद तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने पंजाब पुलिस के बारे में कहा था: "ऐसे विभाजन और सांप्रदायिक अशांति के दौर के बाद, जिसकी कोई मिसाल नहीं है, आपको बड़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा और आपने इतने कम समय में और इतने शानदार तरीके से अपनी सेना को पुनर्गठित करने का चमत्कार किया है."
यह इतिहास की बात है. आज पंजाब पुलिस के 80,000 कर्मचारी उस विद्रोही नेता को पकड़ने में नाकाम रहे जो लोगों की नजरों में हैं, लेकिन पुलिस को चकमा देकर, उसे शर्मिंदा कर रहा है. ऐसी पुलिस न तो तेज-तर्रार नजर आ रही है और न ही पेशेवर. CCTV फुटेज के नाटक और परिवहन के साधारण से साधनों से भागता वह अलगाववादी, पंजाब पुलिस की सारी चमक को फीकी कर रहा है.
तो, पुलिस बलों (विशेष रूप से इस मामले में पंजाब) के साथ क्या गलत हो गया है, और क्या वह असल में वही जुझारू, फाइटिंग मशीन्स हैं, जिनकी मिसाल दी गई थी? या वे पंजाब पुलिस की कॉन्स्टेबुलरी का वह ‘स्थूल’ कैरिकेचर हैं जो मीम्स और पॉलीवुड की फिल्मों में नजर आता है. लेकिन यह शायद ऊंचे ओहदों के अधिकारियों के लिए मुफीद है.
घमंड के नशे में चूर
बाहरी और आंतरिक, दोनों खतरों का शिकार पंजाब में भारतीय सेना के सिर्फ दो लेफ्टिनेंट जनरल अधिकारी हैं. इन दो सैन्य अधिकारियों के एपॉलेट में लाठी और कृपाण (वर्दी पर एक स्टैंडर्ड चिन्ह, जो पुलिस सेवाओं के साथ साझा किया जाता है) का राष्ट्रीय प्रतीक है. जबकि उनकी कमान पूरे पंजाब पर लागू नहीं होती है क्योंकि उनकी टुकड़ियां राज्य के बाहर भी तैनात की जाती हैं, और कई आंतरिक रूप से भी. लेकिन तथ्य यह है कि इस रैंक के केवल दो भारतीय सेना अधिकारी पंजाब में काम कर रहे हैं.
वैसे यह कोई सही तुलना नहीं है, क्योंकि आंतरिक जिम्मेदारियां कई आयामी होती हैं, जबकि बाहरी सुरक्षा की जिम्मेदारी कई बार काफी हद तक एक आयामी है. लेकिन यहां यह पूरी तरह अप्रासंगिक भी नहीं कही जा सकती. यह संस्थागत ह्रास (भारतीय सशस्त्र सेनाओं का) बनाम जबरन हकदारी हासिल करने (जब पुलिस बल राजनीतिक वर्ग को अपना नियंत्रण थमा देते हैं) का एक दुखद मामला है.
यह गैर बराबरी को कायम रखने का मामला है, जो वन रैंक, वन पेंशन (ओआरओपी) की गाथा और उसकी अस्थिर भावनाओं में प्रकट हुआ है. यह संस्थागत पतन का मामला है कि आप भूल जाए कि इस गणतंत्र में नेतागत और गणमान्य लोग कानूनी रूप से किसी ओहदे में बड़े नहीं. वे औपचारिक प्रयोजन से उस सूची में ऊपर नीचे हैं. यह गणतंत्र में वरीयता के आधिकारिक वॉरंट का सिद्धांत है.
हरियाणा में भी 'ऊंचे ओहदों' की भरमार
पंजाब पुलिस में ऐसे 25 अधिकारी हैं, जिनके एपोलेट में लाठी और कृपाण का प्रतीक है (और उनके वाहनों पर '3-स्टार' होते हैं!) इस सूची में पंजाब पुलिस कैडर के अन्य पांच अधिकारी शामिल नहीं हैं जो सेंट्रल डेप्युटेशन पर हैं. तो, दो 'वर्दियों' के बीच 2 से 25 का ऑपरेटिव रेशो है.
यूं सिर्फ पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) ही नहीं, बल्कि अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक (एडीजीपी) स्तर के अधिकारी भी उसी जैसी रैंक के प्रतीक चिन्ह और डेनोमिनेशनल स्टार/फ्लैग ऑफ अथॉरिटी झंडा पहनते हैं, जैसा कि एक लेफ्टिनेंट जनरल.
पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी ऊंचे ओहदेदार कम नहीं. वहां डीजीपी के 14 अतिरिक्त ‘एडजस्टमेंट्स’ किए गए हैं, जिससे वहां केवल डीजीपी और एडीजीपी स्तर के सुपर कॉप्स के लिए 22 एक्स कैडर का सृजन हुए है (ये राज्य सरकारों की तरफ से सृजित अस्थायी पद होते हैं)!
कुछ साल पहले पंचकुला (एक स्वयंभू संत ने 'धरना' का आयोजन किया था) में हरियाणा पुलिस का एक शर्मनाक चेहरा देखने को मिला था, जब उसने भीड़ के आगे घुटने टेक दिए थे. जब सेना की मांग की गई, तब शांति कायम हुई. सेना के सिर्फ छह कॉलम्स ने स्थिति को बहाल किया था. वास्तव में, पश्चिमी कमान मुख्यालय, हरियाणा में तैनात दो लेफ्टिनेंट जनरलों को हटाकर, हरियाणा राज्य में सिर्फ एक और लेफ्टिनेंट जनरल स्तर का अधिकारी है. विडंबना कई मौतें मरती है. उत्तर प्रदेश पुलिस (जो भारतीय सेना की तुलना में कर्मियों के मामले में एक-छठा है) में डीजीपी और एडीजीपी स्तर पर 78 अधिकारी हैं, जिन्हें अगर पंजाब के अधिकारियों के साथ जोड़ा जाए तो पूरी भारतीय सेना (दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी) में लेफ्टिनेंट जनरल स्तर के अधिकारियों की कुल संख्या से भी ज्यादा हो जाएंगे! पुलिस के '3-स्टार' वाले सीनियर अधिकारियों की मौजूदगी में भी उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था की क्या हालत है, यह किसी से छिपी हुई नहीं है.
राजनैतिक चालबाजियों के आगे घुटने टेके
हम कह सकते हैं कि एडीजीपी या यहां तक कि डीजीपी के रैंक की तुलना लेफ्टिनेंट जनरल (भारतीय सेना के अनुभव, जटिलता और कमांड के मद्देनजर) के साथ करना गलत और अनुचित है लेकिन असल में यही राज्यों में '3-स्टार' पुलिस अधिकारियों की जरूरत पर सवाल खड़े करता है. दुख की बात है कि ऐसे मामलों में तर्क कहीं पीछे छूट जाता है. और सब कुछ राजनैतिक नेतृत्व की सहमति से होता है. उन्हीं के हुक्म से ये 'एडजस्टमेंट' और 'स्टारिंग' होती है.
चलिए, पंजाब की तरफ लौटते हैं. पुलिस बलों में राजनीतिक करतूत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें 10 महीने के भीतर पांच डीजीपी घुमाए गए. बदलती व्यवस्था के मद्देनजर अधिकारी बदले गए और राजनीतिक वरीयताएं भी बदलती रहीं. इसलिए हैरानी की बात नहीं कि ऐसे निर्लज्ज राजनीतिकरण के नतीजे के तौर पर अकुशलता और अनाड़ीपन ही हाथ लगेगा.
यह दोहराने की बात नहीं कि सैनिक नहीं, बल्कि नेता (डीजीपी/एडीजीपी या लेफ्टिनेंट जनरल, जैसा भी मामला हो) ही किसी संस्थान की संस्कृति रचता है. पंजाब या हरियाणा के भीतरी इलाकों के परिवारों के लिए यह असामान्य नहीं है कि एक बेटा भारतीय सेना में और दूसरा पुलिस बल में शामिल हो- इसलिए भर्ती और कर्मचारियों का जत्था भले एक सरीखा हो लेकिन दोनों के प्रशिक्षित कर्मी एकदम अलग अलग होते हैं.
पुलिस सुधारों पर रिपोर्ट्स और सुझावों के ढेर हैं (जिनके लिए कई बार कमिटियां बनाई गईं), लेकिन इन रिपोर्ट्स पर धूल जमा हो रही है और सत्तारूढ़ राजनेता चुप्पी साधे बैठे हैं.
राजनैतिक शासक वर्ग पुलिस पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करन चाहता. वह पुलिस को 'एडजस्ट' करता है, उस पर एहसान जताता है, और उसे अपने चंगुल में रखकर खुश है जिससे वह सशस्त्र बलों (जिस पर इन दिनों दबाव बन रहा है) की तरह गैर राजनैतिक न रहे.
शायद सोशल मीडिया में मीम्स काफी काम के हैं. उसमें भगोड़े विद्रोही नेता का जो नाटक दिखाई दे रहा है, वह पुलिस की पेशेवर इमेज के खिलाफ है. इसी के साथ यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत में पंजाब पुलिस के कई अधिकारियों और सिपाहियों ने बहादुरी दिखाते हुए बड़े बड़े कारनामे किए हैं. शायद उन्हें ऐसा करने की इजाजत दी गई होगी, या उन्होंने राजनैतिक दखलंदाजी को दरकिनाक करके, अपने विवेक का इस्तेमाल किया होगा. लेकिन आज '3-सितारा' ताकत खोखली दिखाई दे रही है और निराश करने वाली भी है.
(लेखक अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और पुद्दूचेरी के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है और ऊपर व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. द क्विंट न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)
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