दो अलग-अलग प्रतीत होने वाली घटनाओं को और फिर दो अलग-अलग प्रतीत होने वाली फिल्मों को किसी ऐसी चीज के संबंध में जोड़ना संभव है जो आज के भारत में आम हो गई है. हमारे देश को बहुलवादी लोकतंत्र (Pluralist Democracy) कहा जाता है जो अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता का सम्मान करता है, लेकिन इसके व्यवहार में ऐसा प्रतीत नहीं होता है.
कर्नाटक के हावेरी में, गुंडों का एक समूह एक होटल के कमरे में घुस गया, जहां एक अंतर-धार्मिक जोड़ा मौजूद था और जबरन उनका वीडियो बनाया और उनके साथ मारपीट की. इस मामले में महिला ने गैंगरेप का भी आरोप लगाया है.
और दिसंबर 2023 में रिलीज हुई फिल्म अन्नपूर्णी (Annapoorani) के लिए एक्ट्रेस नयनतारा (Nayanthara) के खिलाफ तमिलनाडु में मामला दर्ज होने के बाद हंगामा मचा हुआ है. यह फिल्म एक रूढ़िवादी ब्राह्मण लड़की के बारे में है जो एक मास्टर शेफ बनने की इच्छा रखती है, और एक पुरुष मुस्लिम मित्र की सहायता से मांस खाना और पकाना शुरू करती है.
OTT प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स (Netflix) ने दक्षिणपंथी धमकियों के बाद फिल्म को हटा दिया है. जाहिर तौर पर, उन्हें हिंदू-मुस्लिम लड़की-लड़के की दोस्ती का ऐसा चित्रण पसंद नहीं आया, जिसमें भगवान राम (जो भारत में इस महीने का प्रमुख राजनीतिक विषय हैं) के मांस खाने का जिक्र करने वाला एक डायलॉग भी शामिल है.
नियम कौन परिभाषित करता है और कैसे?
कर्नाटक, तमिलनाडु और वर्तमान राष्ट्रीय मनोदशा को जो जोड़ता है वह एक निर्विवाद विषय है: नैतिक पुलिसिंग और सांस्कृतिक धमकी, जो देश के लोकाचार और भारत के संविधान दोनों के खिलाफ है. याद रखें, यह कामसूत्र की भूमि भी है, जिसमें भारत के आधिकारिक तौर पर उदार लोकतंत्र बनने से बहुत पहले सेक्सुअल पोजीशन और सभी प्रकार के मामलों पर चर्चा की गई थी जो कहने कोसंस्कारी नहीं थे.
भारत में जो कुछ हो रहा है उसके व्यापक संदर्भ में, फिल्म का प्लॉट और नेटफ्लिक्स द्वारा मूल रूप से कलात्मक स्वतंत्रता के कार्य के विरुद्ध समर्पण को मैं अवैध सांस्कृतिक धमकी के रूप में देखता हूं. हमें यह पूछने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हो रहा है. क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि सत्ता में बैठे लोगों को ऐसी नैतिकता का प्रतिनिधित्व करते हुए देखा जाता है जो व्यक्तिगत पसंद को इस हद तक खारिज कर देती है, जहां ताकतवर लोगों द्वारा परिभाषित 'संस्कृति' को नकारने वालों को कुछ लोग डरा सकते हैं?
हालांकि, गहराई से देखने पर, ऐसा लगता है कि द्रविड़ आंदोलन के राजनीतिक तर्क के तहत तमिलनाडु की अपनी कुछ सूक्ष्म सांस्कृतिक पुलिसिंग है. यह समान रूप से स्पष्ट है कि यह एक वैश्विक सांस्कृतिक ढांचे का हिस्सा है जिसमें अगर आप कुछ चीजें करते हैं तो आप उस तबके का हिस्सा हैं और अगर आप नहीं करते हैं तो 'इसके साथ' नहीं हैं.
पिछले साल, तमिलनाडु के कोयंबटूर में पली-बढ़ी उत्तरी मूल की जैन महिला, अरुणा विजय मास्टरशेफ इंडिया की सफल फाइनलिस्ट बनीं (लेकिन विजेता नहीं), हालांकि उन्होंने जोर देकर कहा कि वह अंडा और मांसाहारी चीजें नहीं पकाएंगी. अब उनकी अपनी कल्ट फॉलोइंग है, लेकिन वर्तमान सामाजिक माहौल में उनके जैसे किसी व्यक्ति की जरुरत है, जैसे कि काल्पनिक अन्नपूर्णी, जो अति-सफल लोगों की श्रेणी में शामिल होने के लिए उस हद तक जा सके.
ब्रिटिश औपनिवेशिक गुरु जिन्होंने अंग्रेजी को भारत की प्रशासनिक भाषा और वैश्विक सफलता का पासपोर्ट बनाया, इसे आप सांस्कृतिक मैकालेवाद (Cultural Macaulayism) कह सकते हैं. अगर आप अंग्रेजी में निपुण नहीं हैं, तो आप केवल इतना ही कर सकते हैं. यह वैसा ही है, जैसे बिना जैकेट और टाई के मदुरै का एक तमिल व्यक्ति अपने तमाम इन्वेस्टमेंट बैंकिंग कौशल के बावजूद वॉल स्ट्रीट पर बड़ी उपलब्धि शायद ही हासिल कर पाए.
शाहरुख खान (Shahrukh Khan) के साथ सुपरहिट फिल्म जवान बनाने वाले मशहूर तमिल निर्देशक एटली ने साल 2019 में 'बिगिल' नामक फिल्म बनाई थी. इस फिल्म में फुटबॉल कोच के किरदार में हीरो, गायत्री नामक एक ब्राह्मण लड़की को खेल में वापस लाता है, जिसने एक रूढ़िवादी परिवार में शादी होने के बाद फुटबॉल खेलना छोड़ दिया था. तमिलनाडु में ब्राह्मण-फिक्सिंग एक फैशन बन गया है, जैसे उत्तर में 'लव जिहाद'.
अब तमिलनाडु की कल्पना करें, जहां मुख्यमंत्री एमके स्टालिन जातिगत बाधाओं को खत्म करने के लिए दलितों को मंदिर का पुजारी बनाने की अनुमति देने के अभियान का नेतृत्व कर रहे हैं. उनका विचार अच्छा लगता है, लेकिन क्या होगा अगर दलितों को शास्त्रों के अनुसार मंदिर की रसोई में प्रवेश के लिए कम से कम एक पीढ़ी तक शुद्ध शाकाहारी रहना पड़े? ये नियम कौन परिभाषित करता है और कैसे?
जो आप चाहते हैं वह बनने या कहने का अधिकार दांव पर है
आधुनिक लोकतंत्र में जो वास्तव में मायने रखता है वह चुनने का अधिकार है, और इसमें नियम बनाने का अधिकार भी शामिल है, चाहे वह मास्टरशेफ हो या मंदिर का पुजारी. चुनने के अधिकार में रोजमर्रा की वास्तविकता के साथ कल्पना को मिलाकर कहानियां सुनाने का अधिकार भी शामिल है.
अन्नपूर्णी विवाद में रामायण का मुद्दा भी शामिल है और क्या वाकई भगवान राम ने मांस खाया था. हम ठीक से नहीं जानते लेकिन हमें यह पूछने का अधिकार है कि क्या हमें अलग-अलग रामायण में से किसी एक को चुनने का अधिकार है. क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि कंबर की तमिल रामायण में भगवान को शिकारी-धनुर्धर होने के अलावा मांस खाते हुए भी दिखाया गया है?
जाति/समुदाय के आधार पर, राम एक क्षत्रिय योद्धा थे और परंपरा और अवलोकन के अनुसार, राजसी योद्धा शाकाहारी नहीं थे. अगर उस तर्क पर सवाल उठाया भी गया, तो भी उस इतिहास के संबंध में वाल्मिकी की संस्कृत रामायण को प्रमुख प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में क्यों देखा जाना चाहिए?
अन्नपूर्णी से बहुत पहले, 2011 में एक विवाद हुआ था जब दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक परिषद ने अपने बीए पाठ्यक्रम से कवि-लेखक एके रामानुजन के 1987 के निबंध, थ्री हंड्रेड रामायण: फाइव एक्जाम्पल्स एंड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन (Three Hundred Rāmāyaṇas: Five Examples and Three Thoughts on Translation.) को हटा दिया था. इसे सेंसरशिप के रूप में देखा गया. विद्वतापूर्ण निबंध रामायण के इतिहास और 2,500 वर्षों में भारत और एशिया में इसके प्रसार का सारांश प्रस्तुत करता है और इसकी विविधताओं को रेखांकित करता है.
नवोदित निर्देशक नीलेश कृष्णा द्वारा निर्देशित बॉक्स-ऑफिस पर असफल फिल्म अन्नपूर्णी, केवल रामायण पर विचारों और बहस को जन्म देती है और भारत और इसकी उप-संस्कृतियों के लिए इसका क्या अर्थ है. अन्नपूर्णी विवाद के बाद आप जो कहना चाहते हैं वह होने या कहने का अधिकार दांव पर है, भले ही इसे कानूनी रूप से अनुमति दी गई हो क्योंकि भीड़ के व्यवहार और सामाजिक धमकी से फिल्म निर्माताओं, कलाकारों और उनके उद्यमों को वित्तपोषित करने वाले व्यवसायों को काफी परेशानी हो सकती है.
फिल्म निर्माता हंसल मेहता ने 2015 में 'अलीगढ़' फिल्म बनाई, जो प्रोफेसर रामचंद्र सिरस (Ramchandra Siras) की सच्ची कहानी पर आधारित थी, जिन्हें उनके घर में एक नैतिक पुलिस घुसपैठ के बाद समलैंगिक व्यवहार के लिए बर्खास्त कर दिया गया था. इस मामले में अदालत में एक दर्दनाक संघर्ष के बाद उन्हें जीत मिली और 2010 में उनकी मौत हो गई.
चाहे सांस्कृतिक स्वतंत्रता हो या यौन रुझान, ऐसा लगता है कि हम विभिन्न रंगों वाले एक अधिनायकवादी समाज में रह रहे हैं जो संवैधानिक मूल्यों को धता बताता है. यह युवा पीढ़ी पर निर्भर करता है कि वह आंतरिक अनिवार्यताओं को समझे ताकि बहुलवाद और संवैधानिक स्वतंत्रता को कायम रखने वाली सक्रियता दूसरे को चुनौती दे, जो कानून को अपने हाथों में लेती हुई प्रतीत होती है.
(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं, जिन्होंने रॉयटर्स, इकोनॉमिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और हिंदुस्तान टाइम्स के लिए काम किया है. उनसे ट्विटर @madversity पर संपर्क किया जा सकता है. यह एक ओपिनियन है और व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट न तो उनका समर्थन करता है और न ही उनके लिए जिम्मेदार है.)
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