अपने दोस्त के बारे में लिखना मुश्किल होता है. वो दोस्त जिससे राजनीतिक तौर पर गहरे मतभेद हो पर निजी जीवन में मित्रता हो तो लिखना और भी मुश्किल हो जाता है. अर्नब गोस्वामी वैसा ही एक दोस्त है. दिल्ली में सरकार बनने के पहले से ही उसके चैनल ने आम आदमी पार्टी की ऐसी तैसी करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी. हर मौके पर तीखी से तीखी आलोचना की और तब भी आम आदमी पार्टी के परखच्चे उड़ाने से नहीं चूका जब उसके तथ्य गलत थे. पिछले एक साल से हमने उसके चैनल से बात करना भी बंद कर दिया था बस कभी कभार फोनो कर लिया करता था. मैंने उसे फोन करना भी बंद कर दिया था.
लेकिन कल जब उसके इस्तीफे की खबर आई तो खुद को रोक नहीं सका. फोन किया, बात नहीं हो सकी. सुबह उसका फोन आया. वही गर्मजोशी, बेबाकपन. लगा ही नहीं कि हम राजनीति के दो धुर विरोधी छोर पर खड़े हैं.
मजाक में बोला जब भी तेरा फोनो आता था मैं दौड़ कर पीसीआर में चला जाता था और इंतजार करता कब तू मुझे गाली देगा. और 45 सेकेंड होते ही तू मुझे गाली देना शुरू कर देता. मैं ठठा कर हंस पड़ा फिर हम बात करने लगे कैसे हम एक साथ रिपोर्टिंग करते थे.
बीस साल पुरानी दिल्ली आंखों के सामने तैर गई. मिलना तय हुआ. मिलेंगे तो ढेर सारे गिले शिकवे दूर होंगे. गाली गलौच भी होगी और हंसी ठहाका भी.
इन 20 सालों में कितना बदल गया. चुनाव आयोग के दरवाजे पर दस दस घंटे हमने साथ काटे थे. टी एन शेषन का आतंक था. खबर टीवी पर पहली बार सरकारी चंगुल से निकल कर प्रोफेशनल पत्रकारों के हाथ आयी थी. तब सिर्फ खबर दी जाती थी, विचार नहीं. थोड़े तथ्य, अच्छा बैकग्राउंडर और भविष्य की तरफ हल्का सा इशारा. टीवी पर डिबेट का चलन लगभग नहीं था. बस अंग्रेजी चैनल पर साप्ताहिक डिबेट शो होते थे.
आज 20 साल बाद, टीवी पर खबर से ज्यादा डिबेट है. हिंदी चैनल जो कुछ सात-आठ साल पहले तक मानते थे कि डिबेट में टीआरपी नहीं है वो भी अब प्राइम टाइम पर कई घंटे डिबेट ही करते हैं.
पहले डिबेट में एंकर तटस्थ रहने की कोशिश करता था. मेरे जैसे लोगों ने विचारों के आधार पर एक पक्ष के साथ खड़े होना शुरू कर दिया था. फिर भी कोशिश यही रहती थी कि कोई यह न कहे कि एंकर पूर्वाग्रह से ग्रस्त है, जानबूझकर एक पक्ष का साथ दे रहा है. शोर बहुत कम होता था.
हालांकि धीरे-धीरे ये लगने लगा था कि ज्यादा शोर-शराबा अक्सर अच्छी रेटिंग लेकर आता है. अंग्रेजी चैनल अधिक सोबर थे. अर्नब का एनडीटीवी पर साढ़े आठ बजे का शो धीर गंभीर हुआ करता था. शोर बिलकुल नहीं. अच्छी अच्छी बातें होती थी. टाइम्स नाऊ में आने के बाद भी ऐसे ही तेवर थे. दो साल तक चैनल को किसी ने नोटिस नहीं किया.
26/11 के बाद अर्नब का दरबार सजने लगा
2008 में 26/11 की घटना के बाद सबकुछ अचानक बदल गया. तीन दिन तक अर्नब ने सुबह से शाम तक एंकरिंग की. मैं उसकी ऊर्जा को देखकर हतप्रभ था.
कसाब ने मेरे मित्र को बदल दिया था.
एक नए अर्नब का जन्म हुआ, जो आक्रामक था, तेज-तेज बोलता था. मेहमानों को बेझिझक बीच में काट देता था. बोलने नहीं देता था. पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा दुश्मन था. उसका बस चलता तो पाकिस्तान को फांसी पर चढ़ा देता. फिर एक और बदलाव आया. तब तक उसके शो में चार या पांच गेस्ट होते पर न जाने कब उनकी संख्या दस से बारह हो गयी. उसका दरबार सजने लगा और वो महाराजा की तरह फैसले करने लगा.
फिर आया CWG घोटाला
2010 में CWG घोटाला सामने आया. सुरेश कलमाडी इस नये शेर का पहला शिकार बने. रोजाना सुरेश कलमाडी की इतनी धुलाई हुई कि वो भ्रष्टाचार का दूसरा चेहरा बन गया. कलमाडी का राजनीतिक करियर अर्नब की वजह से खत्म हो गया .
अब ललित मोदी की बारी थी
फिर आया आईपीएल और ललित मोदी कांड. शेर के मुंह में खून लग चुका था. वो बोल्ड होता गया. उसको मजा आने लगा. चैनल ऊपर चढ़ने लगा और फिर वो निर्विवाद रूप से नंबर वन हो गया. अन्ना के आंदोलन को खूब सपोर्ट किया. उसका कद लगातार बढ़ता गया.
वो टीवी का अमिताभ बन गया...
वो टीवी का अमिताभ बच्चन बन गया. एंग्री यंग मैन. चिल्लाना, आरोपी को खुलेआम अपराधी ठहराना, इतनी बार अपराधी कहना कि लोग नफरत करने लगें. कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार ने उसको रोज नई खुराक दी. यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्नब के एक सवाल के जवाब में ये तक कह दिया कि मैं उतना बुरा नहीं हूं जितना तुम समझते हो. वो उसके करियर का सबसे ऊंचा मुकाम था.
अब मोदीराज की बात
मोदी की ताजपोशी ने एक नई टीवी पत्रकारिता को जन्म दिया. पत्रकारिता इसके पहले सेक्युलर थी, लेफ्ट ऑफ सेंटर थी. दक्षिणपंथ को जगह कम मिलती थी और न ही आरएएस की विचारधारा को इतना सम्मान दिया जाता था. वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी टीवी मूलत: उदारवादी था. सोशल मीडिया नहीं था पर बीजेपी/आरएसएस के समर्थक न इतने आक्रामक थे और न ही खुलेआम इतनी गालियां दी जाती थी. सुनने का माद्दा था.
आज विरोधी विचार का मतलब दुश्मनी है. मां बहन की गालियां और जान से मारने की धमकियां भी खूब मिलती हैं. टीवी पर सहज रह पाना नामुमकिन है. किसी भी नेता की बेइज्जती आम है. सबको अपराधी ठहराना फैशन हो गया. खबर गायब हो गयी, टीवी पर फैसले सुना कर सजा देना रोज होने लगा.
ये अर्णब ने शुरू किया. उसकी आक्रामकता ने सबको प्रभावित किया. सारे एंकर उसकी नकल करने लगे. छोटे छोटे अर्नब पैदा हो गए. अर्नब पढ़ा लिखा है. खूब होमवर्क करता है पर उसके क्लोन अधकचरी समझ और अल्पज्ञान में उसकी नकल करते हुए जोकर लगते हैं.
टाइम्स नाऊ का पाकिस्तान युद्ध
26/11 के बाद पाकिस्तान की पिटाई टीवी पर खूब होने लगी. लेकिन टाइम्स नाऊ ने इसको नया आयाम दिया. पाकिस्तान का मतलब सिर्फ युद्ध और कुछ नहीं. युद्ध और सिर्फ युद्ध. कोई समझौता नहीं. पाकिस्तान से बातचीत का अर्थ कमजोरी. उसके साथ सिर्फ कड़ाई से बातचीत. भारतीय परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान खलनायक है लेकिन अर्नब ने उसे जीता जागता राक्षस बना दिया जिससे बातचीत नहीं हो सकती.
इस सोच में मोदी का राष्ट्रवाद आ गया. कश्मीर पर अलग सोच की बात करना अपराध हो गया और हर कश्मीरी देशद्रोही. रोज देशभक्ति और देशद्रोह के सर्टिफिकेट जारी किये जाने लगे. जेएनयू और कन्हैया कांड ने ये स्थापित कर दिया कि ये वो अर्नब नहीं था जिसे मैं जानता था. इस पत्रकारिता में वैकल्पिक सोच, विचार और चिंतन के लिये जगह खत्म हो गयी. वैकल्पिक देश की कल्पना अतीत की बात हो गयी. देश सिर्फ एक तरह का हो सकता है. आरएसएस के सपनों का देश. इस देश के बारे में सवाल नहीं पूछे जा सकते. सेना गलती नहीं कर सकती. उसे कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता.
ये भारत में दक्षिणपंथी पत्रकारिता का सबसे भौंडा स्वरूप है. जहां सोच की स्वतंत्रता को पूरी तरह से खत्म किया जा रहा है. टीवी एंकर ये भूल गए हैं कि पत्रकारिता सोच की स्वतंत्रता और विचारों के टकराव का सबसे बड़ा मंच है. आज अगर से मंच सिकुड़ गया है तो इसके लिये अर्नब गोस्वामी पूरी तरह से जिम्मेदार हैं.
इस दक्षिणपंथी पत्रकारिता ने एक और बड़ा नुकसान किया है. ये मोदी और उनकी सरकार से प्रश्न पूछना भूल गयी है. सबसे खुलेआम सवाल करने वाला टाइम्स नाऊ न तो मोदी से सवाल करता है और न ही अमित शाह से. ऐसी कौन-सी मजबूरी इसके पीछे है मैं नहीं जानता.
पत्रकारिता अगर प्रधानमंत्री और सरकार से सवाल नहीं पूछेगी तो चौथे खंभे की भूमिका कैसे निभायेगी?
उसे तो निष्पक्ष रहते हुए सरकार की नाक में नकेल कसना ही होगा नहीं तो सरकार को तानाशाह बनने से नहीं रोका जा सकता. प्रेस की स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रहेगा. मेरे मित्र क्यों ऐसा कर रहे हैं ये कभी न कभी तो उससे पूछूंगा.
लेकिन मुझे ये कहने में झिझक नहीं है कि उसने टीवी पत्रकारिता को पूरी तरह से बदल दिया. वो अति आक्रामक है, अतिरेकवादी है. राष्ट्रवाद का नकाब ओढ़े है. जहां देश सबसे बड़ा है और वैकल्पिक विचाराधारा के लिये स्पेस नहीं है. ये लेफ्ट आफ सेंटर के बरक्स दक्षिणपंथ का जबर्दस्त प्रतिवाद है और अर्नब इस प्रतिवाद का नायक भी और प्रतिनायक भी.
उसे आप प्यार कर सकते हैं और जोरदार नफरत भी पर इग्नोर नहीं.
बीस साल सिमट गये हैं पर दोस्त तो है और रहेगा तमाम विरोध के बावजूद भी.गालियां दूंगा पर तारीफ भी करूंगा.
(नोट: आशुतोष आम आदमी पार्टी के नेता हैं और IBN7 के संपादक भी रह चुके हैं. ये उनकी निजी राय है.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)