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अदालतों में न लगे फाइलों का अंबार,इसके लिए जेटली ने दिया था आइडिया

जेपी आंदोलन से शुरू हुआ जेटली का राजनीतिक सफर

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बेशक, 66 वर्षीय अरुण जेटली का निधन असामयिक है, लेकिन जन्म-मरण की ये लीला अप्रत्याशित नहीं है. जेटली लंबे समय से अपनी गिरती सेहत की चुनौती से जूझ रहे थे. सियासी जिंदगी के तमाम मोर्चों पर अविजित रहे अरुण जेटली मौत को नहीं हरा सके. अब जब वो नहीं रहे तो उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए सबसे पहले सार्वजनिक जीवन में उनकी उपलब्धि के प्रति देश को कृतज्ञता जरूर जताना चाहिए.

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जेटली ही वो शख्स हैं, जिन्होंने भारत में ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ की न सिर्फ कल्पना की बल्कि अटल बिहारी वाजपेयी के आशीर्वाद से उसे साकार किया. वाजपेयी ने जेटली को अपना विधि और न्याय मंत्री बनाया तो कहा कि ‘आप तो खुद नामी वकील हैं. लिहाजा ऐसी तरकीब ढूढ़िए जिससे अदालतों में लंबिच लाखों मुकदमों के अंबार को घटाया जा सके.’ कुछ दिनों बाद जब जेटली जी ने ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ का आइडिया वाजपेयी जी से साझा किया, तो उन्होंने पूरा सहयोग सुनिश्चित करवाया. ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ वाले आइडिया को खूब दाद मिली. हालांकि, आगामी सरकारों ने इसमें खास जोर नहीं लगाया, वर्ना अब तक न्याय तंत्र की तस्वीर बहुत बदल चुकी होती.

जेपी आंदोलन से शुरू हुआ जेटली का राजनीतिक सफर

जेटली का सियासी सफर जेपी आंदोलन के दौर में छात्र-राजनीति के जरिये शुरू हुआ. वो 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे. उन्हें 1975 में आपातकाल के 19 महीने तक जेल में भी रहना पड़ा. जनता पार्टी की सरकार के पतन से जन्मी भारतीय जनता पार्टी में युवा जेटली को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा, वो एक ओर वकालत में नये मुकाम हासिल करते रहे तो दूसरी ओर बीजेपी में उनकी प्रतिभाशाली नेता वाली पहचान बनने लगी. जल्द ही पार्टी ने उन्हें गुजरात से राज्यसभा भी भेज दिया. तीन बार गुजरात का प्रतिनिधित्व करने के बाद 2018 में बीजेपी ने उन्हें राज्यसभा में उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधि बना दिया.

वकालत की पृष्ठभूमि की वजह से युवा जेटली ने जल्द ही पार्टी के रणनीतिकारों के बीच अपनी पैठ बना ली. कोर्ट और कानून के मोर्चे पर उनका मशविरा अहमियत पाने लगा. जेटली, शानदार वक्ता और मीडिया मैनेजर भी थे. उन्हें खबरों को पब्लिश करवाने में महारत हासिल थी, क्योंकि वो मीडिया के मनोविज्ञान के कुशल पारखी थे. उन्हें बखूबी मालूम था कि खबरें, सुर्खियां कैसे बनती हैं और खबरों से कैसे खेला जाता है? अखबार और टेलीविजन की उन्हें शानदार समझ थी. वो जानते थे कि कैसे-कैसे बयान न्यूज चैनलों की बाइट्स बनते हैं? इसीलिए जब बीजेपी विपक्ष में थी तब जेटली अपनी पार्टी के चोटी के ‘टीवी पैनेलिस्ट’ थे. अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखने की वजह से वो सभी चैनलों के चहेते थे. अपने पक्ष की तार्किक पेशकश के लिहाज से भी वो बेजोड़ थे.

जेटली चुनावी राजनीति से दूर ही रहे. इसके बावजूद अपने सियासी कद की वजह से जेटली राज्यसभा में प्रतिपक्ष और नेता-सदन के शीर्ष मुकाम तक पहुंचे. वाजपेयी और मोदी सरकार में कई अहम मंत्रालयों के मंत्री बने.

जेटली को सियासी हवा का रुख भांपने में भी गजब की महारत हासिल थी. 2013 में उन्होंने बहुत खामोशी से आडवाणी खेमे पर अपनी पकड़ को ढीला छोड़कर मोदी खेमे का दामन ऐसे थामा कि देखते ही देखते उनका कद सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू और नितिन गडकरी से भी ऊंचा हो चुका था. जल्द ही वो प्रधानमंत्री के सबसे चहेते और नयी-नवेली 2014 वाली मोदी सरकार में अघोषित नंबर-दो बन गये. हालांकि, इसी दौर में जेटली की सेहत ने उन्हें धोखा देना शुरू कर दिया.

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इससे पहले कि नोटबंदी के सदमों पर काबू पाया जाता, मोदी सरकार ने वित्त मंत्री जेटली पर आधी-अधूरी तैयारियों के साथ जीएसटी लागू करने का जिम्मा डाल दिया. नोटबंदी और जीएसटी दोनों से मोदी सरकार की खूब किरकिरी हुई. जेटली ने डटकर सरकार का बचाव किया. इसी तरह, राफेल सौदे को लेकर भी सरकार का बचाव करने का अहम दारोमदार जेटली पर भी रहा. इसी दौर में उनके किडनी ट्रान्सप्लांट की नौबत आ गयी. इलाज के लिए अमेरिका गये तो वित्त मंत्रालय त्यागना पड़ा. हालाँकि, अपने सियासी कद की वजह से इस वक्त वो ‘मिनिस्टर विदआउट पोर्टफोलियो’ यानी ‘प्रभार-विहीन मंत्री’ बने रहे.

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