भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की पॉलिटिक्स के रूलबुक में ऐसी 3 रणनीति है जो केंद्रीय एजेंसियों को हथियार बनाती है. जैसा मैंने अपने पिछले आर्टिकल में बताया था. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की हालिया गिरफ्तारी (Arvind Kejriwal Arrest) इसी राजनीतिक तख्तापलट का हिस्सा है.
मैंने पहले बताया था किया था कि कैसे धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 यानी PMLA कानून विपक्षी नेताओं और सरकार के आलोचकों को निशाना बनाने के लिए प्रवर्तन निदेशालय (ED) का एक प्रमुख कानूनी हथियार रहा है. और ED सत्तारूढ़ पार्टी की इच्छा और एक्शन के अनुरूप कदम उठाती है.
आइए इस कानून की कठोर प्रकृति और इसके दुरुपयोग के परिणामी प्रभावों पर करीब से नजर डालते हैं.
सरन्या रवींद्रन ने अपने कानूनी कॉलम में PMLA कानून और इसके प्रावधानों पर महत्वपूर्ण डिटेल्स दिए है. मैं यहां उनकी कानूनी व्याख्याओं को बता रहा हूं.
रवीन्द्रन के अनुसार:
"धन शोधन निवारण अधिनियम, 2002 (PMLA) खास परिस्थितियों में सुनवाई के बिना प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा कथित तौर पर मनी लॉन्ड्रिंग में शामिल संपत्ति को जब्त करने की अनुमति देता है. संभावित दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा के लिए, धारा 6 एक निर्णायक प्राधिकरण की स्थापना करती है पीड़ित पक्ष को कारण बताने का मौका देती है कि जब्त की गई संपत्ति को क्यों जारी किया जाना चाहिए. निर्णायक प्राधिकारी के पास जो शक्ति है, वह बहुत अधिक है, भले ही इसका प्रयोग केवल अंतरिम आधार पर किया जा सकता है. इस शक्ति का प्रयोग अब तक विभिन्न विवादों से भरा रहा है, यह हाल ही में न्यायमूर्ति प्रतिभा सिंह की प्राधिकरण को 'टेम्प्लेटेड आदेश' पारित करने और 'समान टेम्प्लेटेड पैराग्राफ' का उपयोग करने से परहेज करने की चेतावनी में दिखा. इस तरह दिमाग का प्रयोग न करने से पीड़ित पक्षों के लिए गंभीर पूर्वाग्रह पैदा होने की संभावना है. इसलिए, बैलेंस करने के लिए एक कोरम, जिसमें अनिवार्य रूप से कार्यपालिका के बाहर के न्यायिक सदस्यों को शामिल किया जाएगा, प्राधिकरण के संचालन में सार्थक बदलाव ला सकता है."
ईडी पर अधिक जवाबदेही डालना
हम सभी जानते हैं कि UAPA (गैरकानूनी गतिविधि प्रावधान अधिनियम) के प्रावधान किसी भी गैरपसंद व्यक्ति को बिना मुकदमे के सालों तक जेल में रखने के लिए सरकार के पसंदीदा हथियार बन गए हैं.
इसी तरह PMLA भी इस सरकार द्वारा अक्सर इस्तेमाल किया जाने वाला राजनीतिक हथियार बन गया है.
गौतम भाटिया के अनुसार, जैसा कि उन्होंने एक कॉलम में बताया है, अदालत ने ईडी को "ईसीआईआर" (जैसे पुलिस की FIR ) को आरोपी के साथ शेयर करने से छूट दे दी है. अदालत का कहना है कि आरोपी को केवल "आधार" बताना पर्याप्त है.
यह माना गया कि चूंकि ईडी का सम्मन "गिरफ्तारी" नहीं था (भले ही कार्यात्मक रूप से इसमें भेद न हो), खुद पर दोष लगाने के खिलाफ जो संवैधानिक अधिकार है, वह ईडी की पूछताछ के तहत दिए गए बयानों पर लागू नहीं होता है क्योंकि इसके अधिकारी "पुलिस अधिकारी" नहीं हैं.
ED के सामने कबूलनामा सबूत के रूप में स्वीकार्य है (भले ही पुलिस के सामने कबूलनामे को जबरदस्ती के डर की वजह से स्वीकार नहीं किया जाता); और चूंकि ईडी एक पुलिस बल नहीं है (भले ही कार्यात्मक रूप से कोई भेद नहीं है), इसके द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रियाओं ("ईडी मैनुअल") को सार्वजनिक करने की आवश्यकता नहीं है, यह एक "आंतरिक दस्तावेज" बना रह सकता है.
यह ध्यान देने लायक एक महत्वपूर्ण अंतर है.
सवाल यह है कि ईडी और सरकार को अपने कार्यों के लिए अधिक जवाबदेह कैसे बनाया जाए. भारत की राष्ट्रीय राजनीति में इतिहास के इस वक्त में निर्णय लेना और उस पर कार्रवाई करना अदालतों और लोगों, दोनों का काम है.
केजरीवाल बीजेपी और मोदी के लिए खतरा क्यों हैं?
हम एक राजनीतिक तख्तापलट देख रहे हैं जो भारतीय राजनीतिक व्यवहार और इसकी नैतिकता में लोकतांत्रिक आचरण और व्यवहार को कमजोर कर रहा है, उसे खतरे में डाल रहा है. यह नैतिकता बहुत लंबे समय से पीछे की ओर जा रही है.
कई लोग सोच रहे होंगे कि केजरीवाल या किसी भी राजनेता (भले ही वह वर्तमान मुख्यमंत्री हों) की गिरफ्तारी के बारे में इतना हंगामा क्यों हो रहा है, जबकि उन पर ईडी ने "कथित तौर पर" भ्रष्टाचार का आरोप लगाया गया है. उन्हें इस संदर्भ में महत्वपूर्ण बिंदु और परिप्रेक्ष्य पर गौर करना चाहिए.
दिल्ली के मुख्यमंत्री बीजेपी और मोदी की राजनीति के लिए उससे भी बड़ा खतरा हैं जितना कई लोग सोच सकते हैं. केजरीवाल की 'राष्ट्रवादी' राजनीति दरअसल राजकोषीय विवेक और विकास-समर्थक दृष्टिकोण (सांप्रदायिक मुद्दों के साथ ज्यादा छेड़छाड़ किए बिना) के साथ लागू सामाजिक कल्याणवाद (दिल्ली मॉडल के आसपास निर्मित) के सावधानीपूर्वक तैयार किए गए फॉर्मूले पर आधारित है.
इसलिए, उन्हें अभी गिरफ्तार करने का कदम आगामी चुनावों में बीजेपी की चुनावी संभावनाओं को मजबूत करने का प्रयास ही नहीं है. इसके पीछे दीर्घकालिक रणनीति है, जिसका उद्देश्य अपने सत्ता को बनाए रखने के लिए किसी भी संभावित खतरे को खत्म करना है. केजरीवाल ब्रांड की राजनीति बीजेपी की सत्ता के लिए वही खतरा है.
अगर वे केजरीवाल को जनता की नजर में 'भ्रष्टचारी' के रूप में पेश कर सकते हैं, तो केजरीवाल के राजनीतिक कार्य और दूरदर्शिता पर सवाल उठाया जा सकता है. बीजेपी ठीक यही उम्मीद करती है और एक-एक कर आम आदमी पार्टी के नेताओं को जेल में डालकर इसे हासिल करने की कोशिश कर रही है.
केजरीवाल लुटियन राजनेता नहीं हैं या कोई ऐसे नेता नहीं हैं जो किसी पुराने शासन के पुराने युग (कुछ कांग्रेस पार्टी के नेताओं की तरह) से संबंधित है. या वे कोई ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिसकी राष्ट्रवादी दृष्टि नेहरूवादी धर्मनिरपेक्षता पर निर्भर करती है. केजरीवाल वास्तव में राजनीतिक गलियारे में मौजूद कई लोगों की तुलना में अधिक समकालीन है उनके शब्द और भाषण किसी भी अन्य विपक्षी नेता की तुलना में पूरी देश की जनता का ध्यान अधिक आकर्षित करते हैं.
इसलिए इन बातों को ध्यान में रखते हुए, न्यायपालिका के लिए उस व्यापक राजनीतिक परिदृश्य और उस संदर्भ से अवगत होना महत्वपूर्ण है जिसमें केजरीवाल को जेल भेजा गया है.
(दीपांशु मोहन ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी के जिंदल स्कूल ऑफ लिबरल आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और सेंटर फॉर न्यू इकोनॉमिक्स स्टडीज (सीएनईएस) के डायरेक्टर हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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