बाबा साहेब डॉ. बीआर अंबेडकर की 131वीं जयंती आज मनाई जा रही है. हाल के हुए पांच राज्यों के चुनाव के परिप्रेक्ष्य में जब हम देखते हैं कि इन चुनावों में जाति की निर्णायक भूमिका रही है, तो ऐसे में जाति व्यवस्था पर बाबा साहेब के नजरिए को देखना जरूरी पड़ जाता है. वो चाहते थे भारत जाति मुक्त बने, लेकिन आज इसके विपरीत ही हो रहा है. जाति के सवाल पर जितना उन्होंने विमर्श किया उतना शायद किसी और ने नहीं किया. देश में बड़े आंदोलन पैदा हुए और चल भी रहे हैं लेकिन जाति के सवाल पर सभी चुप रहते हैं या इसे टाल जाते हैं.
डाॅ. अंबेडकर ने 1936 में 'जाति प्रथा का विनाश' पुस्तक लिखी. 1936 में लाहौर स्थित जात पात तोड़क मंडल से उन्हें आमंत्रण मिला और डॉ. अंबेडकर ने उसे स्वीकार भी कर लिया. दुर्भाग्य से जात पात तोड़क मंडल ने इस सम्मलेन को निरस्त कर दिया. उन्हें पता लग गया था कि जाति के विमर्श पर डाॅ. अंबेडकर पूर्ण बौद्धिकता और ईमानदारी से बात रखने वाले हैं. वे हिंदू धर्म की कुरीतियां को नष्ट करने के लिए यहां बोलेंगे.
जिस आधार पर जाति का निर्माण हुआ, उसकी समाप्ति की बात करेंगे. इस डर से सम्मलेन ही निरस्त कर दिया. सम्मेलन के निरस्त होने से वह बहुत दुखी हुए और जो वहां जो बोलने वाले थे उसको किताब का रूप दे दिया. उनकी यही किताब 'जाति प्रथा का विनाश' एक अति चर्चित दस्तावेज है. स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े-बड़े नेता इस सवाल को टाल गए. बाबा साहेब की चिंता थी की देश आजाद हो भी गया, तब भी दलित, पिछड़े और महिलाएं मनुवादियों के गुलाम रहेंगे.
जातियों में बंटे होने से भारत बार-बार युद्ध हारा और गुलाम होता रहा. इसके अतिरिक्त उनका मानना था कि प्रत्येक जाति अपने आप में एक राष्ट्र है और इस प्रथा के रहते भारत में कभी भी मज़बूत जनतंत्र स्थापित नहीं हो सकेगा. उनका यही मत आज सच दिख रहा है. जब तक जाति भक्ति है राष्ट्रभक्ति की बात करना बेइमानी है. बिना जाति के क्या मूलभूत समस्याओं पर कभी चुनाव हुआ है या होने वाला है. कदापि नहीं!
कांग्रेस पार्टी की स्थापना के समय सामाजिक विषय को तो लिया गया, लेकिन समयांतराल में राजनैतिक विमर्श पर पूरा जोर दे दिया गया. कम्युनिस्ट भी इस विषय पर गौर नहीं कर सके. उनका मानना था कि शिक्षा और औद्योगिकीकरण से अपने आप जाति ख़त्म हो जाएगी. दोहरे चरित्र वाला मध्यम वर्ग तो बेशर्मी से वकालत करता रहा है कि जाति तो गुजरे जमाने की बात हो गई, जबकि वो खुद शादी -विवाह और खान-पान स्वयं की जाति में करता है.
देश के बड़े अखबारों में जिनमें वैवाहिक विज्ञापन ज्यादा छपते हैं, उसे कोई देखे तो 90% की मांग जाति में ही रिश्ते की होती है. इसके बावजूद यह कहना कि जाति बीते दिनों की बात है, इससे अधिक मानसिक बेइमानी और क्या हो सकती है. मानसिक बेइमानी आर्थिक भ्रष्टाचार से कहीं ज्यादा घातक होता है.
शिक्षा, पत्रकारिता , लेखन, कला एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जाति विनाश में कोई भूमिका नहीं रही और कोई आशा भी नहीं की जा सकती. यूरोप , अमेरिका आदि समाजों का मध्यम वर्ग प्रगतिशील रहा है और हमारे यहां यथास्थितिवादी है और प्रतिक्रियावादी भी.
डाॅ. अंबेडकर की जाति पर प्रहार करने की चिंता का उद्देश्य मात्र दलितों को आजाद कराना ही नहीं था, बल्कि आर्थिक, राजनैतिक और राष्ट्रीयता आदि के सवालों पर बराबर सरोकार रखना भी था. हज़ारों वर्ष से उत्पादन, उद्योग, व्यापार में हम क्यों पीछे रहे उसके जड़ में सामाजिक व्यवस्था रही है.
श्रम करने वालों को नीच और पिछड़ा माना गया और जुबान चलाने और भाषण देने वाले हुकुमरान बने रहे. चमड़ा, लोहा, हथियार , कृषि आदि के क्षेत्रों में जिन्होंने पसीने बहाए, उन्हें ही नीच और पिछड़ा माना गया. जिस काम का पारितोषिक ही न मिले तो क्यों कोई उसमें रुचि लेगा या अनुसंधान करेगा?
जितने व्यापक स्तर पर डॉ अंबेडकर की जयंती देश में मनाई जाती है उतना शायद ही किसी महापुरुष की होती हो. 10 अप्रैल से 30 अप्रैल तक केवल जयंती के कार्यक्रम चलते रहते हैं. यहां तक कि जून और जुलाई तक कुछ जगहों पर इसे मनाया जाता रहता है. उत्तर भारत में डाॅ. अंबेडकर को सबसे ज्यादा कांशीराम जी ने प्रचारित किया. बीएसपी की स्थापना ही डाॅ. अंबेडकर के जयंती के दिन पर की गई थी.
कांशीराम ने डा अंबेडकर के विचार को अपनी सुविधानुसार लोगों को पेश किया. दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को हुक्मरान बनाने की बात कही. सुविधानुसार डॉ अंबेडकर के कुछ विचारों को उद्धृत किया लेकिन मूल दर्शन को कभी भी नहीं छुआ.
मूल दर्शन था जाति निषेध लेकिन यहां तो जातियों को ही गोलबंदी की बात कही गई. शोषक को सामने रखकर दलितों और पिछड़ों को संगठित किया. भाजपा ने मुसलमानों का डर दिखाकर हिंदुओं को इकट्ठा किया. बीएसपी ने सत्ता प्राप्ति की बात की और रोजमर्रा के विषयों, संवैधानिक, आरक्षण, शिक्षा, जमीन और न्यायपालिका में भागीदारी आदि के सवाल को छुआ तक नहीं.
निजीकरण जैसे सवाल पर चर्चा तक नहीं की. माना जाता है कि कांशीराम ने जाति को जितना समझकर और समीकरण बनाया उतना उनसे पहले कोई और न कर सका. यह भी कहा कि जिसकी जितनी संख्या भारी उतनी उसकी भागीदारी. जाति निषेध की बात न तो सिद्धांत में दिखी और न ही व्यवहार में. इसी को लोगों ने बाबा साहेब का मिशन समझ लिया.
2017 में उप्र के चुनाव में जाति का गणित बीजेपी ने जितना सटीक बैठाया उसके सामने सब फेल हो गए. एसपी से गैर यादव और बीएसपी से गैर जाटव को खिसका लिया. त्रासदी कहें कि ज्यादा छोटे दल जो बीएसपी से टूट कर बने थे वे बीजेपी के लिए वरदान साबित हुए. एसपी और बीएसपी ने कुछ ऐसे काम किए कि गैर यादव और गैर जाटव अपने को ठगा महसूस करने लगे.
बीजेपी ने समझदारी से सभी जातियों के नेताओं को कुछ न कुछ पकड़ा दिया और क्रीम अपने पास रख ली. सपा व बीएसपी से निकले लोगों को कुछ न कुछ दे दिया और सत्ता अपने पास रख ली. किसी को विधायक, किसी को सांसद का पद दिया और किसी को कुछ और दे दिया. पर शासन - प्रशासन अपने नियंत्रण में रखा.
इससे बड़ा झूठ कोई हो ही नहीं सकता कि कोई कहे कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है. हो सकता है कि कुछ लोग जानबूझकर ऐसा न कर रहे हों, लेकिन एक षड्यंत्र के तहत आज भी जाति पर विमर्श नहीं हो रहा है.
शासक वर्ग इरादतन इस सवाल को झुठलाता है. अब तो दलित और पिछड़ों के नेता भी विमर्श की बात तो दूर, बल्कि जाति व्यवस्था को ही और मजबूत बनाने में लगे हैं. जाति की गोलबंदी से वे सांसद, विधायक और अन्य पदों के धारक बनते जा रहे हैं. भारत देश का दुर्भाग्य है कि जाति व्यवस्था का यह दंश कभी खत्म होने वाला नहीं है. जब तक यह सामाजिक व्यवस्था है हमारा अच्छा भविष्य नहीं है.
(लेखक पूर्व सांसद, अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष, व असंगठित कामगार एवं कर्मचारी कांग्रेस (KKC) के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. ये ओपिनियन आर्टिकल है और इस लेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)
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