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शहीद भगत सिंह के 'भक्त' बन रहे राजनीतिक दल उनके एजेंडे की अनदेखी कर रहे हैं

कांग्रेस, बीजेपी और AAP क्या वाकई Shaheed Bhagat singh की राजनीति और विचारों को समझती हैं?

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(यह खबर पहली बार 23 मार्च 2022 को पब्लिश हुई थी. आज शहीद दिवस है, इसलिए यह स्टोरी हम 23 मार्च 2024 को फिर से पब्लिश कर रहे हैं.)

23 मार्च 1931 के दिन भगत सिंह Bhagat Singh शहीद हो गए थे. इसमें कोई संदेह नहीं कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे सम्मानित शख्सियतों में से एक हैं. शहीद भगत सिंह अपने पीछे एक ऐसी विरासत छोड़कर गए हैं जिस पर हर कोई अपना हक जताना चाहता है, लेकिन ज्यादातर लोग भगत सिंह को बंदूकधारी युवा देशभक्त की रोमांटिक छवि से परे नहीं देखना चाहते हैं. इन सबकी शुरुआत कांग्रेस (Congress) ने की. उसके बाद बीजेपी (BJP) ने उसको फॉलो करते हुए अपनाया और अब हाल ही में आम आदमी पार्टी (AAP) इसी कतार में लग गई है. दिल्ली सरकार तो भगत सिंह की तस्वीर को दिल-दिमाग में बैठाकर स्कूलों में राष्ट्रवाद की भावना पैदा करना चाहती है. हाल ही में भगवंत मान (Bhagwant mann) ने भगत सिंह के परिवार के पैतृक गांव खटकर कलां में मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का फैसला किया था.

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यह देखकर मन में खुशी होती है कि भगत सिंह की शहादत और उनका राष्ट्रवाद सभी राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ हम सभी को प्रेरित करता है. उनके बहादुर कारनामों और हमारे देश की आजादी के लिए मरने के साहस ने उन्हें पूजनीय व सम्मानीय बनाया है. शायद यह वह छवि है जो आधिकारिक औपनिवेशिक अभिलेखों में बनाई गई थी, जो हमें विरासत में मिली और जिसे सच्चाई के रूप में आसानी से स्वीकार किया गया. भगत सिंह को औपनिवेशिक सरकार ने भविष्य में एक स्वतंत्र भारत के लिए एक परिपक्व ढांचे के साथ एक क्रांतिकारी विचारक के रूप में नहीं देखा था.

क्या आज की राजनीति भगत सिंह के स्टैंडर्ड पर खरी उतरती है?

अधिकांश राजनीतिक दल भगत सिंह की एक रोमांटिक छवि बनाते हैं और उनकी विरासत को देशभक्ति या राष्ट्रवाद तक ही सीमित कर देते हैं. जिस तरह से राजनीतिक समूह भगत सिंह की प्रशंसा करते हैं उससे भगत सिंह की रोमांटिक छवि वर्तमान सोच में स्पष्ट है. भगत सिंह को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया जाता है जिसने अपनी हिंसक गतिविधियों से अंग्रेजों को आतंकित किया था. उनके साहसी कारनामों का गुणगान किया जाता है, उन्हें एक आइकन में बदल दिया जाता है. उनके पोस्टर फुटपाथ पर बेचे जाते हैं, उनके फोटो वाले स्टिकर कारों के विंडस्क्रीन में चिपकाए जाते हैं.

यह देखकर खुशी हो सकती है कि भगत सिंह को अभी भी प्यार और आदर-सम्मान दिया जाता है, लेकिन हमें जो सवाल पूछने की जरूरत है, वह यह है कि क्या हम वास्तव में उनकी राजनीति और विचारों को समझते हैं? यहां तक कि उनका राष्ट्रवाद भी आज के राष्ट्रवाद से मौलिक रूप से अलग था.

राजनीतिक दलों को आज भी 1920 और 1930 के दशक के राजनीतिक नेतृत्व पर भगत सिंह के विचारों को जानने की जरूरत है, जिनमें से कुछ सांप्रदायिक हो गए थे. राजनीतिक दलों के नेताओं के लिए उनके द्वारा निर्धारित उच्च मानकों को पूरा करना वास्तव में एक चुनौतीपूर्ण कार्य है. 1928 में उन्होंने लिखा था, "आज भारत में नेता उस अंधे छोर पर आ गए हैं जहां चुप रहना बेहतर है. वही नेता जिन्होंने देश को आजाद कराने की जिम्मेदारी उठाई थी और जो 'समान राष्ट्रीयता' का नारा लगा रहे थे, वे घुटनों के बीच सिर रखकर छिपे रहे हैं... भारत के नेता राजनीतिक रूप से दिवालिया हो गए हैं."

जो लोग आज भगत सिंह का आह्वान करते हैं, उन्हें शहादत और राष्ट्रवाद से परे जाकर उनके समाजवादी और बहुलवादी दृष्टिकोण को समझने की जरूरत है.

इंकलाब जिंदाबाद के नारे को भगत सिंह ने लोकप्रिय बनाया था, आज के दौर में भी कई राजनीतिक दल यह नारा लगाते हैं. जो राजनीतिक दल इस नारे को लगाते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि भगत सिंह के इंकलाब (क्रांति) का क्या मतलब है; यह उनके लिए सिर्फ एक राजनीतिक क्रांति नहीं थी. वह लंबे समय से चली आ रही भेदभावपूर्ण प्रथाओं जैसे अस्पृश्यता, सांप्रदायिकता और लैंगिक असमानता को दूर करने के लिए एक सामाजिक क्रांति चाहते थे. लेकिन भगत सिंह की प्रशंसा करने वालों ने जिसमें ज्यादातर राजनीतिक दलों के लोग हैं, उन्होंने भगत सिंह के सामाजिक एजेंडे की अनदेखी की है. उन्होंने भगत सिंह को केवल एक गुस्सैल उपनिवेशवाद विरोधी और राष्ट्रवादी के रूप में पेश किया है, जो न केवल गलत है, बल्कि अधूरा भी है.

भगत सिंह के लिए 'आजादी' का मतलब क्या था?

भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले भगत सिंह अकेले नहीं थे. हालांकि, वह उन कुछ युवाओं में शामिल हैं, जिन्होंने अपने पीछे एक बौद्धिक विरासत छोड़ी है जिसके बारे में सोचना चाहिए. जाति, सांप्रदायिकता, भाषा और राजनीति जैसे मुद्दों पर उनके लेखन का विशाल संग्रह आज भी प्रासंगिक है.

मुझे परवाह नहीं है कि उसकी पगड़ी किस रंग की है - पीला या सफेद. यह निश्चित तौर पर फालतू का तर्क है जो इतिहास को तोड़-मरोड़ कर बताया जाता है. भगत सिंह की बात करने वालों को उनके (भगत सिंह के) विचारों की विरासत को लेकर गंभीर होना चाहिए, जिन्होंने अपने पीछे एक स्वतंत्र भारत के लिए अपने दृष्टिकोण को रेखांकित करते हुए राजनीतिक लेखन का एक संग्रह छोड़ा है.

उन्होंने एक ऐसे भारत का सपना देखा था जहां 2 प्रतिशत अमीर वर्ग के बजाय 98 प्रतिशत लोग शासन करेंगे. उनकी आजादी (स्वतंत्रता) अंग्रेजों के निष्कासन तक ही सीमित नहीं थी. इसके बजाय वे गरीबी, अस्पृश्यता, सांप्रदायिक संघर्ष और हर तरह के भेदभाव और शोषण से आजादी चाहते थे. अपनी फांसी से ठीक 20 दिन पहले, भगत सिंह ने युवाओं के लिए एक मुखर तरीके संदेश जारी किया था :

"... भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक मुट्ठी भर शोषक अपने स्वार्थ के लिए आम लोगों के श्रम का शोषण करते रहेंगे. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये शोषक विशेष रूप से ब्रिटिश पूंजीपति हैं, या ब्रिटिश-भारतीय गठबंधन हैं, या विशुद्ध रूप से भारतीय हैं."

हम सभी भगत सिंह को एक राष्ट्रवादी के रूप में पूजते हैं, लेकिन हम शायद ही कभी यह मानते हैं कि धर्म उनके लिए अप्रासंगिक था. यह उन सभी छद्म राष्ट्रवादियों को याद दिलाने के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जो धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ते हैं. वे यह भी कहते हैं कि भगत सिंह ने सावरकर को बहुत सम्मान दिया, जोकि ऐतिहासिक रूप से गलत है. उन्होंने केवल एक बार सावरकर की पुस्तक 1857 का उल्लेख किया था, लेकिन बाद में भगत सिंह को सावरकर की राजनीति के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, जो आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि भगत सिंह के जीवन और राजनीति ने 1920 के दशक के मध्य के बाद एक गंभीर मोड़ ले लिया था. किसी भी मामले में सावरकर ने खुद अपने बलिदान पर एक भी बयान जारी नहीं किया है, जो कम से कम मेरे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि वे राजनीतिक रूप से अलग खड़े थे.

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प्रगतिशील राष्ट्रवाद का विचार 

भगत सिंह ने अपने प्रसिद्ध लेख 'मैं नास्तिक क्यों हूं' ‘Why I am an Atheist’ धर्म और हमारे जीवन में इसकी भूमिका के बारे में अपने विचार बहुत स्पष्ट रूप से व्यक्त किए, जो न केवल भगवान के खिलाफ लंबा चौड़ा भाषण था बल्कि उससे कहीं अधिक था. इस लेख में तर्कवाद और आलोचनात्मक सोच के प्रति भगत सिंह की प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से प्रदर्शित किया गया है. वह एक कट्‌टर देशभक्त नहीं थे जो एक अंधे, झंडा लहराते राष्ट्रवाद में विश्वास करते थे. उनका राष्ट्रवाद प्रतिगामी होने के बजाय प्रगतिशील था जिसमें आलोचना, अविश्वास और पुराने विश्वास के बारे में हर चीज पर सवाल उठाने की क्षमता थी.

"केवल विश्वास और अंध विश्वास खतरनाक है: यह मस्तिष्क को सुस्त कर देता है और एक व्यक्ति को प्रतिक्रियावादी बना देता है" जब उन्होंने यह कहा तब वह इस पर अडिग थे. इसके आगे वे कहते हैं कि "एक व्यक्ति जो यथार्थवादी होने का दावा करता है, उसे पुराने विश्वास को चुनौती देनी होगी. अगर यह तर्क के हमले को बर्दाश्त नहीं करता है, तो यह टूट जाता है." इसका मतलब है कि न तो तर्कवादियों की चुप्पी और न ही अप्रिय धार्मिक व्यवहारों की रक्षा को राष्ट्रवादी माना जा सकता है. यह लेख न केवल ईश्वर के विरुद्ध एक लंबा-चौड़ा गुस्सैल भाषण था, बल्कि इसने अनजाने में युवाओं के लिए रूपरेखा के साथ-साथ प्रगतिशील राष्ट्रवाद के विचार को भी निर्धारित किया.

भगत सिंह ने डॉ अम्बेडकर के दृष्टिकोण को साझा करते एक बार कहा था:

"मैं नहीं चाहता कि भारतीयों के रूप में हमारी वफादारी किसी भी प्रतिस्पर्धी वफादारी से थोड़ी सी भी प्रभावित हो, चाहे वह वफादारी हमारे धर्म से, हमारी संस्कृति से या हमारी भाषा से उत्पन्न हो. मैं चाहता हूं कि हर कोई पहले भारतीय, आखिरी भारतीय और केवल भारतीय बने."

भगत सिंह एक समावेशी राष्ट्रवाद के लिए खड़े थे जो न केवल राजनीतिक रूप से, बल्कि सामाजिक और आर्थिक रूप से भी समावेशी हो.

मैंने संक्षेप में भगत सिंह के दृष्टिकोण, विशेष रूप से उनके राष्ट्रवाद के विचार और हमारे जीवन में धर्म की भूमिका पर उनके विचारों का उल्लेख किया है. उन सभी राजनीतिक नेताओं और दलों को जो आए दिन उनका आह्वान करते हैं, उन्हें भगत सिंह की क्रांतिकारी बौद्धिक विरासत को आत्मसात करने या कम से कम उस पर विचार करने के लिए समय निकालना चाहिए. भगत सिंह ने हमें एक समग्र भारत के निर्माण का कठिन कार्य सौंपा है, जहां जाति, वर्ग या धर्म के आधार पर भेदभाव के लिए कोई जगह नहीं है.

(एस इरफान हबीब, साइंस और माॅर्डन पॉलिटिकल हिस्ट्री के इतिहासकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @irfhabib है. ये एक ओपिनियन पीस है. ये लेखक के खुद के विचार हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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