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‘शहरी नक्सलवाद’ के नाम पर दमन, डर के भूत से घबरा गई मोदी सरकार

माओवाद का डर कोई पहली बार नहीं दिखाया गया है.

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शिक्षकों, लेखकों, मीडियावालों, वकीलों, अभिनेताओं और फिल्म निर्देशकों के रूप में हमारे बीच ऐसे लोग छिपे बैठे हैं, जो हमारे प्यारे प्रधानमंत्री को मार डालने की साजिश रच रहे हैं. वो नहीं चाहते कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में देश तरक्की की राह पर आगे बढ़े.

बताया जा रहा है कि माओवादी जंगल में रहने वाले ‘जीव’ हैं, जो इन सम्मानित शहरी नक्सलियों की मदद से फल-फूल रहे हैं.

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ऐसा माना जाता है कि शहरी नक्सलवाद या हाफ-माओवाद शब्द खोजकर लाए हैं हमारे वित्त मंत्री अरुण जेटली जी. इसके बाद सत्ताधारी पार्टी के मंत्रियों और प्रवक्ताओं ने ‘राष्ट्रवादी’ मीडिया की मदद से आक्रामक कैंपेन शुरू किया, जिसमें मौजूदा सरकार के विरोधियों को माओवादी, शहरी नक्सली घोषित किया जाने लगा.

शायद उन्हें ‘राष्ट्रविरोधी’ बताने भर से बात नहीं बन रही थी या यह भी कह सकते हैं कि विरोधियों को कभी राष्ट्रविरोधी, तो कभी शहरी नक्सली बताया जाने लगा.

माओवाद का डर नया नहीं

माओवाद का डर कोई पहली बार नहीं दिखाया गया है. अक्सर खामोश रहने वाले जाने-माने अर्थशास्त्री और पिछली यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए माओवाद सबसे बड़ा खतरा है. उनकी सरकार ने वह मंच तैयार किया, जिससे मौजूदा सरकार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को निशाना बना रही है.

28 अगस्त को सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, वेरनॉन गोंजाल्विस, अरुण फेरेरा और वरवर राव की गिरफ्तारी के साथ फादर स्टैन स्वामी, सुजैन अब्राहम और आनंद तेल्तुमब्दे के घरों पर एक साथ छापेमारी की गई. इससे पहले 6 जून को वकील सुरेंद्र गाडलिंग, अंग्रेजी की प्रोफेसर शोमा सेन, लेखकर सुधीर धावले, वन अधिकार कार्यकर्ता महेश राउत और कैदियों के अधिकार को लेकर काम करने वालीं रोना विल्सन को महाराष्ट्र में गिरफ्तार किया गया था.

पुणे पुलिस का दावा है कि पूछताछ में इन लोगों के जिनके साथ संपर्क होने का पता चला, उन्हें 28 अगस्त को गिरफ्तार किया गया और छापेमारी हुई. दिलचस्प बात यह है कि असल मुकदमे को करीब-करीब भुला दिया गया है.

दलितों की हिंसा का मामला भूली पुलिस

माओवाद का डर कोई पहली बार नहीं दिखाया गया है.
दलित संगठनों ने हिंसा के लिए दक्षिणपंथी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया था.
(फोटोः PTI)

पुणे के पास भीमा कोरेगांव में दलितों के शौर्य का जश्न मनाने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम के बाद उन पर जो हिंसा हुई, पुलिस को उसकी जांच करनी थी. दलित भीमा कोरेगांव में हर साल यह आयोजन करते हैं. उनका मानना है कि 200 साल पहले पेशवाओं के साथ युद्ध में अंग्रेजों की जो जीत हुई थी, वह दलित सैनिकों की वजह से मिली थी.

इस साल इस कार्यक्रम का अखिल भारतीय ब्राह्मण सभा सहित कई संगठनों ने ‘राष्ट्रविरोधी’ बताकर विरोध किया था. दलित संगठनों ने हिंसा के लिए दक्षिणपंथी संगठनों को जिम्मेदार ठहराया था. उनका कहना था कि मिलिंद एकबोते और संभाली भिडे ने इसकी साजिश रची थी.

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हत्या की काल्पनिक साजिश?

इसके बाद कार्यक्रम के दौरान भड़काऊ भाषण देने वालों के खिलाफ दो एफआईआर दर्ज हुई. उन पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने समुदायों के बीच नफरत पैदा कर शांति भंग की. महाराष्ट्र पुलिस ने इसमें से दूसरी एफआईआर में अधिक दिलचस्पी दिखाई. इसमें कार्यक्रम को माओवादियों की साजिश बताया गया था.

इसी थ्योरी को आधार बनाकर धावले, गाडलिंग, विल्सन और सेन को अरेस्ट किया गया था. पुलिस ने तब इनमें से एक के कंप्यूटर से एक अजीब लेटर ढूंढ निकालने का दावा किया था.

पुलिस के मुताबिक, इस लेटर में जिक्र है कि पूर्व पीएम राजीव गांधी की तरह मौजूदा प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाई गई थी. हमें बताया गया कि देश इस खतरे को हल्के में नहीं ले सकता. दावा किया गया कि इस लेटर में फंडिंग के अलावा, कश्मीरी अलगाववादियों, पत्थरबाजों, मानवाधिकार के लिए काम करने वाले वकीलों, जेएनयू, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, कांग्रेस पार्टी का जिक्र था यानी इसमें वो सारी बातें थीं, जिन्हें मौजूदा सरकार खतरनाक मानती है. सीनियर जर्नलिस्ट प्रेम शंकर झा ने इस कथित चिट्ठी के विश्लेषण के जरिये बताया था कि यह फर्जी है.

उन्होंने यह भी कहा था कि मौजूदा प्रशासन विरोधियों को निशाना बनाने के लिए जिस तरह से फेक न्यूज और वीडियो का सहारा लेता आया है, उससे भी यह चिट्ठी फर्जी लगती है.

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सोच समझकर परोसा जा रहा झूठ

इससे पहले गृह मंत्री ने देश को आगाह किया था कि जेएनयू के छात्रों के संबंध पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों से हैं, जो सफेद झूठ है. यह झूठ उनकी राजनीति को सूट करता है, लेकिन इससे कन्हैया कुमार और उमर खालिद की जिंदगी मुश्किल पड़ गई है. उन्हें उन लोगों की नजर में अपराधी बना दिया गया, जो यह मान ही नहीं सकते कि गृह मंत्री झूठ भी बोल सकते हैं.

इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री ने खुद एक झूठ गढ़ा कि मणिशंकर अय्यर के घर पर पाकिस्तान की मदद से बीजेपी के खिलाफ एक साजिश रची गई थी.

हमें मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ माहौल बनाने के पैटर्न को भी समझना होगा. प्रधानमंत्री ने 2015 में जजों से कहा था कि उन्हें ‘फाइव स्टार एक्टिविस्टों’ के बहकावे में नहीं आना चाहिए.

प्रधानमंत्री ने उस वक्त कहा था, ‘किसी सोच से प्रेरित अदालती फैसलों को लेकर सावधान रहने की जरूरत है.’ उनके मुताबिक, ‘ऐसी सोच को फाइव स्टार एक्टिविस्ट हवा देते हैं.’ इस पर भी गौर करिये कि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर टारगेट किया जा रहा है. इसके लिए उन पर संदिग्ध जरियों से फंडिंग का आरोप लगाया गया. इसी आधार पर तीस्ता सीतलवाड़ को तंग किया जा रहा है.

एक्टिविस्ट को क्यों दबाना चाहती है सरकार

माओवाद का डर कोई पहली बार नहीं दिखाया गया है.
सुधा भारद्वाज जैसे लोगों को यह सरकार आखिर क्यों दबाना चाहती है?
(फोटो: Reuters)

यह सरकार सुधा भारद्वाज जैसे लोगों को क्यों दबाना चाहती है, इसे समझना मुश्किल नहीं है. वे देश के गरीबों, वंचितों, आदिवासियों को यहां के कानून के जरिये उनका हक दिलवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आदिवासियों से यह मदद छीनना प्रशासन को जरूरी लगता है. इसलिए छत्तीसगढ़ को उन पत्रकारों और वकीलों से खाली करा लिया गया है, जो कॉरपोरेट्स की वन और कुदरती संसाधनों की लूट की सचाई सामने ला रहे थे और आदिवासी हितों की रक्षा में जुटे थे. ऐसा ही झारखंड में भी हो रहा है.

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हिंदुत्व के नाम पर बहुसंख्यवाद

सत्ताधारी पार्टी हिंदुत्व के नाम पर बहुसंख्यवाद का जो राजनीतिक आधार तैयार करना चाहती है, उसे दलितों के एक समूह के तौर पर खड़े होने से खतरा है. इसलिए माओवादी और राष्ट्रविरोधी बताने का यह खेल शुरू हुआ है. पढ़े-लिखे दलितों से सरकार को चुनौती मिल रही है, जिससे वह हिल गई है. इसलिए दलितों के गुस्से को माओवाद का नाम दिया जा रहा है. यह कहा जा चुका है कि रोहित वेमुला जैसे छद्म दलित माओवादियों के एजेंट थे. यह भी कहा गया था कि रोहित की मांग को मौजूदा सरकार के खिलाफ अभियान चलाने के लिए माओवादियों से फंडिंग मिली है.

28 अगस्त के छापों और गिरफ्तारियों से तीन दिन पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में शहरी नक्सलवाद पर एक सेमिनार का आयोजन हुआ था. उसमें वक्ताओं ने श्रोताओं को आगाह किया कि शहरी नक्सली जेएनयू और रामजस कॉलेज में छिपे हैं.

रामजस कॉलेज के एक लोकप्रिय टीचर ने मुझे बताया था कि जब वह एक छात्र से बात कर रहे थे, तब आरएसएस की स्टूडेंट विंग से जुड़े एक अन्य छात्र ने उनके बारे में शोर मचाना शुरू कर दिया कि वह माओवादी हैं.

पिछले साल दिल्ली यूनिवर्सिटी में आरएसएस से जुड़े टीचर्स ने कैंपस को ‘रेड टेरर’ से ‘आजाद’ कराने की मुहिम भी चलाई थी.

भारत में आज वैसा ही हो रहा है, जैसा अमेरिका में मैकार्थी के दौर में हुआ था. सीनेटर मैकार्थी ने तब कई काले लोगों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, अभिनेताओं, फिल्म निर्देशकों, शिक्षकों और लेखकों पर राष्ट्रविरोधी और वामपंथी होने का आरोप लगाया था. मैकार्थी की अगुवाई में चार साल तक अमेरिका के बुद्धिजीवियों को निशाना बनाया गया. यह भारत का मैकार्थी युग है.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हैं. @ Apoorvanand_ पर उन्हें ट्वीट कर सकते हैं. इस लेख में विचार लेखक के हैं. क्विंट का इनके विचारों से सहमत होना जरूरी नहीं है.)

ये भी पढ़ें- भीमा कोरेगांव हिंसा केस में गिरफ्तार 5 एक्टिविस्ट कौन हैं?

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