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BHU विवाद: फिरोज खान पढ़ाएंगे तो संस्कृत के भी लिए अच्छा है

जरूरत है भाषा में भी ‘लोकतंत्र’ हो

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एक मुसलमान के संस्कृत पढ़ाने पर बीएचयू में स्टूडेंट्स, आंदोलन कर रहे हैं. यूं आंदोलन एक सार्थक शब्द है. यह अपने हक के लिए किया जाता है. बीएचयू में जो हो रहा है, उसे उपद्रव कहा जा सकता है. इन उपद्रवियों की संख्या बहुत नहीं लेकिन खबर ऐसी है कि राष्ट्रीय स्तर पर चल रही है. स्टूडेंट्स का कहना है कि एक गैर-हिंदू के संस्कृत पढ़ाने से उनके धर्म को खतरा है. संस्कृत नहीं, वहां धर्म विज्ञान पढ़ाया जाता है. इस विज्ञान के कुछ नियम हैं. वेद पढ़ने से पहले स्टूडेंट्स यज्ञोपवीत धारण करते हैं. प्रोफेसर देवी-देवताओं की तस्वीरों और मूर्तियों को प्रणाम करते हुए उनकी प्रदक्षिणा करते हैं. कोई गैर-हिंदू यह सब नहीं कर सकता.

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संस्कृत सिर्फ मुस्लिमों से नहीं, दूसरी जातियों की पहुंच से भी दूर

यूं देखने पर ये विवाद हिंदू-मुस्लिम भेदभाव का लगता है. यह सच भी है, पर सच सिर्फ इतना भर नहीं है. यहां भाव सिर्फ मुस्लिम विरोध नहीं. इससे गहरा है. एक सतह और खोदकर समझा जा सकता है कि यहां मामला ज्ञान के वर्चस्व का है. उस पर काबिज जातियों का है. जाहिर सी बात है, संस्कृत ब्राह्मणों की पूंजी है. उस तक सामान्य जातियों की पहुंच नहीं. संस्कृत की दो दलित महिला स्कॉलर्स कुमुद पावड़े और कौशल पावर की आपबीती बताती हैं कि संस्कृत पढ़ना तक उनके लिए कितना मुश्किल रहा है.

कौशल पवार को तो संस्कृत में पीएचडी करने के दौरान भी अपशब्द सुनने पड़े थे. संस्कृत भाषा पढ़ने-पढ़ाने का काम हिंदुओं में भी सिर्फ ब्राह्मणों का था. जैसा कि गौतम धर्मसूत्र में कहा गया है कि कोई शूद्र वेद सुन ले तो पिघला हुआ सीसा उसके कान में डाल देना चाहिए. यज्ञोपवीत संस्कार के समय तो कान में मंत्र फूंका जाता है स्त्रियों और दलितों के सामने कभी इस मंत्र को नहीं दोहराना.

इसीलिए यहां विरोध का भाव कहीं अधिक गहरा है. वह सिर्फ मुस्लिम ही नहीं, दूसरी जातियों की पहुंच से भी बहुत दूर है.

भारत में लोकतंत्र मिट्टी की सिर्फ ऊपरी सतह जैसा...

वैसे हमारे रूढ़िवादी समाज में जातियों के आधार पर भेद चारो ओर मौजूद है. रोजमर्रा के हर काम में नजर आता है. दलितों को घर न बुलाना, कुएं से पानी निकालने न देना, आम रास्ते पर न चलना, अलग पाटी पर बैठाना, स्कूलों में हाथ का पका खाना न खाना. इसलिए आजादी के बाद हमारी पहली चुनौती यह थी कि इस भेद को कैसे समाप्त किया जाए. 4 नवंबर, 1948 को संविधान सभा में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने कहा था कि ‘संवैधानिक नैतिकता एक सामान्य भावना नहीं है. इसे विकसित करना होगा. हमें महसूस करना होगा कि हमारे लोगों को अभी यह सीखना बाकी है. भारत में लोकतंत्र मिट्टी की सिर्फ ऊपरी सतह की तरह है. उससे नीचे की सतह तो अभी अलोकतांत्रिक ही है.‘

यह रोजमर्रा का भेदभाव मिट्टी की निचली सतह की तरह था. राज्य ने सिर्फ इतना किया कि ऊपरी सतह पर लोकतंत्र को जमा दिया. पर निचली सतह पर सब पहले जैसे रहा.

ज्ञान का लोकतंत्रीकरण जरूरी

निचली सतह पर तथाकथित उच्च जातियों का प्रभुत्व था. उसने न सिर्फ संसाधनों, बल्कि ज्ञान को भी अपनी मुट्ठी में किया था. फ्रेंच फिलॉसफर माइकल फूको की पावर-नॉलेज की थ्योरी इसी पर आधारित थी. उनका कहना था कि ताकत और ज्ञान के बीच गहरा संबंध होता है. समाज का ताकतवर तबका ज्ञान पर कब्जा करने की कोशिश करता है और इसके जरिए सामाजिक नियंत्रण कायम किया जाता है. ज्ञान पर कब्जे का ही परिणाम था कि पठन-पाठन और उसके माध्यम के रूप में संस्कृत भाषा पर ब्राह्मणों का आधिपत्य रहा. बाकी लोग इस भाषा को नहीं पढ़ सकते थे. संस्कृत को हिंदू धर्म से जुड़ा माना गया. इसकी शिक्षा में तथाकथित हिंदू जीवन मूल्यों के प्रचार-प्रसार को मुख्य लक्ष्य बनाया गया. साथ ही इसे संस्कारों की दीक्षा देने के लिए भी इस्तेमाल किया गया. इस प्रकार ये संस्कार बाकी जातियों को नहीं मिल पाए.

ज्ञान पर अपनी हुकुमत कायम करके, इन जातियों को समाज और संसाधनों से बहिष्कृत किया गया. यह आज तक कायम करने की कोशिश की जा रही है. विश्वविद्यालयों से लेकर मीडिया तक, ज्ञान के सभी मंचों पर उच्च जातियां पैर पसारे जमी हैं. दूसरी जातियों के लिए उन स्थानों में प्रवेश करना मुश्किल है. जहां कहीं उच्च जातियों के अलावा चेहरे नजर आते हैं तो इसका कारण है भारत का संविधान और उसकी रोशनी में बनने वाले कानून. ज्ञान के लोकतंत्रीकरण भी तभी हो पा रहा है.
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संस्कृत के विकास के लिए विदेशियों का आभार मानिए

बीएचयू में ज्ञान के इसी लोकतंत्रीकरण के खिलाफ लड़ाई है. कोई मुसलमान संस्कृत नहीं पढ़ा सकता, यह कुतर्क किसी दलित शिक्षक के लिए भी दिया जा सकता है. किसी स्त्री के लिए भी. लेकिन कोई भाषा या समाज लोकतांत्रिक तब बनता है, जब उसका बंटवारा सभी जातियों, लिंग और धर्म के लोगों के बीच होता है.
संस्कृत मृतप्राय हो जाती, अगर ह्वेनसांग और मैगस्थनीज के यात्रा वृतांतों में उनका उल्लेख न होता. लोगों की स्मृतियों से निकल गई होती अगर दारा शिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद न किया होता. वह मैक्स मूलर जैसा जर्मन विद्वान ही था जिसने संस्कृत साहित्य का इतिहास लिखा. वह बेल्जियम से भारत आने वाले मिशनरी फादर कामिल बुल्के ही थे, जिन्होंने रामथा की उत्पत्ति और विकास पर किताब लिख डाली. इस लिहाज से संस्कृत के समर्थकों को विदेशियों का आभार मानना चाहिए कि उन्होंने ज्ञान की परंपरा की रक्षा की. अगर बीएचयू में फिरोज खान संस्कृत की परंपरा की शिक्षा देंगे तो वह परंपरा समृद्ध ही होगी.

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