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BHU गैंगरेप केस के आरोपियों को पकड़ने में 60 दिन लगे, UP पुलिस को किस बात ने रोका?

BHU Gangrape case: सवाल यह है कि क्या आरोपियों के राजनीतिक रसूख के 'सबूत' ने यूपी पुलिस की उनकी तलाश को धीमा कर दिया?

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उत्तर प्रदेश (Uttar Pradesh) पुलिस को BHU गैंगरेप मामले के तीन आरोपियों- कुणाल पांडे, सक्षम पटेल और अभिषेक चौहान का पता लगाने में 60 दिन क्यों लगे? क्या उनका कथित अपराध गंभीर या जघन्य नहीं था? उन पर 1 और 2 नवंबर 2023 के बीच की रात को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की एक छात्रा के साथ उसके छात्रावास से बमुश्किल 500 मीटर की दूरी पर छेड़छाड़ करने, उसे निर्वस्त्र करने और सामूहिक बलात्कार करने का आरोप लगाया गया है. उनका आतंक यहीं नहीं रुका. उन्होंने कथित तौर पर उसकी तस्वीरें भी लीं और वीडियो भी बनाया.

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यहां तक ​​​​कि जब अगले ही दिन इस अपराध और परिसर में महिला सुरक्षा की कमी के खिलाफ बीएचयू में बड़े पैमाने पर छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू किया, तो भी इस मामले को नजरअंदाज क्यों किया गया?

क्या ऐसा इसलिए था क्योंकि तीनों आरोपी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के वाराणसी आईटी सेल के सदस्य थे? वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र भी है.

अपराधियों का राजनीतिक रसूख

क्या उन्हें 60 दिनों तक 'संरक्षित' किया गया? बीजेपी का कहना है कि अब उन्हें निष्कासित कर दिया है. बीजेपी के वाराणसी आईटी सेल के प्रमुख ने यह भी दावा किया है कि यह इकाई सितंबर 2023 में ही 'भंग' हो गई थी. - (लेकिन ये बात अभी सत्यापित नहीं हुई है कि इकाई सितंबर में भंग हो गई थी क्योंकि एक अन्य बयान में 'नवंबर' कहा गया है)

लेकिन पार्टी का आरोपियों से पल्ला झाड़ लेना - बहुत कम और बहुत देरी से उठाया गया कदम नहीं लगता? वहीं आरोपियों के सोशल मीडिया पोस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं के साथ तस्वीरों से भरे हुए हैं - जिनमें खुद पीएम मोदी और यूपी के सीएम आदित्यनाथ, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, यहां तक ​​कि स्मृति ईरानी भी शामिल हैं, विडंबना यह है कि वह भारत की पूर्व महिला एवं बाल विकास मंत्री हैं.

ये शीर्ष नेता शायद इन लोगों को व्यक्तिगत रूप से नहीं जानते होंगे. लेकिन वे ये जानते हैं कि इन तस्वीरों का इस्तेमाल कैसे किया जाता है.

जमीनी स्तर के पार्टी नेता और पदाधिकारी इन तस्वीरों को सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और साझा करते हैं, उन्हें अपने घरों और कार्यालयों की दीवारों पर लगाते हैं, एक स्पष्ट संदेश के साथ - 'देख लो, हम कैसे बड़े-बड़े नेता लोगों को जानते हैं'.

सवाल यह है कि क्या उनके राजनीतिक रसूख के इस 'सबूत' ने यूपी पुलिस की उनकी तलाश को धीमा कर दिया?

उदाहरण के लिए, पुलिस का कहना है कि रात के समय के सीसीटीवी फुटेज में उनके चेहरे स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं दे रहे थे. लेकिन पुलिस ने जल्द ही उस बाइक की पहचान कर ली जिसका इस्तेमाल तीनों ने किया था. क्या वाकई किसी बाइक के मालिक को ढूंढने में 60 दिन लग जाते हैं?

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अपराधियों को किसका समर्थन था?

यह हमें एक और प्रश्न की ओर ले जाता है - यदि आरोपी वास्तव में निर्दोष थे - तो वे 'लापता' क्यों थे? क्या उन्हें पहले ही भागने का मौका दिया गया? और यदि हां, तो इसके पीछे कौन थे? और अगर ऐसा है तो इससे पता चलता है कि तीनों आरोपियों की पहचान शायद काफी पहले हो चुकी थी. और इसलिए, हम फिर से पूछते हैं: उन्हें केवल 31 दिसंबर 2023 को ही गिरफ्तार क्यों किया गया?

यह वायरल ट्वीट किसी हिमांशु जयसवाल ने पोस्ट किया है, जिसमें कुणाल पांडे और सक्षम पटेल को 24 दिसंबर को बीजेपी के वाराणसी आईटी सेल और सोशल मीडिया टीमों की एक बैठक में भाग लेते हुए दिखाया गया है. हां, वही आईटी सेल जिससे बीजेपी के आधिकारिक बयान के मुताबिक सितंबर या नवंबर के बाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था.

हालांकि यह बीजेपी के लिए थोड़ा शर्मनाक है, लेकिन इससे यूपी पुलिस को और अधिक परेशान होना चाहिए.
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क्या यूपी पुलिस की मिलीभगत है?

एक जघन्य अपराध के दो आरोपी, जो 'वाराणसी की मोस्ट वांटेड' सूची में शीर्ष पर हैं, जो दिन के उजाले में एक पार्टी की बैठक में शामिल हुए और पुलिस को पता भी नहीं चला. जाहिर है, पुलिस उनकी तलाश को लेकर गंभीर नहीं थी.

और फिर गिरफ्तारी के बाद आरोपियों को न्यायिक हिरासत में ही क्यों लिया गया? यूपी पुलिस ने पुलिस हिरासत की मांग क्यों नहीं की, जो किसी भी जघन्य अपराध के बाद जरूरी है? आरोपियों से तत्काल पूछताछ से अक्सर अधिक महत्वपूर्ण सबूत मिलते हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि ऐसा नहीं किया गया. और इसलिए, हमें यह पूछने की जरूरत है - क्या आरोपियों को अभी भी 'बचाया' जा रहा है?

हमें यह भी पूछना चाहिए कि पुलिस ने अभी तक प्रेस कॉन्फ्रेंस क्यों नहीं की. क्या वे इस मामले से जुड़े कठिन सवालों के जवाब देने के इच्छुक नहीं हैं?
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उत्तर प्रदेश के 'बुलडोजर न्याय' के बारे में क्या?

जांच से जुड़े कई अहम सवाल हैं, जिन पर मीडिया को स्पष्टता नहीं है. उदाहरण के लिए, क्या बॉडी फ्लूइड, शरीर के टिशू, फाइबर जैसे महत्वपूर्ण सबूत सावधानीपूर्वक और पेशेवर रूप से सर्वाइवर के शरीर और उसके कपड़ों से लिए गए थे? क्या यह कथित अपराध के तुरंत बाद किया गया था, या वहां भी कीमती समय बर्बाद किया गया था?

याद रखें कि ऐसे महत्वपूर्ण सबूतों के बिना, आरोपी अंततः आजाद हो सकता है.

वहीं उत्तर प्रदेश के 'बुलडोजर न्याय' के बारे में क्या?

यह लेखक सरकार के इस तरह के न्याय के खिलाफ है, और सीएम आदित्यनाथ की सरकार ने न केवल बुलडोजर चलाए हैं और लोगों के घरों को ध्वस्त कर दिया है, बल्कि यह ध्वस्त करने के लिए घरों को चुनने में भी 'चयनात्मक' रही है.

मुसलमानों को सबसे ज्यादा निशाना बनाया गया है. और इसलिए, इस बार, विपक्ष का यह पूछना सही है - क्या आदित्यनाथ अपने बयान पर कायम रहेंगे और इन पूर्व भाजपाइयों के घरों को ध्वस्त कर देंगे?

यह असंभव लगता है, क्योंकि... ये जो इंडिया है ना... यहां कानून के लंबे हाथ भी कभी-कभी छोटे रह जाते हैं.

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