'जिनके अपने घर शीशे के हों, वो दूसरों पर पत्थर नहीं फेका करते', 'वक्त' मूवी में राजकुमार का ये डायलॉग फिलहाल बीजेपी पर फिट बैठ रहा है. महाराष्ट्र से लेकर मध्यप्रदेश में रातों-रात पार्टी से लेकर सरकार को खंड-खंड कर देने वाली BJP के साथ वही खेला हुआ है जो वो दूसरों के साथ खेलते रही है. बीजेपी बिहार में अकेले पड़ गई है. तीर छाप वाली JDU के 'तीर' से बिहार बीजेपी घायल हो गई है. अब इस चोट के बाद एक सवाल उठ रहा है कि बिहार बीजेपी की मौजूदा हालात क्या हैं? BJP का भविष्य क्या होगा? क्या बीजेपी अपने दम पर वापसी कर पाएगी और अगर करेगी तो कैसे?
बीजेपी के पास न कोई लालू है, न नीतीश जैसा सुशासन बाबू
बिहार की सियासत में 2005 से 2013 और फिर 2017 से अगस्त 2022 तक भले ही नीतीश कुमार बीजेपी के समर्थन से चीफ मिनिस्टर बने हों, लेकिन वो हमेशा बड़े भाई के रोल में ही रहे. साल 2020 के चुनाव में बीजेपी ने ज्यादा सीटे जीतीं लेकिन फिर भी नीतीश को बड़े भाई के पद से रिप्लेस नहीं कर पाए. अगर देखा जाए तो बीजेपी अभी तक नीतीश कुमार के नाम पर बिहार में अपनी राजनीति करती रही है. जिसकी वजह से बीजेपी बिहार में अपना सियासी आधार नहीं खड़ा कर सकी. बीजेपी बिहार में अपनी लीडरशिप नहीं खड़ी कर सकी.
बिहार बीजेपी के पास न ही नीतीश जैसा कोई सुशासन बाबू वाला चेहरा है, न ही लालू यादव की तरह समाजवाद का सिंबल है और न ही तेजस्वी की तरह तेजतर्रार युवा नेता. बीजेपी के पास फिलहाल कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का काट हो. मतलब बीजेपी के पास भले ही पीएम मोदी का नाम हो लेकिन सीएम का चेहरा नहीं है.
सुशील मोदी नाम का 'ब्रिज'
कहा जाता है कि बिहार के पूर्व डिप्टी सीएम और बीजेपी नेता सुशील मोदी से नीतीश कुमार की अच्छी खासी बनती थी. शायद यही वजह थी कि दोनों ने एक साथ मिलकर बिहार में सरकार चलाई. नीतीश जब सीएम तो सुशील मोदी उनके डिप्टी. जब लालू यादव से नीतीश 2017 में अलग हुए तब भी सुशील मोदी नीतीश के साथ सबसे पहले दिखे. दोनों के बीच शायद ही कभी अनबन या मनमुटाव की खबरें आई हों, लेकिन 2020 के चुनाव से पहले बीजेपी ने सुशील मोदी को बिहार की एक्टिव पॉलिटिक्स से किनारे कर दिया.
यही नहीं 2020 में सरकार बनाने के बाद सुशील मोदी की जगह बीजेपी ने अपने कोटे से तारकिशो प्रसाद और रेणु देवी को डिप्टी सीएम बना दिया. सुशील मोदी भले ही जमीनी नेता के तौर पर नहीं जाने जाते हों लेकिन बीजेपी और नीतीश के बीच एक पुल का काम तो जरूर करते थे. हो सकता है कि इस जेडीयू और बीजेपी में तलाक के न रुकने की एक वजह इस ब्रिज का टूट जाना भी है.
दिल्ली दूर बहुत दूर है, बिहार में बीजेपी मजबूर है
बीजेपी करीब 15 साल से ज्यादा वक्त तक नीतीश कुमार के साथ सत्ता में रही लेकिन उसके फैसले दिल्ली से ही होते रहे. यही वजह है कि इस बार भी दिल्ली को ही फैसला करना था. लेकिन दिल्ली शायद बिहार के बदलती हवा को वक्त रहते भांप नहीं पाई.
बीजेपी वार्ड काउंसलर से लेकर लोकसभा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ रही है, और उसे इसके फायदे भी लगते हों, लेकिन जमीनी स्तर पर जमीनी नेता की कमी जनता को खलती है. हर छोटे से बड़े मुद्दे पर दिल्ली के दरबार में हाजरी कहीं न कहीं गठबंधन के फैसलों पर असर डालते ही थे.
इसे आप ऐसे समझ सकते हैं कि जाति जनगणना के मुद्दे पर बिहार बीजेपी नीतीश के साथ थी लेकिन बीजेपी की सेंट्रल लीडरशिप का स्टैंड अलग था.
गिरिराज, नित्यानंद, रविशंकर जैसे नेता फिर भी खाली जगह क्यों?
दरअसल, गिरिराज, नित्यानंद, रविशंकर जैसे नेताओं को बीजेपी ने राज्य से ज्यादा केंद्र में खपाया है. गिरिराज और नित्यानंद को केंद्रीय कैबिनेट में जगह दी गई है. ऊपर से गिरिराज जैसे नेताओं की छवि उनके काम से कम बल्कि विवादित बयानबाजी की वजह से ज्यादा बनी है. ऐसे में बीजेपी के सामने जमीन पर लड़ने वाले और सीरियस दिखने वाले लीडरशिप की क्राइसिस है.
'BJP की न दोस्ती अच्छी, न दुशमनी'
पिछले कुछ वक्त से बीजेपी की छवि तो यही बनी है कि बीजेपी की न दोस्ती अच्छी न दुशमनी. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि जो चिराग खुद को पीएम मोदी का हनुमान कहते रहे उस 'चिराग' को बीजेपी ने बुझा कर 'पारस' को छू लिया.
यानी रामविलास पासवान के दुनिया से जाने के बाद बीजेपी ने उनके बेटे चिराग को किनारे कर दिया, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी टूट गई. और तो और चिराग से अलग हुए उनके चाचा पशुपति पारस को मोदी कैबिनेट में मंत्री बनाया गया. यही नहीं 'सन ऑफ मल्लाह' कहे जाने वाले विकासशील इंसान पार्टी के मुकेश सहनी के सभी के सभी विधायकों को ही अपने पाले में कर लिया.
ऐसे में बीजेपी पर छोटी पार्टियों को खत्म करने का आरोप भी है जो बिहार में उनके लिए और मुश्किलें खड़ी कर सकता है.
हालांकि इन सबके बीच एक चीज बीजेपी के पक्ष में जाती दिखती है, वो है बीजेपी के पास मौका. बीजेपी अपने नेताओं को उभारने के लिए आजाद है. साल 2025 में विधानसभा चुनाव होंगे, ऐसे में खुद को मजबूत करने और अकेले आगे बढ़ने के लिए बीजेपी के पास अभी तीन साल का वक्त है.
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