बिहार राज्य राजनीतिक रूप से औपचारिक संस्थावाद और विकास की वैकल्पिक राजनीति के इर्द-गिर्द केंद्रित है, जहां जाति एक सबसे महत्वपूर्ण फैक्टर है. लेकिन बिहार (Bihar) तेजी से आइडेंटिटी पॉलिटिक्स से गवर्नेंस, विकास और अवसरों के सैद्धांतिक बंटवारे को लेकर बदलाव के लिए तैयार दिख रहा है. ये बदलाव राज्य में 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान साफ नजर आया और ये लगातार जारी है.
ये परिवर्तन आगे चलकर आने वाले राज्य सभा चुनाव से पहले और ज्यादा गहरा नजर आया, जब जेडीयू ने आरसीपी सिंह को किनारे कर दिया क्योंकि ऐसा माना जा रहा था कि उनकी एनडीए में बीजेपी से सहानुभूति है.
मौजूद समय में शासन कर रही पार्टी जेडीयू में कई कमियां हैं जो अगर और बढ़ती हैं तो ये अंत में न सिर्फ प्रशांत किशोर की राजनीति के लिए जगह बनाएगा, बल्कि इससे बीजेपी को भी फायदा होगा. राज्य का नेतृत्व, विकास, इकोनॉमिक ग्रोथ, समावेश, नारी सशक्तिकरण और रोजगार से जुड़े कई मुद्दों का सामना कर रहा है.
सबसे दिलचस्प क्या है वो ये कि इसके साथ हिंदुत्व की तरफ वैचारिक परिवर्तन, जाति के फैक्टर को बिगाड़ रहा है, वो फैक्टर जो दशकों तक राज्य की राजनीति पर हावी रहा है.
अब इसका अहसास करते हुए जेडीयू और आरजेडी जैसी पार्टियां लगातार जाति आधारित जनगणना की मांग कर रही हैं. इसके जरिए कोशिश की जा रही है कि मंडल मोमेंट वाले प्रभाव को रिपीट किया जाए क्योंकि, कई ओबीसी वर्ग बीजेपी की तरफ आकर्षित हो रहे हैं.
वो ईमानदारी जो प्रशांत किशोर ने मीडिया के जरिए दिखाई और बिहार में उनका सेल्फ स्टाइल्ड संपर्क अभियान, ये आत्मविश्लेषण के लायक है.
राज्य एक साथ कई मुद्दों से संघर्ष कर रहा है जिसमें बेरोजगारी, कम विकास से लेकर राजनीति का बदलता स्वरूप और शासन कर रहे नेताओं से असंतोष जैसे मुद्दे शामिल हैं.
साल 2020 का लोकनीति डाटा दिखाता है कि 18 से 25 साल के युवाओं में हर 10 में से तीन युवा बेरोजगारी को मुद्दा मानता है और ये बात उनकी राजनीतिक पसंद को तय करेगी.
कई मामलों में प्रशांत किशोर की अपील आम आदमी पार्टी की तरह है, जिसका फोकस पब्लिक सर्विस डिलीवरी रही है.
क्या प्रशांत किशोर बिहार के लोगों के लिए एक राजनीतिक विकल्प पेश करना मैनेज कर सकते हैं. ऐसा विकल्प जो जेडीयू, आरजेडी और बीजेपी से स्वतंत्र हो.
इतिहास के साथ कई समानताएं
वो ईमानदारी जो प्रशांत किशोर ने मीडिया के जरिए दिखाई है और बिहार में उनका सेल्फ स्टाइल्ड संपर्क अभियान, ये आत्मविश्लेषण के लायक है. यह उनके लिए राज्य की राजनीति में आने का समय हो सकता है जैसे वो उन क्षेत्रीय दलों के मुद्दे को उठा रहे हैं, जिन्होंने पूरे प्रदेश और निर्वाचन क्षेत्र को असफल और हारा हुआ बना दिया है.
वहीं इसके उलट, ये राजनीतिक के तौर पर उनके लिए परीक्षा का रूप भी ले सकता है. जिस अनुभव में वो अभी तक पहुंचे भी नहीं हैं.
लोगों के इर्द—गिर्द घूमता और गुड गवर्नेंस को लेकर प्रशांत किशोर का जन स्वराज का विचार 3000 किलोमीटर की पदयात्रा का है, जो 2 अक्टूबर को चंपारण से शुरू होनी है. इसके बाद हो सकता है कि बिहार पर केंद्रित एक पार्टी या फोरम बन जाए.
इसमें इतिहास के साथ कई समानताएं हैं, ये है गांधीवादी दार्शनिक झुकाव, जयप्रकाश नारायण की आंदोलन को लेकर निष्ठा और कन्याकुमारी से राजघाट तक चंद्रशेखर की पदयात्रा, राजघाट जो नई दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि है.
क्या ये शुरुआत के लिए बहुत भारी है? या फिर क्या प्रशांत किशोर को शुद्ध रूप से बिहार में एक नए राजनीतिक दल की संभावना का एहसास हो गया है.
बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा
एक नई पार्टी आमतौर पर किसी सामाजिक आंदोलन, बाकी दलों के पतन की वजह से पैदा हुए असंतोष, प्रभावहीन गर्वनेंस, पंगु होते सार्वजनिक संस्थानों और बेरोजगारी जैसे मुद्दों आदि की पृष्ठभूमि में अपने लिए जगह बना पाती है.
बिहार में फिलहाल ये समय रोजगार के मुद्दे पर युवाओं को संगठित करने का है. हाल में राज्य ने रेलवे रिक्रूटमेंट बोर्ड की परीक्षा प्रक्रिया में अनियिमितताओं को लेकर हिंसक प्रदर्शन देखा है. वहीं कोविड 19 महामारी की वजह से लगे लॉकडाउन के दौरान भी देशभर से अप्रवासी मजदूरों के कूच ने भी खराब छाप छोड़ी है. यहां तक कि आज भी उच्च शिक्षा, नौकरियों और आजीविका के लिए पलायन का संकट बिहार के सामने मंडरा रहा है.
साल 2020 का लोकनीति डेटा कहता है कि 18 से 25 साल के युवाओं में हर 10 में से 3 ने बेरोजगारी को मुद्दा माना जो उनकी राजनीतिक पसंद को तय करेगा.
इसके साथ ही साल 2020 के प्री—पोल लोकनीति सर्वे के करीब तीन चौथाई जवाब देने वालों ने माना कि राज्य में पलायन बढ़ा है. 80 प्रतिशत से ज्यादा लोग सोचते हैं बेरोजगारी बढ़ी है, 65 प्रतिशत लोगों ने कहा कि भ्रष्टाचार बढ़ा है और 88 प्रतिशत का मानना है कि मंहगाई बढ़ी है.
यहां ये जिक्र करना भी जरूरी है कि साल 2015 में ये सभी फैक्टर 30 प्रतिशत से नीचे थे. ये नंबर कमजोर होते राजनीतिक नेतृत्व और ‘गर्वनेंस संकट’ को दिखाते हैं.
अवसर के साथ कई चुनौतियां भी
हालांकि राज्य में एक राजनीतिक अवसर है, लेकिन इसमें एक बड़ी चुनौती भी है जो है, लंबे समय से चले आ रहे गवर्नेंस, लीडरशीप और रोजगार के संकट को लेकर एक बेहतर विकल्प की गारंटी देना जिसमें कमजोर इकनॉमिक ग्रोथ और विकास का मुद्दा भी शामिल है.
ये देखना होगा कि बीजेपी और प्रशांत किशोर इस अवसर को कैसे राजनीतिक सफलता में बदलते हैं.
जिस तरह लोगों में निराशा और असंतोष बढ़ा है, गवर्नेंस को लेकर संकट साफ नजर आता है, खास तौर से उन लोगों के बीच जो नीतीश कुमार के शासन में बिहार में रहे हैं और जिन्होंने संरचात्मक विकास और कानून—व्यवस्था से जुड़ी समस्याओं में सीमित बदलाव देखा है.
ये जेनेरेशन जो चाहती है वो है, हेल्थ इंफ्रास्ट्रकचर, शैक्षणिक संस्थान, स्थानीय स्तर पर अवसर, समय से होने वाले पारदर्शी पब्लिक सर्विस एग्जाम, आईटी इंडस्ट्री और एमएसएमई.
उदाहरण के लिए लोकनीति के साल 2020 के प्री—पोल सर्वे में सिर्फ एक तिहाई लोगों ने माना कि सरकारी अस्पतालों की हालत सुधरी है और लगभग इतने ही लोगों ने कहा कि ये और बदतर हुई है. करीब 42 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकारी स्कूलों की स्थिति और खराब हुई है.
एक के बाद एक आई सरकारें युवाओं और राजनीतिक वर्ग से कनेक्ट करने में फेल होती रही हैं और उन्होंने कई ऐसे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अवसरों को खोया है, जो एक युवा आबादी उन्हें उपलब्ध करा सकती थी.
एक नये बिहार की छवि जो औद्योगिक विकास, सामाजिक सामंजस्य, उद्यम, क्वालिटी एजुकेशन, हेल्थ सर्विसेज, इंफ्रास्ट्रक्चर और स्थायित्व पर बनी हो, अभी समय की मांग है. और यहीं एक नई लीडरशीप के लिए अवसर छुपा है, जो इस चुनौती से उभर कर सामने आए और बिहार के लोगों के साथ चले.
प्रशांत किशोर की आम आदमी पार्टी जैसी अपील
नीतीश कुमार की गिरती हुई लोकप्रियता और अधूरे शासन संबंधी सुधार और खास करके युवाओं में बढ़ता हुआ असंतोष, ये सभी बातें राज्य में एक विकल्प की जरूरत पर जोर देती हैं.
पिछले एक दशक में नीतीश कुमार की लोकप्रियता धीरे—धीरे कम होती जा रही है. उदाहरण के लिए लोकनीति का डेटा दिखाता है कि जहां साल 2010 में 60 प्रतिशत लोगों ने उन्हें दोबारा मौका देने की बात कही, साल 2015 में बस 52 प्रतिशत लोगों का ऐसा मानना था. साल 2020 में ये राजनीतिक पसंद और नीचे गिरकर 36 प्रतिशत रह गई.
प्रशांत किशोर को अभी ये करने की जरूरत है एक सामाजिक राजनीतिक नैरेटिव तैयार करें, जिसे आम जनता की शिकायतों को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया हो और जो जेडीयू, आरजेडी के सिकुड़ते हुए स्पेस को कैप्चर कर सके.
इस पूरे परिदृश्य में बीजेपी के लिए भी एक गाइडिंग लाइट भी है. साफ तौर पर पार्टी अभी अच्छी स्थिति में है, जहां वो समर्थन को संगठित कर सकती है. बिहार बेसब्री से नए नेतृत्व का इंतजार कर रहा है और यहां वैसा ही कुछ हो सकता है जैसा कि हाल में पंजाब में हुआ.
तो यहां प्रशांत के लिए एक अवसर है. ये सबकुछ इस पर निर्भर करता है कि वो जनता के साथ कैसे खुद को इंगेज करते हैं और अपने इस नए प्रयास के खिलाफ स्थानीय और राष्ट्रीय नैरेटिव को कैसे मैनेज करते हैं. उनके सामने दोहरी चुनौती है, एक इकोसिस्टम तैयार करना और निर्वाचक वर्ग को अपनी बातों पर यकीन दिलाना.
विशालकाय बीजेपी, एक दृढ़ संकल्पित आरजेडी और उतार—चढ़ाव से भरे जेडीयू के बीच उनके लिए ये कोई आसान काम नहीं होगा.
प्रशांत किशोर की अपील काफी हद आम आदमी पार्टी की अपील की तरह लगती है जिसका फोकस पब्लिक सर्विस डिलीवरी रही है. इसका मंत्र गर्वनेंस के साथ एक लोकलुभावन स्वर और दिशा है.
दरअसल, मौजूदा स्थिति बहुत हद तक उसी तरह है जैसा बिहार में 2005 और 2010 में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी आरजेडी के खिलाफ नीतीश कुमार के कैम्पेन के समय था.
राज्य को विकास के लिए एक रोडमैप, एजेंडा पर आधारित गवर्नेंस और मजबूत इरादे के साथ नेतृत्व की जरूरत है जिससे सभी स्तरों पर निष्पक्ष और बराबर विकास को सुनिश्चित किया जा सके.
प्रशांत किशोर खुद को दोनों से ही अलग कर रहे हैं, मौजूदा समय में शासन कर रही एनडीए से भी और पहले शासन कर चुकी पार्टी आरजेडी से भी. उन्होंने एक तीसरा मॉडल पेश करने की कोशिश की है, जो जेडीयू से भी स्वतंत्र हो और आरजेडी से भी.
ये बहुत बड़ा टास्क है, जिसमें बीजेपी का विरोध करने की चुनौती भी जुड़ी है, जो खुद भी राजनीतिक स्पेस बनाने की होड़ में है और एक चुनौती आरजेडी से है, जिसके पास मजबूत जाति आधारित समर्थन है.
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