सुप्रीम कोर्ट ने बिलकिस बानो मामले (Bilkis Bano Case) में दोषियों की सजा माफ करने और जेल से रिहाई पर सुनवाई करने का फैसला किया है. कोर्ट अभी जहां एक तरफ इस पर विचार करेगा, लेकिन इसकी पेचीदगी और तकनीकी पक्ष से परे सही और न्यायसंगत क्या है, क्योंकि ये समाज की भावना से भी जुड़ा है.
जब दोनों एक दूसरे पर ओवरलैप करते हैं तो किसी व्यक्ति या समाज के मन और मिजाज में न्याय की भावना बैठती है. यदि कानून को अक्षरश: लागू किया जाता है लेकिन ऐसा होने पर अगर भय की भावना पैदा होती है तो क्या इसे न्याय माना जा सकता है? इससे भी ज्यादा, ऐसी स्थिति में, जिसके लिए स्वतंत्र भारत बनाया गया क्या वो आकांक्षाएं हासिल हो सकती हैं?
इसे शायद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने सबसे बेहतर तरीके से बताया कि स्वतंत्र भारत कैसा होना चाहिए. और, उन्होंने अपनी मशहूर कविता संग्रह गीतांजलि में इसे शानदार तरीके से बताया. जो एक विचारोत्तेजक और अमर पंक्ति से शुरू होता है "जहां मन बिना किसी भय का हो और मस्तक हमेशा शान से ऊंचा’
बिलकिस बानो मामले में दोषियों की सजा में छूट पर विचार करते समय राजनीतिक वर्ग और वास्तव में न्यायपालिका को भी इसी कविता को ध्यान में रखना चाहिए.
अगर कानून का अक्षरश: पालन किया जाता है लेकिन इससे अगर डर बढ़ता है तो क्या फिर इसे न्याय माना जा सकता है ?
इसे शायद गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगौर ने सबसे बेहतर तरीके से बताया है, कि आखिर स्वतंत्र भारत कैसा होना चाहिए ?
क्या अगर आज गांधीजी होते और वो बिलकिस के बारे में जानते तो क्या वो अपना सिर गर्व से ऊंचा रख सकते थे और क्या जिन्होंने बिलकिस के दोषियों को छोड़ा उसके सामने सिर शर्म से नहीं झुक जाता?
राजनीति और कूटनीति में किसी प्रतिक्रिया के लिए धैर्य बहुत जरूरी है. हमें किसी फैसले को लेने के लिए भावनाओं को थोड़ा नियंत्रित करना होता है ताकि एक स्पष्ट फैसला ले सकें. लेकिन राजनेताओं और राजनयिकों को भी व्यक्तिगत भावनाओं का संज्ञान लेना पड़ता है.
कविता की अंतिम पंक्ति में गुरुदेव प्रार्थना करते हैं " मेरे पिता स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में, मेरे देश को जगने दो". आजादी के पचहत्तर साल बाद भी क्या हम अभी भी नींद में हैं?
बिलिकिस बानो मामला : भारतीय सभ्यतागत मूल्यों का मानक
बिलकिस बानो के साथ भयानक क्रूरता हुई. इसे शब्दों में बताया नहीं जा सकता. यह कोई हैरत की बात नहीं होगी अगर आज भी वों भय के साए में होंगी. यह डर किसी दिमागी परेशानी से पैदा नहीं हुआ है. बल्कि इससे हुआ होगा कि जिन अपराधियों ने उसके साथ खौफनाक हरकत किया आज वो जेल से रिहा होकर खुले में घूम रहे हैं. इतना ही नहीं एक साथ खड़े होकर फोटो खिंचवा रहे हैं. यही नहीं मिठाइयां भी बांटी गई और पटाखे भी फोड़े गए. अब सवाल गुरुदेव के स्वतंत्र भारत की परिकल्पना को लेकर है.. क्या आज कोई भी अपना मस्तक ऊंचा रख सकता है, अगर बिलकिस बानो पूरी तरह से सदमे में डरी हुई है ?
हमारे औपनिवेशिक आकाओं की हमारी आत्मा को तोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद राष्ट्रीय आंदोलन ने हम भारतीयों को अपना सिर ऊंचा रखने का अच्छा कारण दिया. भारत की सभ्यतागत विरासत ने युद्ध में हथियारों के टकराने के बीच भी ज्ञान और सत्य की प्रचुर और निरंतर खोज के लिए प्रेरणा दी.
भारत की सभ्यतागत विरासत में पुण्य, कर्तव्य और करुणा के अवतार शामिल हैं. इनमें गांधीजी का जीवन और संदेश भी शामिल है. इस वजह से गुलाम लोगों को भी अपना सिर ऊंचा रखना सिखाया गया. इसने दर्द और कैद की मार झेलना सिखाया. तमाम दुश्वारियों के बाद भी सत्य का मार्ग कभी नहीं छोड़ना और हिंसा से दूर रहना सिखाया.
बिलिकिस बानो मामले पर महात्मा गांधी क्या करते?
आज गांधी जी अगर होते तो क्या वो अपना सिर गर्व से ऊंचा रख पाते ? बिलकिस बानो मामले को जानने, उनके साथ खौफनाक अपराध करने वालों को रिहा होते देख और जिन्होंने उन्हें माफी दी क्या गांधी अपना मस्तक ऊंचा रख पाते ? गांधीजी एक वकील थे और कानूनों के महत्व और उन्हें बनाए रखने की आवश्यकता के प्रति जागरूक थे. लेकिन क्या उन्होंने हमेशा 'विवेकहीन कानूनों या जंगल राज' के खिलाफ आंदोलन नहीं किया था? क्या उन्होंने सत्याग्रह के रास्ते उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन नहीं किया था? भय पैदा करने वाले कानूनों और गाइडलाइन को लागू किए जाने को उन्होंने कैसे देखा होगा? क्या वो अपना सिर ऊंचा रख पाते?
राजनीति, जो कूटनीति के तौर पर मेरा पेशा था, वहां प्रतिक्रियाओं के लिए शांत रहने की जरूरत होती है. हमें किसी फैसला को लेने के लिए भावनाओं को थोड़ा संभालकर रखना होता है और साफ-साफ देखने और समझने वाला फैसला लेना पड़ता है. लेकिन राजनेताओं और राजनयिकों को भी व्यक्तिगत भावनाओं का संज्ञान लेने की जरूरत है. विशेषकर तब जब इससे वाजिब भय और आक्रोश पनपते हैं, चाहे वो कभी कभी चुपचाप हो या फिर मुखर होकर आए.
यह हमारे स्वस्थ सामाजिक और राजनीतिक विकास पर असर डाल सकते हैं. इसलिए बिलकिस बानो मामले में सजा की छूट से पैदा हुए डर और दुख को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि वे हमारे मौजूदा राष्ट्रीय संकट के केंद्र में हैं.
राजनीतिक वर्ग को आपसी संघर्ष खत्म करना चाहिए
आज एक वैचारिक संघर्ष के दौर से हम गुजर रहे हैं और इसलिए राजनीतिक वर्ग के विरोधी एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने में लगे हुए हैं. आम सहमति बनाने की कोई कोशिश किसी पक्ष से आज नहीं दिखती है. कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी और संघ परिवार के खिलाफ गुस्सा और कटुता से भरे हुए हैं. मोदी और उनके सहयोगी इस बात को भुलने के लिए तैयार नहीं हैं कि गोधरा दंगों के बाद उनके साथ क्या कुछ सियासी तौर पर हुआ. वो सिख विरोधी दंगों की बात करते हैं. उनकी दलील है कि जिस तरह से उनके खिलाफ बातें की गईं वैसी ही बातें सिख विरोधी दंगे करने वालों के खिलाफ नहीं हुई, जो इंदिरा गांधी की हत्या किए जाने के बाद हुई.
उनका आरोप है कि उनके खिलाफ आक्रोश सेलेक्टिव अप्रोच का नतीजा है. वे पूछते हैं कि क्या आज जो लोग संस्थाओं के खत्म होने या कमजोर होने के आरोप लगाते हैं उनमें से मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर क्या वो लोग आपातकाल के दौरान क्या किसी चीज के लिए खड़े भी हुए थे ?
सच्चाई यह है कि अगर आजाद भारत के दशकों की राजनीति को जांचा जाए तो कोई भी राजनीतिक वर्ग इस बात का दावा नहीं कर सकता कि वो निर्दोष है. लेकिन राजनीतिक वर्ग को इस तरह से युद्धरत स्थिति में नहीं रहनी चाहिए. शायद अभी सभी पार्टियों के नेताओं को यह देखने के लिए कहना ‘भोलापन’ होगा कि वो बिलकिस बानो के चेहरे और उन लोगों के चेहरे को देखें जिन्हें रिहा किया जा रहा है. क्या कभी किसी दर्द और दुख के लिए हमारे सियासतदां अपनी आंखें और कान खोलेंगे ?
बाहरी चुनौतियां एक तरफ, हमें भारत को जरूर बचाना चाहिए
लाल किले के प्राचीर से 15 अगस्त के अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने बहुत लगाव और जुड़ाव के साथ भाषण दिया. इसमें महिलाओं के प्रति सम्मान बरतने और उनके लिए इस्तेमाल किए जाने वाले गाली गलौज को छोड़ने की अपील की. इसके लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए. क्या यह समय सभी राजनीतिक नेताओं के लिए धैर्यपूर्वक सोचने और यह सुनिश्चित करने का नहीं है कि बिलकिस बानो का डर मिटे? राजनीति करने का एक समय होता है और इससे आगे जाने का भी. लेकिन हम अपने सभ्यतागत मूल्यों पर सियासी खेल नहीं कर सकते.
लेकिन शायद यह बहुत ज्यादा उम्मीदें रखने जैसा होगा. शायद इन ख्यालों को भावनाओं का अतिरेक कहकर खारिज कर दिया जाए. शायद कोई इसके लिए पड़ोस से आए आतंकवाद और उसमें बहे खून का जिक्र कर दे. यह आखिरी प्वाइंट जो है जिस पर थोड़ी चर्चा जरूरी है.
बाहरी चुनौतियों से हमें कठोरता पूर्वक, बिना भावावेश में आए और सख्ती से निपटना चाहिए और अगर ये भारत के हित के लिए जरूरी हो. भारत 'वसुधैव कुटुम्बकम' यानि पूरी दुनिया एक परिवार है का जिक्र करता रहा है लेकिन इस पूरी दुनिया के भीतर एक न्यूक्लियर फैमिली भारत भी है. इसकी रक्षा सबसे बड़ी प्राथमिकता है.
75 साल बाद, क्या भारत अभी भी नींद में है ?
यह स्वाभाविक है क्योंकि सभी भारतीय, बिना किसी फर्क के हमारे भाई-बहन हैं. बिलकिस बानो हमारी बहन हैं और देश के दूसरे हिस्सों में हमारी कश्मीरी पंडित बहनें और और भी कई हैं .. जिन्होंने कभी ना कभी अकथनीय अपराधों को झेला है. अपराध करने वालों को हमें कभी नहीं भूलना चाहिए और ना ही भुलाया जाने देना चाहिए. इन मसलों पर सेलेक्टिव होने का जोखिम नहीं उठाया जा सकता है.
तो, क्या अभी यह उम्मीद करना मूर्खता होगी कि इस अमृत काल में सभी राजनीतिक नेता यह सुनिश्चित करने के लिए एक साथ आएंगे जो हम करने में सक्षम हैं, जो गुरुदेव हमसे चाहते थे- यानी ‘अपना सिर ऊंचा रखना?’ कविता की अंतिम पंक्ति में गुरुदेव प्रार्थना करते हैं " मेरे पिता, स्वतंत्रता के उस स्वर्ग में मेरे देश को जगने दो". आजादी के पचहत्तर साल बाद भी क्या हम अभी भी नींद में हैं?
(लेखक, विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव [वेस्ट] हैं. उनका ट्विटर हैंडल @VivekKatju है. यह एक ओपिनियन पीस है. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है.)
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