(यह राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के प्रेस सचिव अजय सिंह की किताब 'द आर्किटेक्ट ऑफ द न्यू बीजेपी - हाउ नरेंद्र मोदी ट्रांसफॉर्म द पार्टी' का एक संपादित अंश है. यह पहली किताब है जिसमें नरेंद्र मोदी के संगठनात्मक कौशल को लेकर इनसाइट हैं. इसमें कई नेताओं और पार्टी कार्यकर्ताओं के विशेष इंटरव्यू भी शामिल किए गए हैं)
भारतीय जनता पार्टी (BJP) के भावी विकास के लिए यह जरूरी था कि पार्टी और सरकार के बीच सही तालमेल हो. इससे पहले बीजेपी को जन जुटाव का अलग किस्म का अनुभव था. सबसे पहले 1990 में भारी संख्या में लोगों का जमावड़ा तब हुआ था, जब एलके आडवाणी ने राम मंदिर के मुद्दे पर रथ यात्रा शुरू की. फिर भी उसमें जन जुटाव की खासियतें नहीं थीं...
…मोदी के प्रयोग की प्रकृति भिन्न थी. राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रयोग पहली बार तब नजर आया था, जब उन्होंने 2013 में गुजरात में नर्मदा बांध वाली जगह के पास स्टैच्यू ऑफ यूनिटी के निर्माण के लिए खेती के औजार जमा करने के लिए बड़े पैमाने पर लामबंदी अभियान शुरू किया था. भारत के पहले गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल का बुत, अमेरिका की स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी से भी ऊंचा बनाने का प्रॉजेक्ट कोई मनमौजी कोशिश नहीं थी, बल्कि एक गहरी राजनीतिक अभिव्यक्ति थी.
हालांकि उस समय मोदी राष्ट्रीय मंच पर मौजूद नहीं थे, लेकिन इस आह्वान से उन्होंने न सिर्फ पार्टी कैडर को एकजुट किया, बल्कि देश भर में अपने समर्थकों की एक पूरी फौज को खेती के औजार इकट्ठा करने के लिए तैयार किया जिन्हें 182 मीटर लंबा बुत बनाने के लिए पिघलाया जाना था. उस समय यह वादा किया गया था कि उस जगह पर रखे जाने वाले कैप्स्यूल में 5 लाख से ज्यादा गांवों के योगदान को रिकॉर्ड किया जाएगा.
पूरा प्रॉजेक्ट अनूठा था और इससे हम भारत में सामूहिक लामबंदी के संबंध में एक महत्वपूर्ण सबक ले सकते हैं. हालांकि स्टैच्यू ऑफ यूनिटी प्रॉजेक्ट को अंतरराष्ट्रीय तकनीकी विशेषज्ञों द्वारा अत्यधिक कुशल और पेशेवर तरीके से चलाया जाना था लेकिन मोदी के लामबंदी अभियान ने भारत के हर गांव को इसका हिस्सेदार बना दिया. जिन लोगों ने दान स्वरूप अपने खेती के औजार दिए, उनका इस प्रॉजेक्ट के साथ एक भावनात्मक रिश्ता बना. इस लामबंदी के जरिए मोदी ने पिछले दस सालों में अपने सार्वजनिक जीवन को विकसित और परिष्कृत किया है. इसी तरह, सरकारी कार्यक्रमों और पार्टी के संगठनात्मक कार्यों के बीच के तालमेल में भी एक अलग पैटर्न देखा जा सकता है.
सरकार और सत्तारूढ़ दल एक पेज पर
सबसे पहले तो, इसमें कोई असामान्य बात नहीं कि दो शाखाएं- सरकार और सत्तारूढ़ दल, किसी मत पर सहमत हों. लेकिन भारत में अक्सर ऐसा नहीं होता. बीजेपी के नेतृत्व वाली पिछली सरकारों या राज्यों में पार्टी की सरकारों का अनुभव अलग रहा है. परंपरा कांग्रेस के साथ शुरू हुई, जहां पार्टी अपनी स्वतंत्रता पर जोर देती थी. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी एक स्वतंत्र पोलित ब्यूरो की पक्षधर रही है.
कभी-कभी दोनों पक्ष किसी एक उद्देश्य से तालमेल नहीं बिठा पाते हैं. यह कोई असामान्य बात नहीं कि सरकार और सत्तारूढ़ दल में नेताओं का एक समूह आंतरिक विरोधी के रूप में कार्य करे. यह एक तरह की रणनीति होती है कि एक ही पार्टी में लोग अलग-अलग राय पेश करें और विपक्ष को इसका फायदा उठाने का मौका न मिले.
जाहिर है, राष्ट्रीय दलों के लिए आदर्श स्थिति यही होती है कि संगठनात्मक एजेंडा सत्तारूढ़ पक्ष से अलग रखा जाता है. हालांकि मजबूत नेताओं के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय दल इस नियम का पालन नहीं करते. यह तर्क दिया जाता है कि ऐसी व्यवस्था आंतरिक लोकतंत्र को बढ़ावा देती है. लेकिन फायदा होने के बावजूद, इससे पार्टी में बंटवारा और गुटबाजी पैदा होती है और इससे शासन का कामकाज धीमा होता है.
मुख्यमंत्री और फिर प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की प्राथमिकता हमेशा यह रही है कि दोनों पक्षों को एक साथ लेकर चला जाए और सुशासन के लिए उनके साथ मिलकर काम किया जाए.
2014 में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक
2014 में जीत के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में यह स्पष्ट हो गया था कि बीजेपी पार्टी निर्माण पर उतना ही जोर देगी, जितना देश पर शासन करने पर. कार्यक्रम में पारित राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया:
यह चुनाव संगठन के लिए एक सबक है. एक लोकप्रिय नेता और पक्षधर भावनाओं की लहर वोट में तब तब्दील हो जाती है जब संगठन और स्थानीय नेतृत्व मजबूत होता है. इसलिए देश के सभी राज्यों में संगठन को मजबूत करना जरूरी है और यही हमारी जिम्मेदारी है.
जिस तरह का जन समर्थन और जनादेश तीन दशकों में किसी भी पार्टी को हासिल नहीं हुआ था, उसे हासिल करके बीजेपी को मजबूत होना ही था, चूंकि राजनीतिक कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता इस नए विजेता की तरफ खिंचे चले आ रहे थे. लेकिन पार्टी ने सक्रिय रूप से सदस्यता अभियान के साथ जमीनी स्तर पर कार्यकर्ताओं को ढूंढना शुरू किया.
मार्च 2015 में, पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने नए प्राथमिक सदस्यों को नामांकित करने के लिए एक अभियान चलाया. प्रतिक्रिया अपेक्षा से अधिक उत्साहजनक थी, क्योंकि एक हफ्ते के भीतर लगभग एक करोड़ लोग पार्टी में जुड़ गए थे. उस महीने बीजेपी ने घोषणा की कि उसके रजिस्टर में 8.80 करोड़ सदस्य हैं. उसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को पछाड़कर दुनिया का सबसे बड़ा राजनीतिक संगठन बनने की उपलब्धि का भी जश्न मनाया.
2019 की जीत के बाद भी इसी तरह का सदस्यता अभियान शुरू किया गया, जिसमें लगभग 7 करोड़ सदस्य शामिल हुए. आज बीजेपी के 18 करोड़ से अधिक सदस्य हैं. यह देश की आबादी का लगभग 13 प्रतिशत है. जैसा कि वर्तमान पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं, दुनिया के आठ सबसे अधिक आबादी वाले देशों को छोड़ दिया जाए तो बीजेपी के पास किसी भी देश की आबादी से अधिक कार्यकर्ता हैं.
वैसे इन आंकड़ों पर बहस की जा सकती है लेकिन यह एक व्यापक प्रवृत्ति की तरफ इशारा जरूर करता है. इसके अलावा पार्टी की आय और चंदे में बढ़ोतरी से भी इस संख्या की पुष्टि की जा सकती है. 2012-13 में पार्टी की कुल आय 324.16 करोड़ रुपये थी, जो अगले साल बढ़कर 673.81 करोड़ रुपये हो गई, जो चुनावी साल था.
2014-15 में आय 970.43 करोड़ रुपये थी, जबकि 2019-20 तक यह आंकड़ा 3623.28 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था जैसा कि आईटी विभाग और चुनाव आयोग में दायर क्रमशः इनकम टैक्स रिटर्न और चंदे के विवरण में बताया गया था. इसे नेशनल इलेक्शन वॉच ने संकलित किया था.
बीजेपी की मजबूत विचारधारा: 1990 का दशक बनाम आज
ऐतिहासिक रूप से दृढ़ वैचारिक दृष्टिकोण से राजनैतिक पार्टियों की शुरुआत होती है, लेकिन जल्द वे उसे भुला देती हैं, या तो मूल संगठन से इतर जाकर जनता के बीच स्वीकृति प्राप्त करने के लिए या ताकत की आजमाइश की खातिर. भारत के कई प्रमुख राजनीतिक दल इस राह पर चलते आए हैं. बीजेपी भी गठबंधन सहयोगी के रूप में 1990 के दशक में सत्ता में आई थी, और उसकी स्थापना का जो मकसद था, पार्टी को उसे ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था ताकि अधिक से अधिक सहयोगियों का दिल जीता जा सके और सत्ता हासिल करने का आंकड़ा छुआ जा सके.
मोदी के नेतृत्व में बीजेपी के उत्थान के बारे में ध्यान देने योग्य बात यह है कि यह विचारधारा को कमजोर करने के लिए नहीं, बल्कि उसे प्रबल करने के लिए हुआ है. पार्टी का जबरदस्त समर्थन सरकारी अभियानों को और मजबूती देता है.
मोदी ने गुजरात के अनुभवों से सीखा था कि सरकार के कल्याणकारी कार्यक्रम तब तक उपयोगी नहीं होंगे, जब तक उन्हें पर्याप्त रूप से बढ़ावा नहीं दिया जाता और वे लोगों के दिलो-दिमाग में घर नहीं कर जाते. सरकारी तंत्र के अलावा, पार्टी का संगठनात्मक ढांचा लोगों को शुरुआत में ही इन कार्यक्रमों के बारे में जागरूक करने का एक प्रभावी माध्यम है.
गुजरात में मोदी अक्सर गांव, ब्लॉक और जिला स्तरों पर भव्य आयोजनों के जरिए कल्याणकारी कार्यक्रमों की घोषणा करते थे. इसके लिए जन प्रतिनिधियों को लामबंद किया जाता था कि वे आम जन में जागरूकता पैदा करने का काम करें. सरकारी योजनाओं के अनुरूप ऐसे पार्टी कार्यक्रम न केवल पार्टी कैडर को जनता से जोड़ने में प्रभावी हैं, बल्कि लोगों के मूड को भांपने का एक प्रभावी साधन भी साबित होते हैं.
(यह एक पुस्तक अंश है. पाठकों की आसानी के लिए द क्विंट ने ब्लर्ब्स, पैराग्राफ ब्रेक और सबहेडिंग जोड़े हैं.)
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