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ओपिनियन: संघ और BJP को मुसलमानों से नहीं, हिंदुओं से डर लगता है

क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?

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पिछले तीन दिनों में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने बहुत कुछ ऐसा कहा है, जिससे ये धारणा बन सकती है कि संघ में बदलाव आ रहा है. वो अपनी मूल धारणाओं में परिवर्तन कर रहा है. संघ अब वो नहीं रहा जिसको लेकर ये कहा जाता है कि वो एक सांप्रदायिक संगठन है. वो मुसलमानों से नफरत नहीं करता और न ही ईसाइयों और वामपंथ को देश का दुश्मन मानता है. वो एक ऐसा संगठन है जो सबको साथ लेकर चलना चाहता है. लेकिन ये शब्द हैं.

इन शब्दों में अच्छी गूंज सुनाई देती है. और संघ को लेकर बहुत सारी जो भ्रांतियां हैं वो टूट सकती हैं. ऐसे में ये सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर संघ प्रमुख को ये सब कुछ कहने की आवश्यकता क्यों पड़ी? मेरा अपना मानना है कि भागवत की बातों पर कोई नतीजा निकालने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. इंतजार करना चाहिए, इसके कारण हैं.

आशुतोष की ही आवाज में सुनिए उनका ये आर्टिकल

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क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?

ये देखा गया है कि वैचारिक संगठन जो ऊपर से दिखने में बहुत कड़क दिखते है वो अंदर से अपनी जिजीविषा के कारण परिस्थियों के अनुरूप अपने में बदलाव का छद्म पैदा करने में उस्ताद होते है. विचारधारा के स्तर पर ऐसा रणनीतिक कारणों से किया जाता है. 1939 में हिटलर और स्टालिन ने एक दूसरे से संधि कर ये तय किया कि वो एक दूसरे पर हमले नहीं करेंगे. जबकि दोनों ही एक दूसरे के जानी दुश्मन थे. हिटलर अपनी किताब में बाकायदा लिखता है कि यहूदी कम्युनिस्ट जर्मनी के सबसे बड़े दुश्मन है.

उसके जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य था कम्युनिस्ट सोवियत संघ के अस्तित्व को जड़ से मिटा देना. उस वक्त जंग के लिये न तो स्टालिन तैयार था और न ही हिटलर. दो मोर्चों पर जंग कर सकता था. लिहाजा उसने स्टालिन से संधि कर के भविष्य के युद्ध के लिये वक्त खरीद लिया. बाद में हिटलर ने सोवियत संघ पर हमला किया. उसकी सेना तबाही मचाते हुए मॉस्को की सीमा तक पंहुच गयी पर बर्फबारी का वजह से उसे बाद में हार माननी पड़ी.

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इसी तरह से पूंजीवाद की घोर निंदा करने वाले चीन के चेयरमैन माओ त्से तुंग ने अमेरिका से सत्तर के दशक में दोस्ती कर पूरी दुनिया को चौका दिया था. हकीकत ये है कि कम्युनिज्म का जन्म पूंजीवाद का नाश करने के लिए हुआ था. पर समय काल के हिसाब से रिचर्ड निक्सन और माओ दोस्त हो गये, क्योंकि तब तक चीन को सोवियत संघ में बड़ा तत्कालीन खतरा दिखने लगा था.

ऐसे में संघ परिवार मुसलमानों को अचानक प्रेम पत्र लिखने लग जाए तो शक होगा कहीं ये रणनीतिक कदम तो नहीं है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस बदलाव का कारण 2019 के चुनावों मे छिपे है. आज की तारीख में मोदी और बीजेपी की लोकप्रियता में लगातार कमी आ रही है. मोदी आज उस तरह के जन नायक नही हैं जैसा 2014 के चुनावों के समय थे. तब पूरे देश में खासतौर पर उत्तर भारत में मोदी के नाम की आंधी बह रही थी. आज वो कमजोर दिखाई पड़ रहे हैं.

आर्थिक स्तर पर मोदी सरकार की डिलीवरी उम्मीद नहीं जताती कि वो बहुमत की सरकार बनाने लायक वोट जुटा पायेंगे.

क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?
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भागवत के भाषण में हिंदुओं के लिए संदेश?

पिछले सवा चार सालों में मुसलमानों के साथ जिस तरह का बर्ताव हुआ है वो जगजाहिर है. संघ और मोदी-बीजेपी को मुसलमानों की चिंता नहीं है. उसे डर है हिंदुओं से. हिंदुओं का एक बड़ा तबका मोदी सरकार के रहते अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचार से खासा नाराज है. ये नाराजगी मोदी सरकार को मंहगी पड़ सकती है. हो सकता है भागवत अपने भाषण से हिंदुओं के इस तबके को थे संदेश दे रहे हों कि जो हो गया सो हो गया, अब आगे ऐसा नहीं होगा.

ये एक चुनावी रणनीति भी हो सकती है. संघ ये जानता है कि उनका और उनकी विचारधारा में विस्तार तभी तक संभव है जब तक कि केंद्र में उसकी सरकार है. अगर वहां संघ विरोधी सरकार आ गई तो पिछले सवा चार सालों में जो लाभ उसे मिला है वो धूल में भी मिल सकता है. इस वास्ते ये जरूरी है कि संघ और इस बहाने मोदी और बीजेपी की छवि पर विचारधारा की वजह से जो ग्रहण लगा है उसको दुरुस्त किया जाए.

भागवत ने ये संकेत देने की कोशिश की है कि मुसलमानों को लेकर उनका नजरिया बदल गया है. वो मानते है कि बिना मुसलमान के हिंदुत्व का कोई मायने नहीं है. ये मुसलमान प्यार अचानक क्यों ? ये प्यार तब क्यों नहीं दिखा जब अखलाक, पहलू खान, जुनैद पर गो रक्षा के नाम पर कातिलाना हमले हुए. उनकी जानें ली गई. उनका कत्ल करने वालों को हिंदुत्ववादियों ने गले लगाया?

केंद्र के मंत्री महेश शर्मा अखलाक के कत्ल के एक आरोपी की मौत के बाद उसको न केवल श्रद्धाजलि देते हैं बल्कि उसे तिरंगे में लपेटकर सलामी दी जाती है. जैसे कि वो सीमा पर देश की रक्षा करते करते शहीद हुआ हो. इसी तरह झारखंड में एक मुस्लिम को लिंच करने वालों को एक अदालत से सजा मिलने के बाद जब बड़ी अदालत से जमानत मिली तो उनका अभिनंदन करने के लिए केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा गए थे. 
क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?
दोषियों का मिठाई खिलाकर स्वागत करते जयंत सिन्हा
(फोटो: Twitter/ @Bhavana41609504)

दोनों की जमकर आलोचना हुई. पर संघ और बीजेपी ने न तो उन्हें डांट लगाई और न ही इस की निंदा की. अब अचानक इतना प्यार उमड़ना संदेह पैदा करता है. लगता है इसके पीछे कोई रहस्य है. विचारधारा में इतना बड़ा बदलाव यूं ही संभव नहीं है.

भागवत ने दूसरे दिन कहा कि अगर हम मुसलमानों को स्वीकार नहीं करते हैं तो ये हिंदुत्व नहीं है. आरएसएस की पूरी विचारधारा मुस्लिम विरोध पर खड़ी है. वो मानते हैं कि पिछले बारह सौ साल का भारत का इतिहास हिंदुओं और मुसलमानों के बीच जंग का इतिहास है. ये जंग आज भी जारी है. एम एस गोलवलकर अपनी किताब “वी आर आवर नेशनहुड डिफांइंड” में लिखते है -

“हिंदू राष्ट्र पर अभी विजय नही हुई है. लड़ाई जारी है. वो अशुभ दिन जब मुसलमानों ने हिंदुस्तान की जमीन पर अपने पैर धरे तब से अब तक इनको भगाने के लिये हिंदू राष्ट्र बहादुरी से लड़ रहा है. जंग में कभी पलड़ा इस तरफ झुकता है और कभी उस तरफ. पर जंग जारी है. और इसका नतीजा अभी तक नहीं निकला है.”

भागवत को ये साफ करना चाहिए कि क्या ये लड़ाई अब खत्म हो गई है? अगर खत्म हो गई है तो इसका नतीजा क्या निकला? इस लड़ाई में कौन जीता कौन हारा ? संघ की नजर में ये जंग मामूली जंग नहीं थी. ये जंग बारह सौ साल से जारी थी लिहाजा शांति के कुछ बुनियादी कारण होंगे. वो कारण उन्हें बताने चाहिए.

क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?

कहीं ऐसा तो नहीं कि अब इतिहास को देखने का संघ का नजरिया बदल गया है. क्या उन्होंने भूल सुधार कर ली है कि बारह सौ साल का इतिहास दो धर्मों के बीच युद्ध का इतिहास नहीं है! वो राजाओं का इतिहास था. राजा अपने अपने राज की रक्षा करने के लिए लड़े मरे. न हिंदू राजा हिंदू धर्म की रक्षा के लिये लड़ा और न मुसलमान राजा इस्लाम की स्थापना के लिए लड़ा. अगर संघ के इतिहास को देखने के नजरिये में बदलाव आया है तो क्या ये मान लिया जाये कि

  • अब आगे से किसी बाबरी मस्जिद का बवंडर नहीं खड़ा क्या जायेगा ?
  • बदले की भावना से फिर कोई मस्जिद नही तोड़ी जायेगी ?
  • दंगों में मुसलमानों को नहीं निशाना बनाया जायेगा ?
  • और मोदी, बीजेपी और संघ परिवार 2002 गुजरात दंगों और बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिये माफी मांग कर मुसलमानों को गले लगा लेंगे ?
  • मेरा अपना मानना है कि ऐसा होगा नहीं.

गोलवलकर ने अपनी किताब “बंच आफ थॉट” में ये भी कहा है कि मुसलमान इस देश के दुश्मन हैं. उनके तार पाकिस्तान से जुड़े रहते है. वो कई और पाकिस्तान बनाने मे जुटे हैं. वो लिखते है -

“ये सोचना आत्मघाती होगा कि पाकिस्तान बनने के बाद वे रातोंरात देशभक्त हो गये हैं. इसके विपरीत पाकिस्तान बनने के बाद मुस्लिम खतरा सैकड़ों गुना बढ़ गया है.”

पिछले सवा चार सालों में सुनियोजित तरीके से मुसलमानों को हर तरह से देशद्रोही साबित करने की कोशिश की गई. कभी कश्मीर के बहाने, कभी पाकिस्तान की आड़ में और कभी जेएनयू को सामने रख कर. हैदराबाद के औवैसी को इनको सबसे बड़ा नुमांइदा मान कर शैतान सी तस्वीर खींचने का प्रयास किया गया. अफजल गुरू का बहाना लेकर ये बताया गया कि मुसलमान भारत देश से मोहब्बत नहीं कर सकता. वो या तो मुसलमान होता है या फिर आतंकवादी. वो गाय खाता है. बम फोड़ता है.

वो हिटलर का भाषा में जर्मनी के यहूदियों की तरह भारत का सबसे बड़ा दुश्मन है. भागवत को ये साफ करना चाहिए कि क्या गोलवलकर का विश्लेषण गलत था? क्या बीजेपी और संघ परिवार ने पिछले सवा चार सालों में देश के सामने मुस्लिम तबके की गलत इमेज पेश की. क्या वो ये देश को कहेंगे कि मुसलमान भी हिंदुओं की तरह भारत नामक मुल्क से बेइंतहा प्यार करता है और अब आगे कभी भी उसकी देशभक्ति पर सवाल नहीं खड़े किए जाएंगे.

क्या आरएसएस के नजरिए में बदलाव आ रहा है?
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गोलवलकर ये भी कहते थे कि मुसलमानों को लिये इस देश में कोई जगह नहीं हो सकती. अगर उन्हे इस देश में रहना है तो उन्हे द्वितीय दर्जे का नागरिक बनकर रहना होगा. उनको कोई अधिकार नहीं होगा. उन्हे हिंदुओं के रहमोकरम पर रहना होगा और उनकी मर्जी के अनुसार देश छोड़कर जाना होगा. मेरा सवाल ये है क्या अब संघ मुसलमानों को पूरा नागरिक मानने को तैयार हो गया है? अगर ऐसा है तो क्यों और कैसे? इस सवाल का जब तक जवाब नहीं मिलता तब तक ये मानना मुश्किल होगा कि संघ बदल रहा है. क्योकि आरएसएस का अस्तित्व क्या होगा अगर उसके अंदर का मुस्लिम विरोध खत्म हो जायेगा? मुस्लिम विरोध ही तो संघ के होने का कारण है. अगर किसी को विश्वास नहीं है तो वो सावरकर की किताब पढ़ ले और पढ़ ले गोलवलकर की दो किताबें.

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