बीते कुछ दिनों से इस मुद्दे पर कई लेख लिखे गए कि क्या बीजेपी (BJP) और आरएसएस (RSS) के बीच दूरियां बढ़ रही हैं? अगर हां, तो इसके क्या मायने हैं? यह अटकलें तब शुरू हुईं जब रिपोर्टरों ने रैलियों को बिना RSS कार्यकर्ताओं के नीरस देखा. यह अटकलें तब और तेज हो गईं जब बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने यह बयान दिया कि बीजेपी को अब आरएसएस की जरूरत नहीं क्योंकि पार्टी अब खुद अपने दम पर बहुत मजबूत है.
बता दें कि RSS एक सांस्कृतिक और धार्मिक संगठन है जो अपने क्षेत्र से जुडे़ मामलों को देखता है. वहीं बीजेपी एक राजनीतिक संगठन है जो राजनीति से जुड़े मुद्दों पर अपनी नजर बनाए रखता है.
हालांकि, नड्डा की टिप्पणी में दरार की ओर इशारा किया गया है या नहीं, इस पर बहस हो सकती है. लेकिन आरएसएस और बीजेपी के बीच बढ़ती दरार 1980 के दशक में राम जन्मभूमि अभियान की शुरुआत और बजरंग दल और श्री राम सेना जैसे राजनीतिक हिंदुत्व के कट्टरपंथी शाखाओं द्वारा बढ़ती लामबंदी के बाद से देखा जाने लगा - बीजेपी के टूलकिट में सोशल मीडिया के जरिए जनता की राय को प्रभावित करने का जिक्र नहीं है.
यह भी सच है कि आरएसएस, जो कभी बीजेपी के महासचिवों और चुनावी उम्मीदवारों को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था, अब दोनों पर और विशेषकर चुनावी उम्मीदवारों पर बहुत कम प्रभाव रखता है. जेपी नड्डा भले ही जमीन पर आरएसएस के प्रचार की अनुपस्थिति पर समान दिख रहे हों, लेकिन किसी भी तरह से, यह साफ है कि बीजेपी अब आरएसएस पर उतनी निर्भर नहीं है जितनी पहले थी. बहुत संभव है कि यह घटती निर्भरता आरएसएस को परेशान कर सकती है
PM मोदी अगर हिंदू हृदय सम्राट हैं तो फिर आरएसएस का अस्तित्व क्या?
यह बात सच है कि मोदी के सत्ता में आने के बाद आरएसएस के संख्या और शोहरत दोनों में वृद्धि हुई है. बड़े पर्दे पर देखें तो अनुच्छेद 370, राम मंदिर और उत्तर प्रदेश में अन्य मांगे जाने वाले धार्मिक स्थलों जैसे कुछ बड़े RSS के सांस्कृतिक लक्ष्यों को पीएम मोदी ने पूरा किया है. कुछ लोग यह भी तर्क देते हैं कि जाति से उपर उठ कर हिंदूओं को एक साथ लाने के सावरकर के सिद्धांतो को भी पीएम मोदी ने एक लंबे सफर के बाद तय कर लिया है.
अब यह सवाल उठता है कि क्या ये मुकाम मोदी द्वारा बीजेपी के मामलों में आरएसएस को हाशिए पर धकेलने और शायद इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से, आरएसएस से हिंदू प्रतिनिधित्व को अपने हाथ में लेने की भरपाई के लिए पर्याप्त हैं.
अगर प्रधानमंत्री मोदी हिंदू हृदय सम्राट हैं तो फिर आरएसएस का अस्तित्व क्या है? क्या यह 'वैचारिक मोर्चा’ बना रहेगा? जैसा कि नड्डा कहते है. और जैसा कि पीएम मोदी ने कहना शुरू कर दिया है कि वह भगवान के दूत हैं तो क्या बाजेपी ‘राजनीतिक मोर्चा’ बनी रहेगी ?
1979 में जयप्रकाश नारायण ने दुख जताया था कि आरएसएस अध्यक्ष नानाजी देशमुख ने उनसे वादा किया था कि जनता पार्टी में शामिल होने और चुने जाने पर बीजेपी के नेता आरएसएस छोड़ देंगे, लेकिन बीजेपी सांसदों ने ऐसा नहीं किया और न ही आरएसएस ने उन पर ऐसा करने के लिए जोर दिया. जब वाजपेयी और आडवाणी जैसे जनसंघ के नेता मोरारजी देसाई सरकार को गिराने और बीजेपी बनाने के पार्टी के फैसले का हिस्सा थे, तो आरएसएस ने इस पर सहमति जताई थी.
आज के वक्त में यह बहुत कम लोगों का मत होगा कि बीजेपी को आरएसएस छोड़ देना चाहिए, या खुद आरएसएस उन्हें निष्कासित कर दे. जयप्रकाश नारायण कि निराशा इस धारणा पर आधारित था कि संविधान के तहत राजनीतिक दल सभी नागरिकों की समानता के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांत का पालन करने के लिए बाध्य हैं. इसलिए, हिंदू एकता का आरएसएस का लक्ष्य गैर-राजनीतिक क्षेत्र तक ही सीमित होना चाहिए. पीएम मोदी के नेतृत्व में बीजेपी एक घोषित हिंदू पार्टी है, इसलिए यह कोई मायने नहीं रखता कि बीजेपी नेता राजनीति में प्रवेश करने पर आरएसएस छोड़ेंगे या नहीं.
लेकिन अगर आरएसएस बीजेपी का त्याग कर दे तो यह एक बड़ा कदम होगा जिसके कई अहम मायने होंगे. पर भले ही पार्टी के वैचारिक मार्गदर्शन में संगठन की स्थिती कमजोर हुई है लेकिन मोदी के दो कार्यकालों में संगठन को जो लाभ मिले हैं, उसे देखते हुए ऐसा होना असंभव लगता है.
भारत में राजनीतिक हिंदुत्व आज जितना प्रभावी है, उतना पहले कभी नहीं रहा
इस टॉपिक पर जारी डिबेट में यह सवाल भी है कि क्या बीजेपी पर मोदी का प्रभाव बरकरार रहेगा? निस्संदेह, मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी, वाजपेयी के कार्यकाल वाली बीजेपी से बिल्कुल अलग है. लेकिन क्या प्रधानमंत्री के एकमात्र नेता के रूप में पद छोड़ने या चुनाव में हार जाने के बाद भी यह मोदी के ढर्रे पर ही रहेगी?
ज्यादा संभावना यह है कि सत्ता के लिए संघर्ष होगा जिसमें पार्टी को इस तथ्य का सामना करना पड़ेगा कि वह व्यापक रूप से भिन्न राजनीतिक या धार्मिक-राजनीतिक मान्यताओं को प्राथमिकता देने वाली पार्टी है. इसके बाद क्या होगा, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता, लेकिन यह कहना सुरक्षित होगा कि आरएसएस अपना कुछ प्रभाव फिर से हासिल कर लेगा, जो उसने मोदी के शासनकाल में खो दिया था.
भारत के राजनीतिक परिदृश्य में यह सब कितना मायने रखता है? सम्भवतः, काफी कुछ. भारत में राजनीतिक हिंदुत्व आज जितना प्रभावी है, उतना पहले कभी नहीं रहा, जिसने हिंसा, दुर्व्यवहार और खुले भेदभाव की संस्कृति को जन्म दिया है, जिसमें कानून का शासन एक शिकार बन गया है. यदि मोदी की जगह लेने वाला कोई एकमात्र नेता नहीं उभरता है, तो बीजेपी के कम उग्र सदस्य अधिक मुखर हो सकते हैं, और तब आरएसएस को इन दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ सकता है.
अतीत में यह उदारवाद बनाए रखते हुए चरमपंथियों को समर्थन देने में सफल रहा है, लेकिन तब यह छोटा था और चरमपंथी गतिविधियां सीमित थीं. राजनीतिक हिंदुत्व के सार्वजनिक रूप से सामने आने के साथ, इसे नकारना शायद उतना संभव नहीं है.
लेकिन यह एक ऐसे भविष्य पर अटकलें लगाना है जिसका होना या ना होना किसी को मालूम नहीं है. आरएसएस ने आपिनियन लेखों की अफवाहों पर चुप्पी साध रखी है और वह जल्द ही शांत हो जाएगी. इस बीच, उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में नागरिकों के नाम मतदाता सूचियों से हटाए जाने तथा मुस्लिम मतदाताओं को जबरन वोट डालने से रोके जाने की खबरें भी सामने आ रही हैं. बीजेपी ने इन रिपोर्टों पर कोई टिप्पणी नहीं की है - जिन्हें मुख्यधारा के मीडिया हेडलाइन में बमुश्किल ही जगह मिली है और चुनाव आयोग ने अभी तक उन क्षेत्रों में पुनः चुनाव की घोषणा नहीं की है. आरएसएस का बीजेपी से अलग होना निश्चित रूप से स्वागत योग्य होगा, लेकिन मैं इस पर कोई उम्मीद नहीं लगा रहा हूं.
लोकसभा चुनाव 2024 से जुड़ी क्विंट हिंदी की तमाम अन्य ओपिनियन पीस को पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
[राधा कुमार एक शिक्षाविद और लेखिका हैं. उनकी नवीनतम पुस्तक है द रिपब्लिक रिलीर्न्ट: रिन्यूइंग इंडियन डेमोक्रेसी, 1947-2024 (पेंगुइन विंटेज). यह एक ओपिनियन लेख है और इसमें व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.]
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)