गुजरात के दलित आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा जिग्नेश मेवानी वडगाम विधानसभा सीट से जीतकर विधानसभा में पहुंच गए हैं. जिग्नेश ने कहा था कि ये चुनाव वडगाम के लड़के और वडनगर के आदमी के बीच है. उन्होंने ये भी कहा था कि चुनाव जीतने के बाद वे वडगाम से वडनगर तक विजय जुलूस निकालेंगे और 2019 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की राह में रुकावट बनकर खड़े होंगे. नरेंद्र मोदी वडनगर के ही रहने वाले हैं.
क्या 2017 में वडगाम के लड़के की जीत और 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विरोध में तैयार होने वाले धर्मनिरपेक्ष गठजोड़ के बीच कोई संबंध देखा जा सकता है? इस संबंध को समझने के लिए सीपीएम के पूर्व महासचिव सीताराम येचुरी और सीपीआई के राज्यसभा सांसद डी राजा का बयान ध्यान से सुनना चाहिए. गुजरात नतीजों पर प्रतिक्रिया देते हुए सीताराम येचुरी ने कहा:
प्रभावशाली भगवा शक्ति के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ आने की जरूरत है. सभी विपक्षी पार्टियां साथ आकर ही बीजेपी की ‘हेट मशीन’ को हरा सकती हैं.
डी राजा की प्रतिक्रिया भी सीताराम येचुरी जैसी ही रही. राजा ने कहा कि सभी धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को साथ आने की जरूरत है. हालांकि सीपीएम का अधिकारिक बयान कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के वैचारिक गठजोड़ के विरोध में है.
सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने पहले से ही यही लाइन ले रखी है. लेकिन गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों ने विपक्षी एकता की जरूरत को नए सिरे से परिभाषित किया है.
गुजरात में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन से कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्षी एकता की जमीन मजबूत हुई है. सबसे बड़ी बात ये है कि राहुल गांधी ने गुजरात में जिस तरह जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर और हार्दिक पटेल पर भरोसा किया, वो काबिलेतारीफ है.
उस समय राहुल गांधी की इस बात के लिए आलोचना भी खूब हो रही थी कि अपने नेताओं को छोड़कर वे ऐसे नेताओं पर भरोसा कर रहे हैं, जो कांग्रेस में आने को भी तैयार नहीं है. लेकिन राहुल गांधी का फैसला सही निकला और इसके परिणाम भी कांग्रेस के लिए उत्साहित करने वाले आए हैं. इस वजह से राहुल के नेतृत्व पर भरोसा भी बढ़ा है.
राहुल गांधी ने कांग्रेस में शामिल न होने के बावजूद दलित नेता जिग्नेश मेवानी के खिलाफ प्रत्याशी नहीं खड़ा किया, जबकि वडगाम विधानसभा सीट कांग्रेस की पक्की वाली सीट थी. दलित-मुस्लिम गठजोड़ की वजह से ये सीट कांग्रेस जीतने की हालत में थी.
लेकिन वामपंथी-दलित नेता जिग्नेश मेवानी के लिए इस तरह सीट छोड़ना कांग्रेस और राहुल गांधी की 2019 की विपक्षी एकता की रणनीति की बुनियाद बन सकता है. ऊना में दलित उत्पीड़न को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में सफल रहे जिग्नेश मेवानी को देशभर के वामपन्थियों को समर्थन मिला. राहुल गांधी का जिग्नेश के खिलाफ प्रत्याशी न उतारकर, उन्हें समर्थन देने का फैसला इसी निगाह से देखा जा सकता है.
कांग्रेसी जमीन पर वामपंथी उभार का एक और उदाहरण हिमाचल प्रदेश में भी देखने को मिला है. हालांकि राहुल गांधी या कांग्रेस ने यहां किसी रणनीति के तहत सीट खोई है, ऐसा नहीं कहा जा सकता. हिमाचल प्रदेश की थियोग सीट 24 साल बाद सीपीएम ने कांग्रेस से हासिल कर ली है.
1993 में थियोग सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे राकेश सिंघा 24 साल बाद फिर से सीपीएम के टिकट पर विधानसभा पहुंचे हैं. ये सीट कांग्रेस की ताकतवर नेता विद्या स्टोक्स की थी. विद्या स्टोक्स लगातार 8 बार यहां से चुनकर विधानसभा पहुंची थीं. 89 साल की विद्या स्टोक्स ने ये सीट मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के लिए छोड़ी. लेकिन वीरभद्र सिंह ने अरकी से चुनाव लड़ना उचित समझा और वहां से जीत गए.
इस सीट पर विद्या स्टोक्स विजयपाल को लड़ाना चाहती थीं, लेकिन राहुल गांधी की पसंद दीपक राठौर को कांग्रेस ने टिकट दे दिया. नाराज विद्या स्टोक्स ने खुद पर्चा भरा, लेकिन तकनीकी कारणों से उनका नामांकन रद्द हो गया और 24 साल बाद थियोग सीट फिर से सीपीएम के पास चली गई.
अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश, दोनों ही जगह बीजेपी की सरकार बनने जा रही है और कांग्रेस विपक्ष में रहेगी. दोनों ही राज्यों में निर्दलीय विधायक, जिग्नेश मेवानी और सीपीएम के टिकट पर चुने गए राकेश सिंघा, कांग्रेस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर विपक्षी एकता की बुनियाद बन सकते हैं.
दोनों राज्यों के इस छोटे से सूत्र का इस्तेमाल करके कांग्रेस और दूसरी बीजेपी विरोधी पार्टियां 2019 तक बड़ी रस्सी तैयार कर सकते हैं, जिससे विपक्षी एकता को मजबूत किया जा सके. जिग्नेश मेवानी, कांग्रेस के परंपरागत दलित-मुस्लिम एकता को और मजबूत कर सकते हैं. 2019 में ये राजनीतिक फॉर्मूला बड़ा मुद्दा होगा.
(हर्षवर्धन त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने हिंदी ब्लॉगर हैं. उनका Twitter हैंडल है @harshvardhantri. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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