25 फरवरी 2021 को केंद्र सरकार द्वारा 'नए IT नियम' अधिसूचित किए गए थे, जिसे सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) (Intermediary Guidelines and Digital Media Ethics Code) नियम के नाम से भी जाना जाता है.
इसके बाद कई आईटी लॉ एक्सपर्ट्स द्वारा इन नए नियमों की जोरदार आलोचना की गई. विभिन्न डिजिटल मीडिया पोर्टलों द्वारा कई उच्च न्यायालयों के समक्ष उन नियमों की वैधता को चुनौती दी गई है, और संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत द्वारा उन नियमों को "अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार कानून के विपरीत" बताया गया है.
हालांकि, इससे केंद्र सरकार को कंटेंट सेंसरशिप के दायरे को व्यापक बनाने के लिए एक और प्रस्तावित कानून लाने और अस्पष्ट आधारों पर सिनेमाई अभिव्यक्ति को दबाने के लिए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को अत्यधिक शक्तियां देने से नहीं रोका जा सका.
एक कदम आगे बढ़ाते हुए, प्रस्तावित सिनेमैटोग्राफ (संशोधन) विधेयक अब सार्वजनिक टिप्पणियों के लिए खुला है. रचनात्मक स्वतंत्रता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के प्रयास में, यह पहले से स्थापित न्यायिक मिसाल को पलटने का प्रस्ताव करता है, जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार सेंसर बोर्ड द्वारा पहले ही मंजूरी दे दी गई फिल्मों के खिलाफ अपील में नहीं बैठ सकती या पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती.
केंद्र सरकार ने सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में बदलाव का प्रस्ताव करके फिल्मों के खिलाफ "नए आईटी नियम" लागू किए हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि यह बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संस्थागत गिरावट की दिशा में एक और कदम है, इसको लेकर महान फिल्म निर्माता अडूर गोपालकृष्णन ने केंद्र सरकार को "सुपर सेंसर" करार दिया है.
केंद्र को कैसे 'सुपर सेंसर' बनाया जा रहा?
सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा 6 में संशोधन विधेयक द्वारा एक प्रावधान जोड़ा गया है. नए प्रावधान के अनुसार, केंद्र सरकार को अब सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष को उस फिल्म की दोबारा जांच करने का निर्देश देने का अधिकार है, जिसे पहले ही मंजूरी मिल चुकी है और जो रिलीज हो चुकी है.
...सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए प्रमाणित फिल्म के संबंध में, सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा 5बी(1) के उल्लंघन के संबंध में कोई संदर्भ प्राप्त होने के बाद यदि सरकार जरूरी समझती है तो बोर्ड के अध्यक्ष को पहले से प्रमाणित फिल्म के संबंध में पुन: परीक्षण या फिर से जांच का आदेश दे सकती है.धारा 6 में प्रस्तावित संशोधन
सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा 5बी(1) उन मानदंडों को रेखांकित करती है जिसके आधार पर सेंसर बोर्ड किसी फिल्म की सार्वजनिक प्रदर्शनी/स्क्रीनिंग को प्रतिबंधित कर सकता है. ये आधार संविधान के अनुच्छेद 19(2) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंधों के समान हैं, जैसे "भारत की संप्रभुता और अखंडता के हित, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या अदालत की अवमानना, मानहानि या किसी अपराध को उकसाने के संबंध में".
नए प्रावधान में "कोई भी संदर्भ" शब्द का मतलब है कि केंद्र किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए अनुरोध या शिकायत पर किसी फिल्म की पुन: जांच का आदेश देने के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग कर सकता है, इससे केंद्र को कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसमें उनके राजनीतिक या निहित स्वार्थ हैं. इसके अलावा, सरकार लिखित में कोई कारण बताए बिना या संबंधित फिल्म के निर्माताओं को प्रतिनिधित्व या बचाव करने का अवसर प्रदान किए बिना ऐसा कर सकती है. इस तरह की निरंकुश शक्ति का प्रयोग "अभद्रता" (निर्लज्जता) या "सार्वजनिक व्यवस्था" के अस्पष्ट और व्यापक आधारों के तहत किया जा सकता है.
स्थापित कानून के खिलाफ जाने का कार्य करना
केंद्र सरकार ने धारा 6 में एक नया प्रावधान प्रस्तावित करके फिल्म सेंसरशिप पर एक लंबे समय से चली आ रही या स्थापित हो चुकी न्यायिक मिसाल को पलटने का प्रयास किया है.
कर्नाटक हाई कोर्ट ने 1990 में, केएम शंकरप्पा बनाम भारत संघ के मामले में सिनेमैटोग्राफ अधिनियम की धारा 6(1) को असंवैधानिक घोषित कर दिया था. उच्च न्यायालय ने कहा था कि केंद्र सरकार उन फिल्मों के संबंध में पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती जो पहले से ही बोर्ड द्वारा प्रमाणित हैं. इसके बाद, केंद्र सरकार ने इस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी.
हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था. इसी तरह का एक अन्य मामला केए अब्बास बनाम भारत संघ (1971) का था, जिसमें सिनेमैटोग्राफ अधिनियम के कुछ प्रावधानों को असंवैधानिक बताकर चुनौती दी गई थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था :
“हम इस बात पर संतुष्टि व्यक्त करते हैं कि केंद्र सरकार बोलने और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार से जुड़े इस संवेदनशील क्षेत्र में अपने एक सचिव के माध्यम से क्यूरील कार्य करना बंद कर देगी. एक्सपर्ट्स एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) के रूप में बैठते हैं और मामलों को अर्ध-न्यायिक (quasi-judicially) रूप से तय करते हैं जो एक सचिव की तुलना में अधिक आत्मविश्वास पैदा करते हैं. इसलिए ऐसे में बेहतर होगा कि अपील किसी कोर्ट या ट्रिब्यूनल में की जाए.''सुप्रीम कोर्ट
कुछ फिल्मों को रिलीज करने से कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा होगी और इसलिए, केंद्र सरकार को पुनरीक्षण शक्तियां देने की अनुमति दी जानी चाहिए, सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस दावे को खारिज करते हुए कहा कि “हम इस आशंका को समझने में असमर्थ हैं कि कानून और व्यवस्था का मुद्दा उत्पन्न हो सकता है. जब किसी एक एक्सपर्ट बॉडी (निकाय) ने जनता पर फिल्म के प्रभाव पर विचार कर लिया और फिल्म को मंजूरी दे दी है, तो यह कहने का कोई औचित्य ही नहीं है कि कानून और व्यवस्था का मुद्दा पैदा हो सकता है. कानून एवं व्यवस्था कायम रहे, यह देखना संबंधित राज्य सरकार का काम है."
"किसी भी लोकतांत्रिक समाज में अलग-अलग विचार होना स्वाभाविक है. केवल इसलिए कि समाज के एक छोटे वर्ग का दृष्टिकोण ट्रिब्यूनल के विचार से अलग है, और वे अपने विचारों को गैरकानूनी तरीकों से व्यक्त करते हैं तो यह कार्यपालिका के लिए ट्रिब्यूनल के निर्णय की समीक्षा या संशोधित करने का कोई आधार नहीं होगा."सुप्रीम कोर्ट
केंद्र सरकार ने दशकों पुरानी न्यायिक मिसाल के खिलाफ जाने और अपनी पुनरीक्षण शक्तियों को रिवाइवल (पुनर्जीवित) करने के लिए कोई स्पष्टीकरण, तथ्यात्मक विकास या तर्क प्रस्तुत नहीं किया है. कानून और सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट तौर पर सेंसर बोर्ड के फैसलों के खिलाफ पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग करने के लिए केंद्र सरकार के बजाय फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (FCAT) को उपयुक्त निकाय माना था.
ट्रिब्यूनल सुधार अध्यादेश, 2021 (Tribunal Reforms Ordinance, 2021) के तहत FCAT को समाप्त करने के अपने निर्णय के कुछ महीने बाद, केंद्र सरकार की पुनरीक्षण शक्तियों को रिवाइव करने का निर्णय आया था. इससे रचनात्मक अभिव्यक्ति को संस्थागत रूप से तोड़ने या खंडित करने और इसे सरकार की अपनी वर्चस्ववादी संवेदनशीलता की अचानक इच्छा (सनक) के अधीन बनाने की एक सुनियोजित रणनीति का पता चलता है.
अनुचित या अन्यायपूर्ण व्यवहार के कारण परेशान या खिन्न फिल्म मेकर्स के लिए, सेंसर बोर्ड के फैसलों को चुनौती देने के लिए FCAT एक सस्ता और त्वरित उपाय था. FCAT के समाप्त होने से अब ऐसे फिल्म निर्माताओं को हाई कोर्ट के समक्ष महंगी और कठिन मुकदमेबाजी का सामना करना पड़ेगा, जिससे उन पर अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का अनुचित बोझ पड़ेगा.
एफसीएटी को खत्म करने के केंद्र सरकार के फैसले की प्रमुख फिल्म निर्माताओं ने भारी आलोचना की थी. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म निर्माता विशाल भारद्वाज ने ट्विटर पर पोस्ट करके दुख व्यक्त किया था कि, "यह सिनेमा के लिए एक दुखद दिन है."
FIR ब्रिगेड का स्वतंत्र राज
फ्रिंज समूह या एफआईआर ब्रिगेड जोकि किसी भी फिल्म के खिलाफ इसलिए शिकायत दर्ज करते हैं क्योंकि उसे वे "अपने धर्म/जाति पर हमला" मानते हैं. सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में जो प्रस्तावित बदलाव हैं वे ऐसे समूहों और ब्रिगेडों को और ज्यादा उत्साहित या प्रोत्साहित करेंगे.
केंद्र सरकार की पुनरीक्षण शक्तियों के रिवाइवल से ऐसे फ्रिंज तत्वों के लिए फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं को परेशान करना आसान हो जाएगा. अब, उन्हें पुलिस स्टेशन में आपराधिक शिकायत दर्ज कराने या अदालत का दरवाजा खटखटाने की परेशानी नहीं उठानी पड़ेगी. उन्हें केवल केंद्र सरकार से एक शब्द कहने की जरूरत होगी, और वह (सरकार) "बाकी का ख्याल रखेगी". पद्मावत या तांडव जैसे मामले स्टैंडअलोन मामले बनकर रह जाएंगे और ये नियमित मामलों से मिलते जुलते लग सकते हैं.
इसके अलावा, अस्पष्ट और व्यापक आधार के मुद्दे हैं, जिस पर केंद्र सरकार अपनी नई शक्ति का प्रयोग करने में भी सक्षम होगी और फिल्म बिरादरी के भीतर एक "डराने वाला प्रभाव" भी पैदा करेगी.
केंद्र सरकार के डर (पुनरीक्षण शक्ति के प्रयोग) से, और इसके बाद होने वाली संभावित महंगी मुकदमेबाजी से बचने के लिए फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं को अपने प्रोजेक्ट्स को "स्व-सेंसर" करने, कमजोर करने या पूरी तरह से उस प्रोजेक्ट को कैंसल करने के लिए मजबूर किया जा सकता है.
इसलिए, सिनेमैटोग्राफ अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन उन चिंताओं को प्रतिबिंबित करते हैं जो नए आईटी नियमों के तहत डिजिटल मीडिया संस्थाओं को परेशान करती हैं. यह एक तरह से कंटेंट क्रिएटर्स को हथकड़ी लगाने या उन्हें दबाने जैसा है, इसका भारत में बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ेगा.
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