समाज को किसी एक नजरिए से देखने का लाभ ये है कि हम किसी एक दृष्टि से विभिन्न सामाजिक गतिविधियों की एक पुख्ता समझ बना सकते है. लेकिन एकतरफा निगाह से देखने के कारण हम अक्सर बहुत सी जरूरी चीजों को देखने से चूक भी जाते हैं. मसलन अतिराष्ट्रवादी निगाह से भारतीय गणतंत्र को समझने की कोशिश इस समस्या से ग्रस्त हो सकती है कि शायद हम क्षेत्रीय स्तर की संवेदनाओं, जैसे भारतीय होने के साथ-साथ गुजराती होने की भावना या फिर भारतीय होने के साथ-साथ हिंदी पट्टी का नागरिक होने की भावना को हम नजरअंदाज कर दें.
इसी प्रकार मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित होने पर ये बहुत स्वाभाविक है कि कोई वामपंथी व्यक्ति समाज को मात्र विभिन्न आर्थिक वर्गों के समूह के रूप में देखने के चक्कर में इस बात को नजरअंदाज कर दे कि समाज विभिन्न आर्थिक वर्गो का गठजोड़ होने के साथ-साथ तमाम छोटी बड़ी जातियों का समूह भी है. पिछले कुछ दिनों से जाति जनगणना पर चल रही ताबड़तोड़ बहस में जो प्रश्न मूल है, वह यही है कि भारतीय समाज को सरकारी प्रशासन के द्वारा किस नजर से देखा जाना चाहिए?
'मोदी' सरनेम टिप्पणी दंडनीय कृत्य?
2019 के एक मामले में सूरत की एक कोर्ट ने राहुल गांधी को भगोड़े नीरव मोदी का नाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ लेते हुए दोनों के 'मोदी' सरनेम को नकारात्मक ढंग से रेखांकित करने के जुर्म में दो साल की कैद की सजा सुनाई. इसपर बीजेपी ने राहुल गांधी के द्वारा नरेंद्र मोदी पर की गयी पूरी टिप्पणी को जातिवादी करार देते हुए ये कहा कि राहुल ने उस पूरे OBC (Other Backward Classes) पिछड़े समुदाय पर जातिवादी टिप्पणी की है जो पिछड़ा समुदाय नरेंद्र मोदी की तरह 'मोदी' सरनेम का प्रयोग करता है. इस घटना के बारे में भारतीय राजनीति के दक्षिणपंथी संदर्भ से समझ बनाने से यह लगता है कि किसी व्यक्ति के सरनेम पर एक नकारात्मक टिप्पणी वास्तव में एक जातिवादी कृत्य है जो कि दंडनीय है.
ठीक इसी प्रकार पिछले दिनों कनाडा के शैक्षणिक संस्थानों में जाति सूचक टिप्पणियों के खिलाफ कनाडा के प्रशासन के द्वारा संज्ञान लिये जाने पर समाज के हाशिये पर रहने वाले समूहों में हर्षोल्लास देखने को मिला. दक्षिणपंथी समूहों के बीच कम से कम विचारधारा के स्तर पर एक सामान्य समझ भी यही है कि जाति व्यवस्था समाज की एकता को तोड़ने का काम करती है.
इसलिये ना तो जाति विशेष पर टिप्पणी करने की इजाजत होनी चाहिए और ना ही जाति जनगणना के माध्यम से प्रत्येक व्यक्ति की जाति पूछकर एक ऐसी नीति की तरफ कदम बढ़ाना चाहिए की भविष्य मे जाति के डेटा के आधार पर सरकारे अपने विभिन्न निर्णयों को लेना प्रारम्भ कर दे.
जाति गणना से किस फायदे की उम्मीद?
हालांकि बीजेपी सरीखे दक्षिणपंथी दलों से इतर विभिन्न अंबेडकरवादी या फिर सोशलिस्ट दलों के लिये जाति का प्रश्न मात्र नामों के आगे लगे जातिसूचक सरनेम का विषय नहीं है. उनके लिये जाति जनगणना में मात्र प्रत्येक व्यक्ति की जाति पूछ भर लेने से समाज में जातिगत शोषण बढ़ जायेगा. बल्कि बहुत सी OBC जातियां, मुख्य रूप से जिनकी गिनती की मांग जाति जनगणना में की जा रही है, उनके लिये जातिगत शोषण का अर्थ ये है कि कैसे उनकी जाति के आधार पर उनको देश के संसाधनों में हिस्सेदारी लेने से रोका जाता है और इन OBC जातियों की आशा ये है कि यदि देश में प्रत्येक व्यक्ति की जाति गिन ली जाये तो इस बात का पर्दाफाश हो पायेगा कि आखिर वो कौन से जातिगत समूह है जिसका देश के विभिन्न संसाधनों पर एकाधिकार है.
जाति जनगणना की मुख्य मांग ये है कि आजादी के बाद से प्रत्येक दस वर्ष के बाद होने वाली जनगणना में अनुसूचित जाति एवं जनजातियों के नागरिकों की गिनती तो होती रही है लेकिन 1931 के बाद से OBC जातियों की गिनती नहीं हुई है जो कि जाति जनगणना में होनी चाहिये. दक्षिणपंथी राजनीतिक समूहों का तर्क है कि भारतीय समाज को जाति के नजरिये से देखने की जाति जनगणना जैसी प्रशासनिक नीति राष्ट्रीय एकता को खंडित कर सकती है.
लेकिन डॉक्टर बीआर आंबेडकर के विचारों को मानने वाले विभिन्न सोशलिस्ट दल जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल या फिर आंबेडकर के साथ-साथ ईवी रामा स्वामी नायकर (पेरियार) को अपना आराध्य मानने वाले DMK (Dravida Munnetra Kazhagam) सरीखे दल राष्ट्रीय एकता को बहुजन समुदाय की शोषक जातियों के खिलाफ परस्पर एकता का समानार्थी मानते हैं और इन दलों का ये मानना रहा है कि चूंकि जाति जनगणना शोषक और शोषित जातियों को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर देगी, तो बहुजन शोषितों की शोषकों की खिलाफ गोलबंदी की प्रक्रिया को उभरती हुई राष्ट्रीय एकता के रूप में ही परिभाषित किया जाना चाहिए जो भारतीय समाज के लोकतंत्रीकरण के लिए महत्वपूर्ण है.
शोषितों की शोषको के खिलाफ उपरोक्त लिखित गोलबंदी जाति जनगणना के बाद बढ़ने की प्रबल संभावना है. हालांकि भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ के विरोधी इस प्रकार की गोलबंदी को अलग-अलग प्रकार से कराते रहे हैं. उत्तर भारत में जब राम मनोहर लोहिया को ये लगा कि कम्युनिस्ट भारतीय समाज के जातिवादी ढांचे को लगातार ये कहकर नजरअंदाज कर रहे हैं कि जाति व्यवस्था मात्र एक मध्यकालीन ढांचा है, जो औद्योगिकीकरण और आधुनिकता के साथ खुद व खुद खत्म हो जाएगा, तब लोहिया ने जाति के आधार पर ही OBC जातियों के लिये आरक्षण की मांग करना प्रारम्भ किया था, जिससे वो OBC जातियों की जातिगत पहचान का राजनीतिकरण करते हुए भारतीय समाज का लोकतांत्रीकरण करके पिछड़ों के लिये न्याय सुनिश्चित कर सके.
लोहिया और उनके मानने वाले तमाम सोशलिस्टों के अलावा उत्तर भारत में आजादी के बाद से ही चरण सिंह ने किसानों की राजनीति करते हुए पिछड़ी जातियों को सामाजिक एवं आर्थिक न्याय दिलाने की कोशिश की, हालांकि चरण सिंह मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के विषय पर मुखर रहे और अंत में जब उन्होंने पाया कि जाटों को एक पिछड़ी जाति के रूप में वर्गीकरण संभव नहीं है तो उन्होंने आरक्षण की राजनीति करने वाले राम मनोहर लोहिया के समर्थकों से किनारा कर लिया था.
दक्षिण भारत में पिछड़ी जातियों की ऊंची जातियों के खिलाफ गोलबंदी की प्रक्रिया को लोहिया के द्वारा पिछड़ी जातियों की जातिगत पहचान का उपयोग करके समाज के लोकतंत्रीकरण या फिर चरण सिंह की किसान पॉलिटिक्स के संदर्भ में नहीं देखा जाना चाहिए. तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारत के प्रदेशों में पिछड़ी जातियों की गोलबंदी की जिस प्रक्रिया को हमने अपने इतिहास में देखा है, वो पूरी प्रक्रिया वास्तव में पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जाति एवं जनजातियों का एक 'द्रविड़ नस्ल' के रूप में भौगोलिक आधार पर नस्लीकरण करने की प्रक्रिया थी. DMK सरीखी सामाजिक न्याय के अगुवा दलों के आराध्य ई.वी. रामा स्वामी का यह मानना था कि दक्षिण भारतीय ही वास्तव में भारत देश के सबसे पुराने नागरिक हैं जिनको उत्तर की दिशा से आर्यों ने आक्रमण कर के उपमहाद्वीप के दक्षिण मे विस्थापित कर दिया था. अतः भारत देश के मूल निवासी द्रविड़ों को उत्तर भारतीय श्वेत चमड़ी वाले आर्यों के खिलाफ गोलबंद होना चाहिए.
समकालीन समय में जाति की राजनीति के मामले में बीजेपी ने बहुत सी मिश्रित रणनीतियों पर काम किया है. जैसे की अस्सी या नब्बे के दशक में जो पिछड़ी जातियां 1931 की जाति जनगणना पर आधारित मंडल कमीशन के माध्यम से आरक्षण पाने के बावजूद यादवों की भांति आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाई उनको बीजेपी ने विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपने पाले में शामिल करने की कोशिश की. इस प्रकार बीजेपी ने पिछड़ों की गोलबंदी को कमजोर किया. ठीक इसी प्रकार वाल्मीकि, खटीक सरीखी अनुसूचित जातियों में जो जातियां बहुजन समाज पार्टी के उत्थान से जाटवों की भांति कोई लाभ नहीं उठा पाई, बीजेपी ने उनको अपने खेमे में शामिल कर बहुजन आंदोलन को कमजोर भी किया.
कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मिली करारी हार से ये बात स्पष्ट होती है कि हिंदुओं का विराट हिंदू पहचान के तले नस्लीकरण कर दलितों-वंचितों का उच्च जातियों द्वारा शोषण शायद इतना आसान भी नहीं है क्योंकि कम से कम दक्षिण भारत में पेरियार की विचारधारा तले शोषित हिंदुओं का जो जुटान द्रविड़ नस्ल के रूप में साल दर साल हुआ है वह जुटान बीजेपी द्वारा बनाई हुई छद्म विराट हिंदू नस्ल से कहीं आगे है.
कर्नाटक में वोटरों ने बीजेपी द्वारा प्रायोजित विराट हिंदू पहचान को जो करारी शिकस्त दी है उसके बाद इस बात की संभावना बहुत कम है कि लोहिया, चरण सिंह या पेरियार की तरह पिछड़े-शोषितों के लिए त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिये बीजेपी जाति जनगणना कराकर अपनी बहुत मेहनत से बनाई गई सामूहिक हिंदू पहचान को बिखरने देगी और साथ ही साथ इस बात की संभावना भी कम ही है कि जाति जनगणना के अभाव में उच्च जातियों के जीवन मूल्यों पर आधारित विराट हिंदू पहचान के भीतर पिछड़ी जातियों के लिये कोई सामाजिक एवं आर्थिक न्याय सुनिश्चित हो पायेगा.
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र विषय में MA कर रहे हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. व्यक्त किए गए विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट हिंदी न तो इसका समर्थन करता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है. )
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